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राजस्थान के लोक देवता

राजस्थान के लोक देवता

राजस्थान के लोक देवता

राजस्थान के ग्रामीण भागों में अलौकिक चमत्कारों से युक्त व वीरता पूर्ण कार्य करने वाले महापुरुष आम जनता में लोक देवता के रूप में प्रसिद्ध हुए। आज भी लगभग प्रत्येक गाँव में इनके ‘थान, देवल, देवरे या चबूतरे लोक मानस के आस्था स्थल के रूप में विद्यमान हैं। गाँव में हारी-बीमारी में इनकी पूजा की जाती है व मनौतियाँ माँगी जाती हैं और मनत पूरी होने पर रात्रि जागरण करवाया जाता है या इनकी पड़ बंचवाई जाती है।

राज्य के प्रमुख लोक देवताओं का संक्षिप्त विवरण निम्नानुसार हैं-

पाबूजी-

इनका जन्म 13वीं शताब्दी (वि.सं. 1296) में फलौदी (जोधपुर) के निकट कोलूमण्ड में हुआ। पाबूजी पिता का नाम धाँधल जी राठौड़ एवं माता का नाम कमलादे था। ये राठौड़ो के मूल पुरुष राव सीहा के वंशज थे।

पाबूजी का विवाह अमरकोट के राजा सूरजमल सोढा की पुत्री सुप्यारदे से हो रहा था। लेकिन फेरों के बीच से ही उठकर अपने बहनोई जीन्दराव खिंची से देवल चारणी (जिसकी केसर कालमी घोड़ी पाबूजी माँग कर लाए थे) की गायें छुड़ाने चले गए और देचूँ गाँव में वि.सं. 1333 में युद्ध करते हुए वीर गति को प्राप्त हुए। अतः इन्हें गौ-रक्षक देवता के रूप में पूजा जाता है।

पाबूजी को प्लेग रक्षक एवं ऊँटों के देवता के में भी विशेष मान्यता है। ऊँटों की पालक राइका (रेबारी) जाति इन्हें अपना आराध्य देव मानती है। इन्हें लक्ष्मण का अवतार भी माना जाता है।

मेहर जाति के मुसलमान इन्हें पीर मानकर पूजा करते हैं।

पाबूजी का बोध चिह्न ‘भाला’ है। ये केसर कालमी घोड़ी एवं बांयी और झुकी पाग के लिए प्रसिद्ध हैं।

कोलूमण्ड में स्थित प्रसिद्ध मंदिर में प्रतिवर्ष चैत्र अमावस्या को मेला भरता है।

 पाबूजी के गाथा गीत ‘पाबूजी के पवाड़े’ माठा वाद्य यंत्र के साथ नायक एवं रेबारी जाति के लोगों द्वारा गाए जाते हैं। ‘पाबूजी की पड़’ नायक जाति के भोपे रावणहत्था वाद्य यंत्र के साथ बाँचते है।

थोरी जाति के लोग सारंगी वाद्य के साथ पाबूजी की यशगाथा गाते हैं, जिसे स्थानीय बोली में ‘पाबू धणी री बाचना’ कहते हैं।

आशिया मोड़जी द्वारा लिखित ‘पाबू प्रकाश’ इनके जीवन पर लिखी गई एक महत्त्वपूर्ण रचना है।

गोगाजी (गोगापीर)-

गोगाजी का जन्म 11वीं शताब्दी में चुरू जिले के ददरेवा नामक स्थान पर जेवरसिंह-बाछल देवी के घर हुआ। ददरेवा में गोगाजी के स्थान को शीर्षमेड़ी कहते हैं जहाँ प्रत्येक वर्ष मेला भरता है।

इनका विवाह केमलदे से होना था, लेकिन विवाह से पूर्व ही इनकी मंगेतर को साँप ने डस लिया। गोगाजी क्रोधित हो गए और मंत्रोचारण करने लगे जिससे सर्प मरने लगे। तब नागदेवता ने इन्हें ‘सर्पों के देवता’ होने का वरदान दिया।

गाँव में खेजड़ी के वृक्ष के नीचे गोगाजी के चबूतरे या थान (जिनमें पत्थर पर सर्प की आकृति बनी होती है) बने हुए हैं। गोगाजी ने गायों की रक्षा के लिए एवं मुस्लिम आक्रमणकारियों (महमूद गजनवी) से देश की रक्षार्थ अपने प्राण न्यौछावर कर दिए।

गोगाजी को जाहरपीर, गोगापीर या युग्गा के नाम से भी पूजा जाता है। राजस्थान का किसान वर्षा के बाद खेत में हल जोतने से पहले गोगाजी के नाम से राखी (गोगा राखड़ी) हल और हाली दोनों के बाँधता है। सर्प के काटने पर गोगाजी के नाम की ताँती बाँधी जाती है।

इनके जन्म स्थल ददरेवा को शीर्ष मेडी तथा समाधी स्थल गोगा मेडी (नोहर- हनुमानगढ़) को धुरमेडी कहा जाता है। गोगामेडी में हर वर्ष भाद्रपद कृष्णा नवमी (गोगा नवमी) को विशाल मेला भरता है।

