हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की पद्धतियां

हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की पद्धतियां

हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की जो प्रमुख पद्धतियां प्रचलित रही हैं, उनका विवरण निम्नानुसार है-

1. वर्णानुक्रम पद्धति– 

इसे ‘वर्णमाला पद्धति’ भी कहा जाता है ׀ इस पद्धति में लेखकों, कवियों का परिचयात्मक विवरण उनके नामों के वर्णानुक्रम के अनुसार किया जाता है ׀ इसमें कबीर और केशव का विवेचन एक साथ इसलिए करना पड़ेगा, क्योंकि दोनों के नाम ‘क’ अक्षर से प्रारंभ होते हैं, भले ही वे कालक्रम की दृष्टि से भक्तिकाल एवं रीतिकाल से संबंधित कवि हो ׀ गार्सा-द-तासी एवं शिवसिंह सेंगर ने अपने इतिहास ग्रंथों में इसी पद्धति का प्रयोग किया है׀

इस पद्धति में लिखे हुए इतिहास ग्रन्थ अनुपयोगी व दोषपूर्ण माने जाते हैं ׀

ऐसे इतिहास ग्रंथ ‘साहित्यिक कोष’ तो कहे जा सकते है लेकिन इनको इतिहास ग्रन्थ कहना अनुचित है ׀

2. कालानुक्रमी पद्धति

इस पध्दति में कवियों व लेखकों का वर्णन ऐतिहासिक कालक्रमानुसार तिथिक्रम से होता है ׀

इसमें कृतिकार की जन्मतिथि को आधार मानकर ही इतिहास ग्रन्थ में उनका क्रम निर्धारण किया जाता है׀

जार्ज ग्रियर्सनमिश्रबंधुओं ने अपने इतिहास ग्रन्थ इसी पध्दति में लिखे हैं ׀

साहित्य का इतिहास लेखकों का जीवन परिचय एवं उनकी कृतियों के उल्लेख मात्र से पूरा नहीं होता अपितु उसमें युगीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में कवि की प्रवृतियों का विश्लेषण भी किया जाना चाहिए ׀

3. वैज्ञानिक पध्दति

इस पध्दति में इतिहास लेखक पूरी तरह से निरपेक्ष एवं तटस्थ रहकर तथ्य संकलन करता है और उन्हें क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करता है ׀ इन विद्वानों के तथ्य संग्रह उपयोगी तो हो सकते हैं परन्तु वह पूर्ण सफल तभी कहला सकते हैं, जब व्याख्या एवं विश्लेषण पर अपेक्षित ध्यान दें ׀

4. विधेयवादी पद्धति

साहित्य का इतिहास लिखने में यह पद्धति सबसे उपयोगी सिद्ध हुई है ׀

इस पद्धति के जन्मदाता वेन माने जाते हैं,

जिन्होंने इस पद्धति को तीन शब्दों में विभाजित किया है- जाति, वातावरण और क्षण विशेष ׀

साहित्य के इतिहास को समझने के लिए तत्कालीन जातीय परम्पराओं, तद्युगीन वातावरण एवं परिस्थितियों का वर्णन विश्लेषण अपेक्षित होता है ׀ हिंदी साहित्य का इतिहास लिखने की इस पद्धति का सूत्रपात आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने किया  उनके अनुसार, “प्रत्येक देश का साहित्य वहां की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है ……. आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य परंपरा के साथ उनका सामंजस्य बिठाना ही साहित्य का इतिहास कहलाता है ׀“

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