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राजस्थान की लोक कलाएँ

राजस्थान की लोक कलाएँ

राजस्थान की लोक कलाएँ

राजस्थान की प्रमुख लोक कलाएँ निम्नानुसार हैं-

पड़ चित्रण-

खादी या रेजी के कपड़े के ऊपर लोक देवताओं के जीवनगाथाएँ, धार्मिक एवं पौराणिक कथाएँ व ऐतिहासिक गाथाओं के चित्रित स्वरूप को ही पड़ कहते है। पड़ चित्रण का प्रमुख केंद्र शाहपुरा (भीलवाड़ा) है। पड़ें चित्रित करने कार्य यहाँ के जोशी गोत्र के छीपे करते हिं जिन्हें चितेरा कहा जाता है।

श्रीलाल जोशी पड़ चित्रण के प्रसिद्ध चितेरे हैं। इन्होंने पड़ शैली में नए प्रयोग किए व पारम्परिक राजस्थानी लोक गाथाओं की जगह पर महत्त्वपूर्ण पौराणिक आख्यानों जैसे श्रीमद्भागवत, गीत गोविन्द आदि का चित्रण किया है।

चातुर्मास में पड़ चित्रण का कार्य नहीं होता है क्योंकि देवता सो जाते हैं। दुबारा देवउठनी एकादशी से पड़ चित्रण का कार्य आरम्भ हो जाता है। इस शैली में लाल और हर रंग का विशेष रूप से प्रयोग होता है।

चित्रों में आकृति थोड़ी मोती और गोल, आँखे बड़ी-बड़ी तथा नाक अन्य शैलियों की अपेक्षा छोटी व मोटी होती है। कथा के प्रमुख पात्रों की वेषभूषा लाल रंग और खलनायक की वेशभूषा हरे रंग की होती है। देवनारायणजी, पाबूजी, हडबूजी, गोगाजी, रामदेवजी, तेजाजी, भैंसासुर तथा रामदला आदि की पड़ें विख्यात हैं।

सबसे लोकप्रिय पड़ पाबूजी की है और सबसे लम्बी पड़ देवनारायणजी की है। श्रीमती पार्वती जोशी देश की प्रथम पड़ चितेरी महिला हैं।

पड़ की प्रमुख बातें –

पड़पड़ वाचकवाद्य यंत्रप्रमुख बातें
देवनारायण जी को पड़गुजर भोपेजंतर(1) देवनारायण जी की पड़ चित्रांकन में सर्प का चित्र होता है तथा इनकी घोड़ी लीलागर को हरे रंग से चित्रित किया जाता है। (2) इसका वाचन दो या तीन भोपों द्वारा रात में किया जाता है। (3) यह सबसे लम्बी, सबसे पुरानी व सबसे अधिक चित्रांकन वाली पड़ है।
पाबूजी की  पड़नायक या आयडी भोपेरावणहत्था(1) इस पड़ में मुख के सामने भाले का चित्र होता है तथा पाबूजी की घोड़ी केसर कालमी को काले रंग से चित्रित किया जाता है। (2) इस पड़ को भोपे व भोपिन द्वारा रात में बाँचा जाता है।
रामदेवजी की पड़कामड़ जाति के भोपेरावणहत्था(1) रामदेवजी की जीवनगाथा का चित्रण करने वाली रामदेव जी की पड़ का चित्रांकन सर्वप्रथम चौथमल चितेरे ने किया।
पड़ वाचन –

इसका वाचन सामूहिक रूप से प्रायः देवी-देवताओं से संबंधित तिथि पर ही किसी खुली जगह या चौपाल में पूर्ण आस्था के साथ होता है। पड़ में चित्रित कथा को भोपे सुर ताल व लय के साथ गायन के रूप में पढ़ते हैं। भोपे के साथ भोपिन तथा उसके अन्य साथी भी होते हैं।

पड़ फटने या जीर्णशीर्ण होने पर पुष्कर तालाब में विसर्जित कर दी जाती है जिसे पड़ ठण्डी करना कहा जाता है। भैंसासुर की पड़ का वाचन नहीं करते है।

थापा –

हाथों को अंगुलियों के ठप्पे देकर दीवार पर बनाए गए चित्र थापे कहलाते हैं। राज्य में थापों के साथ स्वस्तिक अंकित करने की भी प्रथा है। ये थापे कुंकुम, काजल, मेंहदी, हल्दी, सिंदूर, गिरुं, गोबर आदि से बनाए जाते हैं।

