You are currently viewing महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय
महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय

महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय

महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय

प्रारम्भिक जीवन –

महाराजा विष्णुसिंह का देहान्त होने पर उनके पुत्र सवाई जयसिंह द्वितीय आमेर के शासक बने। इनका वास्तविक नाम विजयसिंह तथा इनके भाई का नाम जयसिंह था, लेकिन इनके रणकौशल से प्रभावित होकर बादशाह औरंगजेब ने इनका नाम जयसिंह रख इन्हें ‘सवाई’ की उपाधि दी तथा छोटे भाई का नाम विजयसिंह रखा।

सवाई जयसिंह द्वितीय का जन्म 14 नवम्बर, 1688 ई. को जयपुर में हुआ। महाराजा विष्णुसिंह के निधन के बाद सन 1700 ई. में इनका राज्याभिषेक हुआ।

मुगल और महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय –

नवम्बर, 1701 ई. में ये औरंगजेब के पास दक्षिण में बुरहानपुर गए। वहाँ इन्हें मराठों के खेलना का दुर्ग के विरुद्ध अभियान में भेजा गया, जहाँ इन्होंने बहुत बहादुरी का प्रदर्शन किया।

औरंगजेब ने इनका मनसब बढ़ाकर 2 हजारी जात व सवार कर दिया। खेलना दुर्ग अभियान के बाद सवाई जयसिंह को औरंगजेब ने मालवा का नायब सूबेदार बनाया। जहाँ इन्होंने शासन प्रबंध बहुत अच्छे ढंग से व्यवस्थित किया।

1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु हो जाने पर उसके पुत्रों में उत्तराधिकार हेतु लड़ाई प्रारम्भ हो गई। औरंगजेब के पुत्रों के उत्तराधिकार युद्ध के समय ये शाहजादा मुहम्मद आजम के साथ थे। इनके भाई विजयसिंह ने मुअज्जम का साथ दिया।

जब आगरा के पास शाहजादा मुअज्जम से हुए जाजऊ के युद्ध में 2 जून, 1707 ई. को मुहम्मद आजम मारा गया तब ये वहीं मुअज्जम के समक्ष उपस्थित हो गए। मुहम्मद आजम बहादुरशाह के नाम से बादशाह बना।

बहादुरशाह महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय के शाहजादा आजम का पक्ष लेने से अप्रसन्न था। अतः बादशाह बनते ही वह इन्हें दण्ड देने हेतु सेना सहित आमेर पहुँचा तथा इनके भाई विजयसिंह को आमेर का शासक घोषित कर दिया एवं आमेर का नाम ‘मोमिनबाद’ रखा दिया।

अब सवाई जयसिंह की हैसियत केवल एक ‘मुगल मनसबदार’ की रह गई।

आमेर के दुर्ग का ‘फौजदार (दुर्ग रक्षक) सैयद हुसैन खां को बना किया गया।

इससे असंतुष्ट हो कर सवाई जयसिंह ने जोधपुर के शासक अजीतसिंह एवं उदयपुर के महाराणा अमरसिंह द्वितीय को अपनी ओर मिला लिया। दक्षिण में कामबख्श के विरुद्ध अभियान पर जा रहे थे तो मंडलेश्वर के बाद सवाई जयसिंह व अजीतसिंह शाही सेना से अलग हो उदयपुर की तरफ चले गए।

वहाँ मेवाड़ महाराणा अमरसिंह द्वितीय को इन्होंने अपने पक्ष में मिलकर संयुक्त शक्ति से मुगलों से लड़ने की योजना बनाई।

इसके लिए तीनों ने देबारी नामक स्थान पर ‘देबारी समझौता’ किया।

इसके बाद संयुक्त सेनाएँ जोधपुर पहुँची व वहाँ जुलाई, 1708 ई. में अजीतसिंह का शासन स्थापित किया।

यह संयुक्त सेना जब आमेर पर आक्रमण के रवाना होती तब इन्हें सूचना मिलती है कि सवाई जयसिंह के दीवान रामचंद्र एवं कछवाहा सरदारों ने मिलकर आमेर दुर्ग के फौजदार सैयद हुसैन खां व शासक विजयसिंह को पराजित कर आमेर दुर्ग पर सवाई जयसिंह का शासन स्थापित कर दिया।

महाराणा अमरसिंह द्वितीय ने अपनी पुत्री चन्द्रकुँवरी का विवाह जयसिंह के साथ किया और शर्त रखी कि उससे होने वाला पुत्र ही आमेर के शासन का उत्तराधिकारी होगा।