सांचौर (जिला जालौर) किलौरियों की ढाणी में भी गोगाजी की ओल्डी नामक स्थान पर गोगाजी का मंदिर है।

गोगाजी की सवारी नीली घोड़ी थी।

रामदेव जी (रामसा पीर, रुणिचा रा धणी, बाबा रामदेव)-

इनका जन्म भाद्रपद शुक्ल द्वितीया वि.सं. 1462 (सन् 1405 ई.) को बाड़मेर जिले की शिव तहसील के उण्डू कासमेर गाँव में हुआ तथा भाद्रपद सुदी एकादशी वि.सं. 1515 (सन् 1458) को इन्होंने रुणिचा के राम सरोवर के किनारे जीवित समाधि ली थी।

रामदेवजी के पिता तंवर वंशीय ठाकुर अजमाल जी व माताजी का नाम मैणादे था। इनका विवाह अमरकोट (वर्तमान में पाकिस्तान में) के सोढा राजपूत दलै सिंह की पुत्री नेतलदे (निहालदे) से हुआ।

हिन्दू रामदेवजी को कृष्ण का अवतार मानकर व मुसलमान ‘रामसा पीर’ के रूप में इनकी पूरा करते है।

रामदेवजी को विष्णु का अवतार व इनके भाई वीरमदेव को बलराम का अवतार माना जाता है। इनके गुरु का नाम बलिनाथ था।

ऐसी मान्यता है कि रामदेवजी ने बचपन में ही सातलमेर (पोकरण, जोधपुर) क्षेत्र में तांत्रिक भैरव राक्षस का वध कर उसके आंतक को समाप्त किया व जनता को कष्ट से लोगों को मुक्ति दिलाई।

रुणिचा (रामदेवरा)

रुणिचा (रामदेवरा) में रामदेवजी का विशाल मंदिर है, जहाँ प्रत्येक वर्ष भाद्रपद शुक्ला द्वितीया(बाबे री बीज) से एकादशी तक विशाल मेला भरता है, जिसकी मुख्य विशेषता साम्प्रदायिक सद्भाव है। यहाँ हिन्दू-मुस्लिम एवं अन्य धर्मों के लोग बड़ी मात्रा में पूरी श्रद्धा के साथ आते हैं।

रामदेवजी की भक्ति में कामड जाति की महिलाएं तेरहताली नृत्य करती है। इनके मंदिरों को देवरा (देवल) कहा जाता है, जिन पर सफेद या 5 रंगों की ध्वजा फहराई जाती है, जिसे नेजा कहा जाता है। ध्वजा पर लाल रंग के कपड़े से रामदेवजी के पद चिह्न बने होते हैं।

रामदेवजी के प्रतीक चिह्न के रूप में खुले चबूतरे पर आला (ताख) बनाकर उसमें संगमरमर या पीले पत्थर के ऊपर इनके पगल्ये या पगलिए (पद चिह्न) बनाकर पूजे जाते हैं। इनके मेघवाल भक्तो को रिखिया कहा जाता हैं।

डालीबाई रामदेवजी की अनन्य भक्त थी। रामदेवजी ने इसे अपनी धर्म बहिन मनाया था।

रामदेवजी ने ‘चौबीस बाणीयाँ’ की रचना की।

तेजाजी-

नागवंशीय जाट तेजाजी का जन्म खड़नाल (नागौर) नामक स्थान पर वि.सं. 1130 (सन 1073 ई.) में हुआ था। इनके पिताजी ताहड़जी एवं माताजी रामकुँवरी थी। तेजाजी का विवाह पनेर निवासी रामचन्द्रजी या रायमल जी की पुत्री पेमलदे से हुआ।

तेजाजी को परम गौरक्षक एवं गायों का मुक्तिदाता माना जाता है। इन्हें ‘काला और बाला’ देवता भी कहा जाता है।

इन्होंने लाछा गुजरी की गायें मेरों से छुड़ाने हेतु वि.सं. 1160 भाद्रपद शुक्ला दशमी को सुरसरा (किशनगढ़, अजमेर) में युद्ध किया और अपने प्राणोत्सर्ग किए।

तेजाजी की घोड़ी लीलण (सिणगरी) थी। जाट जाति में इनकी अधिक मान्यता है।

राज्य के लगभग सभी भागों में लोकदेवता तेजाजी को ‘सर्पों के देवता’ के रूप में पूजा जाता है।

देवनारायणजी-

इनका जन्म वि.सं. 1300 (सन 1243 ई.) को आसीन्द (भीलवाड़ा) में बगडावत कुल के नागवंशीय गुर्जर परिवार में हुआ। इनका बचपन का नाम उदयसिंह था।

इनकी पत्नी धार नरेश जयसिंह देव की पुत्री पिपलदे थी।

देवनारायण जी का घोड़ा ‘लीलागर’ था। इन्होंने अपने पिता की हत्या का बदला भिनाय के शासक को मारकर लिया। अपने पराक्रम और सिद्धियों का प्रयोग अन्याय का प्रतिकार करने व आम जनता की भलाई के लिए किया।

