व्यक्तित्व अर्थ परिभाषा प्रकार

व्यक्तित्व: अर्थ, परिभाषा, प्रकार व व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले कारक

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व्यक्तित्व: अर्थ, परिभाषा, प्रकार व व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले कारक

व्यक्तित्व शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में किया जाता है। व्यक्तित्व के विकास में शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक सभी प्रकार का विकास सम्मिलित है। अतः व्यक्तित्व के अर्थ, परिभाषा, प्रकार आदि को जानना आवश्यक है।

व्यक्तित्व का अर्थ | Meaning of Personality –

‘व्यक्तित्व’ शब्द अंग्रेजी भाषा के Personality (पर्सनाल्टी) शब्द का हिंदी रूपान्तर है।

यह शब्द लैटिन भाषा के Persona (परसोना) से लिया गया है जिसका अर्थ है- नकाब या नकली चेहरा

जिसे नाटक के समय उसके पात्र पहनते हैं।

एक नाटक का पात्र वेशभूषा धारण करके रंगमंच पर पहुँचकर दूसरे के व्यक्तित्व को धारण कर उसकी तरह बोलता, उठता, बैठता, ऐसी अन्य क्रियाएँ भी करता है।

प्राचीन समय में व्यक्तित्व से अभिप्राय शारीरिक संरचना, रंगरूप, वेशभूषा आदि से लगाया जाता था।

व्यक्तित्व की परिभाषा | Definition of Personality

यहाँ व्यक्तित्व के अर्थ को समझने के लिए विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई परिभाषाओं को जानते हैं –

गिलाफोर्ड के अनुसार- “व्यक्तित्व गुणों का समन्वित रूप हैं।”

वुडवर्थ के अनुसार- “व्यक्तित्व व्यक्ति के व्यवहार की एक समग्र विशेषता है।”

केम्फ के अनुसार – “व्यक्तित्व आदतों की उन व्यवस्थाओं का समन्वय है जो वातावरण के साथ व्यक्ति के विशिष्ट अभियोजना का प्रतिनिधित्व करती है।”

बोरिंग के अनुसार- “वातावरण के साथ सामान्य एवं स्थायी समायोजन ही व्यक्तित्व है।”

वैलेंटाइन के अनुसार – “व्यक्तित्व जन्मजात एवं अर्जित प्रवृत्तियों का योग है।”

व्यक्तित्व के प्रकार –

व्यक्तित्व एक मनोवैज्ञानिक अवधारणा है। अलग-अलग मनोवैज्ञानिकों ने इसके अलग-अलग गुण एवं विशेषताएँ बताई हैं।

अलग-अलग गुण व विशेषताओं के आधार पर व्यक्तित्व के मनोवैज्ञानिकों द्वारा दिए गए प्रकार निम्नानुसार हैं –

हिप्पोक्रेटीज के अनुसार –

  1. मंद – धीमे तथा निर्बल व्यक्तित्व।
  2. उदासीन – निराशावादी।
  3. क्रोधी – शीघ्र क्रोधित होने वाले।
  4. आशावादी – आशा के साथ शीघ्र कार्य करने वाले।

क्रेश्मर के अनुसार –

  1. पिकनिक प्रकार – छोटे और मोटे शरीर वाले होते हैं। ये मजबूत तथा सामाजिकता का गुण रखने वाले होते हैं।
  2. एस्थैनिक प्रकार – लम्बे और पतले शरीर वाले व दुर्बल होते है। ये दूसरों की निंदा करते हैं तथा अपनी निंदा के प्रति सजग रहते हैं।
  3. एथेलेटिक प्रकार – ये शक्तिशाली, चौड़े कंधे तथा हष्ट-पुष्ट सीने वाले होते हैं। समायोजन की क्षमता इनमें अधिक होती है।
  4. डिस्प्लास्टिक – शरीर की बनावट की दृष्टि से मिश्रित व्यक्तित्व वाले व्यक्ति होते हैं।

शेल्डन के अनुसार –

  1. गोल शरीर वाले – कोमल तथा गोल शरीर वाले होते हैं किन्तु देखने में मोटे लगते हैं। इनका पाचन संस्थान विकसित होता है। पेट बड़ा होता है।
  2. हष्ट-पुष्ट शरीर वाले – शक्तिवान तथा हष्ट-पुष्ट शरीर वाले।
  3. शक्तिहीन शरीर वाले – शक्तिहीन, लम्बे, पतले तथा अविकसित माँसपेशी वाले। अपने कार्यों को फुर्ती तथा शीघ्रता से संपन्न करते हैं।

