भक्तिकाल
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मध्यकाल को दो भागों में विभाजित किया गया है- (1) पूर्व मध्यकाल या भक्तिकाल, (2) उत्तर मध्यकाल या रीतिकाल। शुक्लजी ने संवत् 1375 वि. से 1700 वि. तक के काल-खंड को हिंदी साहित्य का भक्तिकाल कहा है। डॉ. नगेन्द्र ने भक्तिकाल की समय सीमा 1350 ई. से 1650 ई. तक मानी है।
भक्ति आन्दोलन के उदय के कारण
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार-
- देश में मुसलमानों शासन स्थापित होने के कारण हिन्दू जनता हताश, निराश एवं पराजित हो गई और पराजित मनोवृत्ति में ईश्वर की भक्ति की ओर उन्मुख होना स्वाभाविक था।
- हिन्दू जनता ने भक्तिभावना के माध्यम से अपनी आध्यात्मिक श्रेष्ठता दिखाकर पराजित मनोवृत्ति का शमन किया।
- तत्कालीन धार्मिक परिस्थितियों ने भी भक्ति के प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान किया। नाथ, सिद्ध योगी अपनी रहस्यदर्शी शुष्क वाणी में जनता को उपदेश दे रहे थे। भक्ति, प्रेम आदि ह्रदय के प्राकृत भावों से उनका कोई सामंजस्य न था। भक्तिभावना से ओतप्रोत साहित्य ने इस अभाव की पूर्ति की।
- भक्ति का मूल स्रोत दक्षिण भारत में था। जहाँ 7वीं शती में आलवार भक्तों ने जो भक्तिभावना प्रारंभ की उसे उत्तर भारत में फैलने के लिए अनुकूल परिस्थितियां प्राप्त हुईं।
अन्य विद्वानों के मत-
- आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने शुक्लजी के मत से असहमति व्यक्त करते हुए कहा कि भक्तिभावना पराजित मनोवृत्ति की उपज नहीं है और न ही यह इस्लाम के बलात प्रचार के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई। उनका तर्क यह है कि हिन्दू सदा से आशावादी जाति रही है तथा किसी भी कवि के काव्य में निराशा का पुट नहीं है।
- डॉ. सत्येन्द्र के अनुसार-“भक्ति द्राविडी ऊपजी लाए रामानंद।”
- सर जार्ज ग्रियर्सन भक्ति आन्दोलन का उदय ईसाई धर्म के प्रभाव से मानते है। उनका मत है कि रामानुजाचार्य को भावावेश एवं प्रेमोल्लास के धर्म का सन्देश ईसाइयों से मिला।
- भारतीय धर्म साधना में भक्ति की एक सुस्पष्ट एवं सुदीर्घ परम्परा रही है।
- रामानुजाचार्य, रामानंद, निम्बार्काचार्य, बल्लभाचार्य जैसे विद्वानों ने अपने सिध्दांतों की स्थापना के द्वारा भक्तिभाव एवं अवतारवाद को दृढ़तर आयामों पर स्थापित किया, जिसे सूर, कबीर, मीरा, तुलसी ने काव्य रूप प्रदान किया।
आलवार भक्त
तमिल भाषा में आलवार भक्तों को वैष्णव भक्त कहा जाता है। तमिल प्रान्त में बौध्दों और जैनों का विरोध करने के लिए शैवों ( नयनार) और वैष्णवों (आलवार) ने मिलकर एक धार्मिक क्रांति की। आस्तिक भावों का प्रचार करके भक्ति भावना को जगाना इनका उद्देश्य था। आलवारों ने वेद, उपनिषद्, गीता से गृहीत भक्ति भावों को गीतों के माध्यम से जनता तक पहुँचाया।
आलवारों की संख्या 12 मानी जाती है- 1. सरोयोगी, 2. भूतयोगी, 3. भ्रान्तयोगी, 4. भक्तिसार, 5. शठकोप, 6. मधुर कवि, 7. कुलशेखर, 8. विष्णुचित, 9. गोदा, 10. भक्तान्घ्रिरेनु, 11. मुनिवाहन, 12. परकाल। इनके तमिल नाम भिन्न हैं। इनके लिखे 4000 पदों का संकलन ‘दिव्य प्रबन्धम’ नाम से किया गयाहै।
भक्तिकाल का वर्गीकरण
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का भक्तिकाल का वर्गीकरण दो धाराओं में किया है-
- निर्गुण धारा- (अ) संत काव्य, (ब) सूफी काव्य।
- सगुण धारा- (अ) राम काव्य, (ब) कृष्ण काव्य।
निर्गुण भक्ति के महत्वपूर्ण बिंदु-
- ईश्वर को निर्गुण, निराकार, घट-घटव्यापी, सूक्ष्म माना गया है।
- निर्गुनोपासना में भक्ति का आलंबन निराकार है, फलतः वह जनसाधारण के लिए ग्राह्य नहीं है।
- निर्गुण भक्ति का सम्बन्ध सामान्यतः ज्ञान मार्ग से जोड़ा जाता है।
- इस भक्ति में ‘गुरु’ को विशेष महत्त्व प्राप्त है।
- निर्गुण एवं निराकार ब्रह्म से भावात्मक सम्बन्ध जोड़कर रहस्यवाद को काव्य में स्थान निर्गुण परम्परा के भक्त कवियों ने दिया।
- ईश्वर के नाम की महत्ता पर निर्गुण भक्त कवियों ने भी बल दिया है।
- इस भक्ति में माधुर्य भाव का समावेश होने पर रहस्यवाद का उदय होता है।
- नाथ पंथियों से उन्होंने शून्यवाद, गुरु की प्रतिष्ठा, योग प्रक्रिया को ग्रहण किया है।
- संत कवियों ने वैदिक साहित्य, वैदिक परम्पराओं एवं बाह्याचारों की आलोचना बौध्द धर्म के प्रभाव से की है।
- संतों ने नाम जप पर विशेष बल दिया। नाम ही भक्ति और मुक्ति का दाता है। वे मानसिक भक्ति पर बल देते है, जो पूर्णतः आडम्बरविहीन होती है।
- निर्गुण भक्ति में प्रेम को भी महत्ता दी गई है।
- जाति, वर्ण दे अंतर को दूर करके मानव मात्र की एकता का प्रतिपादन करते हुए सामाजिक समरसता लाने का प्रयास किया।
- इस भक्ति में सहज साधना पर भी बल दिया गया, जिसने धार्मिक जीवन की दुरुहाताओ को कम किया।
- ह्रदय की पवित्रता, आचरण की पवित्रता, वासनाओं से मुक्ति गुरु कृपा से ही संभव है ऐसा निर्गुणोपासकों का विश्वास है।