पाने –

कागज पर बने देवी-देवताओं के बड़े चित्र पाने कहलाते हैं। विभिन्न त्योहारों के समय इन्हें दीवार पर चिपका कर पूजन किया जाता है। राजस्थान में रामदेवजी, गोगाजी, गणेशजी, लक्ष्मी, श्री नाथजी, कृष्ण, शिव-पार्वती आदि के पाने प्रचलित हैं।

मांडणा –

महिलाओं द्वारा मांगलिक अवसरों पर घर-आँगन को लिपपोत कर खड़िया, हिरमिच व गारे से अनामिका की सहायता से ज्यामितीय अलंकरण बनाए जाते हैं जिन्हें राजस्थान में मांडणे कहते हैं।

राज्य में प्रायः सभी त्योहारों, उत्सवों, पर्वों, धार्मिक अनुष्ठानों, जन्म-परण पर मांडने चित्रित किए जाते हैं।

कुछ विशेष मांडने इस प्रकार हैं-

पगल्या –

पद चिह्न (पगल्या) मांडना पूजा पाठ के अवसर पर आराध्य देव के घर में पदार्पण की अभिलाषा में उनके पद चिह्नों को प्रतीक रूप में तथा उनके स्वागत हेतु घर के आँगन व पूजा के स्थान पर चित्रित किया जाता है।

सातिये (स्वास्तिक) –

यह बच्चों के जन्म के अवसर पर बनाया जाता है।

ताम –

यह मांडना विवाह के अवसर पर लग्न मंडप के समय बनाया जाता है जिसको दाम्पत्य जीवन की सुख शान्ति के लिए अंकित करते हैं।

चौकड़ी मांडना –

यह होली के अवसर पर बनाया जाता है जिसके चार कोण होते हैं। इनका मानना है कि चारों दिशाओं से घर में रंग बिखरता रहे, खुशियाँ एकत्रित होती रहें।

काष्ठ कला –

बस्सी गाँव (चितौड़गढ़) इन कलात्मक काष्ठ रूपों के अंकन के लिए प्रसिद्ध रहा है। बस्सी में काष्ठ कला के जन्मदाता स्वर्गीय प्रभातजी सुथार माने जाते है,जिन्हें उस समय के तत्कालीन शासक रावत गोविन्ददास जी सन 1652 ई. में मालपुरा (टोंक) से यहाँ लाए थे।

कठपुतली –

राजस्थान इसकी जन्मस्थली है। कठपुतली को नचाने वाले नट या भाट जाति के लोग होते हैं। इनको बनाने का कार्य मुख्य रूप से उदयपुर, चितौड़गढ़ व जयपुर में होता है।

कठपुतली नाटक में इनका सूत्रधार ही नाटक का मूल स्तम्भ होता है, इसे स्थापक कहते है।

भारत में प्रचलित कठपुतलियाँ मुख्य रूप से चार प्रकार की होती है- (1) दस्ताना पुतली, (2) छड़ पुतली, (3) छाया पुतली, (4) धागा या सूत्र पुतली।

तोरण –

विवाह के समय दुल्हन के घर के मुख्य प्रवेश द्वार पर लटकायी जाने वाली लकड़ी की कलाकृति जिसके शीर्ष पर मयूर या सुग्गा बना होता है, जिसे दूल्हा दुल्हन के घर में प्रवेश करने से पूर्व हरी डाली, तलवार, खांडे या गोटा लगी डंडी से स्पर्श करता है।

यह शक्ति परीक्षण का प्रतिक भी होता है।

कावड़ –

यह विभिन्न दरवाजों में खुलने व बंद होने वाली मंदिरनुमा काष्ठ कलाकृति है जिस पर अनेक प्रकार के धार्मिक व पौराणिक कथाओं से संबंधित देवी-देवताओं के प्रमुख प्रसंग चित्रित होते है। 

पिछवाइयाँ –

मंदिरों में देवी-देवताओं की मूर्तियों की पृष्ठभूमि में सजावट हेतु बड़े पर्दों पर किया गया चित्रण पिछवाइयाँ कहलाती है। नाथद्वारा की पिछवाइयाँ मुख्य रूप से प्रसिद्ध हैं। पिछवाई चित्रण नाथद्वारा के जांगिड़ व गौड़ ब्राह्मण जाति के परिवार करते हैं।

गोरबंद –

यह ऊँट के गले में आभूषण है जो काँच, कौड़ियों, मोतियों व मणियों को गूंथकर बनाया जाता है। राजस्थान में इसके संबंध में गोरबंद गुंथ्यों लोकगीत प्रसिद्ध है।

इस प्रकार हम देखते है कि राजस्थान की विभिन्न प्रकार लोक कलाएँ देश व विदेश में प्रसिद्ध हैं।

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