युंग के अनुसार –

(1) अन्तर्मुखी व्यक्तित्व | Introvert Personality –

ऐसे व्यक्ति संकोची, लज्जाशील, एकांतप्रिय, मितभाषी, जल्दी घबराने वाले, आत्म्केंद्रिय, अध्ययनशील, आत्मचिंतन तथा असामाजिक प्रकृति के होते हैं।

रचनाकार व लेखक बनने के लिए यह उचित व्यक्तित्व है।

(2) बहिर्मुखी व्यक्तित्व | Extrovert Personality

ऐसे व्यक्ति व्यवहार कुशल, चिंतामुक्त, सामाजिक, आशावादी, साहसिक, आक्रामक तथा लोकप्रिय प्रकृति के होते हैं।

अच्छा शिक्षक व अच्छा नेता बनने के लिए यह उचित व्यक्तित्व है।

व्यक्तित्व: अर्थ, परिभाषा, प्रकार

व्यक्तित्व के विकास को प्रभावित करने वाले कारक –

  1. वंशानुक्रम
  2. पर्यावरणीय – (i) भौतिक पर्यावरणीय, (ii) सामाजिक पर्यावरणीय व (iii) सांस्कृतिक पर्यावरणीय
  3. मनोवैज्ञानिक

वंशानुक्रम का कारक –

प्रणाली विहीन ग्रंथियाँ | Ductless Glands –

गल-ग्रंथि – यह ग्रंथि ग्रीवा के मूल में श्वास-प्रणाली के सामने होती है। इस ग्रंथि के अधिक क्रियाशील होने से व्यक्ति बेचैन, चिंतित एवं उत्तेजित रहता है तथा आवश्यकता से कम क्रियाशील होने पर व्यक्ति में खिन्नता, रुकावट, मानसिक दुर्बलता आदि गुण उत्पन्न हो जाते हैं।

उप-गल ग्रंथि – यह ग्रंथि, गल ग्रंथि के समीप होती है। इस ग्रंथि के आवश्यकता से अधिक क्रियाशील होने पर व्यक्ति शांत एवं मंद स्वभाव का हो जाता है। परन्तु कम क्रियाशील होने पर व्यक्ति अधिक उत्तेजित हो जाता है।

पीयूष ग्रंथि – यह ग्रंथि मस्तिष्क में स्थित होती है। यह अन्य नलिका विहीन ग्रंथियों के कार्यों पर नियंत्रण रखती है। इस ग्रंथि के बाल्यावस्था में क्रियाशील हो जाने पर व्यक्ति लम्बा हो जाता है। उसका स्वभाव आक्रामक एवं झगड़ालू हो जाता है। यदि यह ग्रंथि कम क्रियाशील रहती है, तो उसका शारीरिक एवं यौन विकास उचित प्रकार से नहीं हो पाता है तथा यह डरपोक एवं कायर हो जाता है।

अधिवृक्क ग्रंथि – इस ग्रंथि के बाह्य भाग एवं आतंरिक दो भाग होते हैं। यदि इस ग्रंथि का बाह्य भाग आवश्यकता से कम क्रियाशील रहता है, तो व्यक्ति चिड़चिड़ा, उदास एवं कमजोर हो जाता है तथा परिस्थितियों से सामंजस्य स्थापित करने में असमर्थ रहता है, लेकिन यह भाग अधिक क्रियाशील रहता है तो व्यक्ति में उपर्युक्त दोष नहीं आ पाते हैं।

यौन ग्रंथियाँ – वुडवर्थ का कहना है, कि “पुरुष हार्मोंस पुरुषात्मकता की दिशा में विकास करते हैं, स्री-हार्मोंस स्रीत्व की दिशा में यौन ग्रंथियों के हार्मोन्स के आभाव में किसी भी लिंग का व्यक्ति प्रमुख स्री-पुरुष लक्षणों रहित तटस्थ नमूने के रूप में विकसित होता है।”

शारीरिक रचना तथा स्वास्थ्य –

प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में उसकी शारीरिक रचना एवं स्वास्थ्य का बहुत प्रभाव पड़ता है। यदि किसी व्यक्ति की शरीर रचना सुन्दर एवं आकर्षक एवं स्वास्थ्य भी अच्छा है, तो उसमें श्रेष्ठ भाव एवं आत्म-विश्वास के महान गुण उदय हो जाएंगे। इसके विपरीत जिन व्यक्तियों की शरीर की बनावट कुरूप एवं भद्दी होती है तथा स्वास्थ्य भी खराब होता है, तो उनमें हीनता की भावना ग्रंथि के विकास की संभावना रहती है।