देवजी का मूल ‘देवरा’ आसींद (भीलवाड़ा) के पास गोठां दडावट में है। इनके अन्य प्रमुख स्थान देवमाली (ब्यावर, अजमेर), देवधाम जोधपुरिया (निवाई, टोंक) व देव डूंगरी पहाड़ी (चित्तौड़गढ़) में हैं।

देवनारायण जी के देवरों में उनकी मूर्ति की जगह बड़ी ईंटों की पूजा की जाती है। इनके प्रमुख अनुयायी गुर्जर जाति के लोग हैं जो देवनारायण जी को ‘विष्णु का अवतार’ मानते हैं।

इनकी पड़ गुजर भोपों द्वारा जंतर वाद्य के साथ बाँची जाती है। यह राज्य की सबसे बड़ी पड़ है।

हड़बू जी-

इनका जन्म भूंडोल (नागौर) के राजा मेहाजी साँखला के घर हुआ। मारवाड़ के राव जोधा के समकालीन थे। ये रामदेवजी के मौसेरे भाई थे।

बेंगटी (फलौदी) में हड़बू जी का प्रमुख पूजा स्थल है एवं इनके पूजारी साँखला राजपूत होते हैं। यहाँ स्थापित मंदिर में ‘हड़बू जी की गाड़ी’ की पूजा की जाती है। हड़बू जी शकुनशास्रके भी अच्छे जानकार थे।

इनके जीवन पर लिखा ग्रंथ ‘साँखला हरभू का हाल’ है।

मेहाजी मांगलिया-

मेहाजी सभी मांगलियों के इष्ट देव के रूप में पूजे जाते हैं। इनका सारा जीवन धर्म की रक्षा व मर्यादाओं के पालन में बीता। जैसलमेर के शासक राव राणगदेव भाटी से युद्ध करते हुए ये वीरगति वीरगति को प्राप्त हुए।

बापणी में इनका मंदिर है। मांगलिया राजपूत भाद्रपद माह की कृष्ण जन्माष्टमी को मेहाजी की अष्टमी मनाते हैं। इनका प्रिय घोड़ा ‘किरड़ काबरा’ था।

मान्यता है कि इनकी पूजा करने वाले भोपा की वंश वृद्धि नहीं होती। वे गोद लेकर पीढ़ी को आगे चलाते हैं।

कल्ला जी-

इनका जन्म सामियाना गाँव में राव अचलाजी के घर आश्विन शुक्ला अष्टमी वि.सं. 1601 (सन 1544) को हुआ। भक्त शिरोमणि मीरा बाई इनकी चचेरी बहिन थी।

चित्तौड़गढ़ के तीसरे शाके (1567 ई. में) महाराणा उदयसिंह जी की ओर से अकबर के विरुद्ध युद्ध करते हुए या वीरगति को प्राप्त हुए। युद्ध में घायल वीर जयमल को इन्होंने अपने कंधे पर बिठाकर युद्ध किया था और दोनों ही युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे।

रणभूमि में चतुर्भुज के रूप में दिखाई गई वीरता के कारण इनकी ख्याति राजस्थान चार हाथों वाले लोक देवता के रूप में हुई। चित्तौड़गढ़ दुर्ग में भैरव पोल पर कल्लाजी राठौड़ की एक छतरी बनी हुई है।

सामलिया क्षेत्र (डूंगरपुर) में कल्लाजी की काले पत्थर की प्रतिमा स्थापित की गई है।

इनको योगाभ्यास व जड़ी-बूटियों व इनके उपयोग का अच्छा ज्ञान था।

मल्लीनाथ जी-

इनका जन्म सन् 1358 ई. में मारवाड़ के राव तीड़ा जी (सलखा जी) के घर हुआ। इनकी माता का नाम जाणीदे था।

तिलवाड़ा (बाड़मेर) में इनका प्रसिद्ध मंदिर है। जहाँ प्रत्येक वर्ष चैत्र कृष्णा एकादशी से चैत्र शुक्ला एकादशी तक 15 दिन का मेला भरता है।

इनकी राणी रूपादे का मंदिर भी तिलवाड़ा से कुछ दुरी पर मालाजाल गाँव में स्थित है।

लोकमान्यता है कि बाड़मेर के मालाणी क्षेत्र का नाम मल्लीनाथजी के नाम पर पड़ा।

तल्लीनाथ जी-

इनका वास्तविक नाम गांगदेव राठौड़ तथा इनके पिता का नाम बीरमदेव था। तल्लीनाथ जी राजस्थान में जालौर जिले के प्रसिद्ध लोक देवता हैं। इनके गुरु जालंधर नाथ थे। ये शेरगढ़ (जोधपुर) ठिकाने के शासक थे।

पाँचोटा गाँव (जालौर) के निकट पंचमुखी पहाड़ी के बीच घोड़े पर सवार बाबा तल्लीनाथ की मूर्ति स्थापित है।

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