स्नायु मण्डल (तंत्रिका प्रणाली ) –

प्रत्येक व्यक्ति को स्नायु मण्डल जन्म से प्राप्त होता है। जिस व्यक्ति का स्नायु मण्डल सुव्यवस्थित रूप से विकसित होगा। उस व्यक्ति का व्यक्तित्व उतना ही अच्छा होगा, क्योंकि स्नायु मण्डल के विकसित होने से समस्त मानसिक क्रियाएँ सुचारु रूप से चलती हैं। इसके विपरीत जिन व्यक्तियों का स्नायु मण्डल ठीक से विकसित नहीं हो पाता है, वे न तो ज्ञानार्जन और न वातावरण से अभियोजन ही ठीक से कर पाते हैं।

मूल-प्रवृत्तियाँ अथवा प्रेरक –

बालक जब जन्म लेता है, तो उसमें कुछ मूल-प्रवृत्तियाँ अथवा प्रेरक निहित रहते हैं, जो कि उसके व्यवहार को परिचालित करते हैं। परिणामस्वरूप समाज के बीच उसके व्यक्तित्व का क्रमशः विकास हो जाता है।

पर्यावरणीय कारक –

भौतिक पर्यावरणीय कारक –

व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में भौतिक पर्यावरण का भी बहुत प्रभाव पड़ता है। जिस जगह की प्रकृति संपन्न एवं जलवायु ठंडी होती है वहाँ के लोग सुन्दर, स्वस्थ, परिश्रमी एवं बुद्धिमान होते हैं, इसके विपरीत जहाँ पर आवश्यकता से अधिक गर्मी पड़ती है वहाँ के लोग अस्वस्थ, आलसी, काले रंग के होते है।

सामाजिक पर्यावरण का कारक –

माता-पिता का प्रभाव – बालक की आवश्यकताओं को उसके माता-पिता पूरा करने का प्रयास करते हैं। बालक के माता-पिता का जैसा स्वभाव, चरित्र, व्यवहार एवं पारस्परिक व्यवहार होता है उसी प्रकार बालक के व्यक्तित्व का विकास भी होता है।

पारिवारिक संबंध – माता-पिता के अतिरिक्त बालक पर अन्य पारिवारिक सदस्यों का प्रभाव पड़ता है।

पड़ोसी – बालक जब कुछ बड़ा हो जाता है, तो उसका पड़ोसियों से भी संपर्क हो जाता है। अगर पड़ोसी अच्छे होते हैं, तो बालक के व्यक्तित्व में अच्छे गुण विकसित हो जाते हैं।

इकलौता बालक – माता-पिता की एकमात्र संतान होने पर उसको माता-पिता का अनाप-शनाप लाड़-प्यार प्राप्त होता है। परिणामस्वरूप बालक परावलम्बी, हठी एवं असामाजिक हो जाता है।

बालक का अपने समूह में कार्य – बाल्यावस्था में बालक खेलने के लिए अनेक साथी बना लेता है। उनमें बालक स्वस्थ एवं साहसी प्रकृति का होता है, वह उस समूह के समस्त बालकों का नेतृत्व करता है एवं अन्य सब उसके अनुगामी बन जाते है, परिणामस्वरूप संघ नेतृत्व करने वाला बालक बड़ा हो जाता है, तो उसमें आत्मविश्वास, साहस, नेतृत्व, आत्म-निर्भरता आदि सामाजिक गुणों की अभिवृद्धि हो जाती है।

इनके आलावा बालक को विद्यालय, पुस्तकें एवं चलचित्र, मेला, मन्दिर एवं चर्च, जीवन लक्ष्य का प्रभाव, आर्थिक स्थिति आदि सामाजिक कारण भी बालक के व्यक्तित्व को प्रभावित करतेहै।

सांस्कृतिक पर्यावरण का प्रभाव –                   

संस्कृति व्यक्ति के व्यक्तित्व का स्वरूप निश्चित करती है – बालक जिस प्रकार की संस्कृति में पला होता है, उसका व्यक्तित्व उसी प्रकार का हो जाता है।

मनोवैज्ञानिक कारण –

बुद्धि, प्रेरक, तर्क, कल्पना, रूचियों, इच्छाएँ, स्वभाव, ज्ञान आदि मनोवैज्ञानिक कारक भी व्यक्ति के व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं।

मार्टिन प्रिंस ने लिखा है कि “व्यक्तित्व के समस्त जन्मजात संस्कारों, आवेगों, प्रवृत्तियों, झुकावों एवं मूल-प्रवृत्तियों और अनुभव के द्वारा अर्जित संस्कारों एवं प्रवृत्तियों का योग है।”

व्यक्तित्व: अर्थ, परिभाषा, व्यक्तित्व के प्रकार व व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले कारक

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