1 जून, 1710 ई. को सम्राट बहादुरशाह ने महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय को आमेर का राजा स्वीकार कर लिया तथा जयसिंह को काबुल का सूबेदार बनाया, परन्तु जयसिंह आमेर में ही रहे।

इसके बाद इन्हें चित्रकूट का सूबेदार बनाया लेकिन जयसिंह वहाँ भी नहीं गए। वे मालवा की सुबेदारी चाहते थे।

1712 ई. में बहादुरशाह की मृत्यु के बाद जहाँदरशाह शासक बने और उनके बाद फर्रुखशियर दोनों ने ही सवाई जयसिंह को प्रसन्न रखने की नीति का पालन किया।

मालवा की सुबेदारी –

फर्रुखशियर ने महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय को 7 हजारी मनसब जात व सवार का देकर उन्हें सन 1713 ई. में मालवा का सूबेदार बना दिया। जयसिंह ने वहाँ अफगानी विद्रोही नेता इनायत खां एवं दिलेर खां, स्थानीय सामन्तों को एवं उधर से उत्तर की ओर आने वाले मराठा सेनानायकों कान्होजी भौंसले व खांडेराव धावड़े आदि को परास्त किया।

जाटों के विद्रोहों का दमन –

जयसिंह 1715 ई. में जाट सरदार चूड़ामन के विद्रोह को दबाने पहुँचा।

उसने थून दुर्ग को घेरकर चूड़ामन को संधि हेतु विवश किया।

इससे खुश हो फर्रुखशियर ने जयसिंह को राजाधिराज का खिताब दिया।

1719 ई. में मुहम्मद शाह मुगल सम्राट बना।

उसने पुनः 1722 ई. में जयसिंह को जाटों के विद्रोह के दमन हेतु भेजा।

चूड़ामण की मृत्यु हो गई और जयसिंह ने उसके भतीजे बदनसिंह को अपनी ओर मिला लिया।

उसकी सहायता से जाट विद्रोह कुचला गया।

इससे खुश होकर बादशाह मुहम्मद शाह ने सवाई जयसिंह को राजराजेश्वर श्री राजाधिराज की उपाधि दी।

बदनसिंह को उस क्षेत्र का जाट राजा का पद दिया एवं ब्रज राजा की उपाधि प्रदान की।

महाराजा सवाई जयसिंह ने 18 नवम्बर, 1727 ई. को जयपुर (जयनगर) की नींव रखी।

नगर का नक्शा पंडित विद्याधर भट्टाचार्य नामक प्रसिद्ध वास्तुविद् की देखारेख में बनवाया गया।

हुरडा सम्मलेन –

जयसिंह ने मेवाड़ महाराणा जगतसिंह द्वितीय के सहयोग से 17 जुलाई, 1734 ई. को

मेवाड़ रियासत के हुरडा (भीलवाड़ा) नामक स्थान पर राजस्थान के राजपूत शासकों का सम्मलेन बुलाया।

जिसमें जयपुर से खुद जयसिंह, मेवाड़ महाराणा जगतसिंह द्वितीय, बीकानेर के महाराजा जोरावरसिंह,

कोटा के महाराव दुर्जन शाल, बूँदी के महाराव दलेलसिंह, नागौर के राजा बख्तसिंह,

किशनगढ़ के राजसिंह, करौली के गोपालसिंह आदि सम्मिलित हुए।

इस सम्मलेन की अध्यक्षता मेवाड़ महाराणा जगात द्वितीय ने की।

सम्मलेन के अन्तः में सभी ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसमें मराठों के विरुद्ध

सभी को मिलजुल का मुकाबला करने की रजामंदी थी।

लेकिन सभी की अपनी-अपनी अवसरवादिता के कारण यह संगठन (समझौता) सफल नहीं हो सका।

खगोल विज्ञान संबंधी योगदान –

1725 ई. में सवाई जयसिंह ने नक्षत्रों की शुद्ध सारणी जीज मुहम्मद शाही बनवाई तथा

जयसिंह कारिका नामक ज्योतिष ग्रन्थ की रचना की।

1734 ई. में जयसिंह ने जयपुर में एक बड़ी वेधशाला जंतर-मंतर का निर्माण करवाया,

जो देश की सबसे बड़ी वेधशाला है।

जयपुर वेधशाला में 14 यंत्र हैं जो समय मापन, सूर्य व चन्द्र ग्रहण की भविष्यवाणी करने,

तारों की गति एवं स्थिति  जानने, सौरमंडल के ग्रहों के दिक्पात आदि जानने में बहुत सहायक हैं।

इस वेधशाला के सम्राट यंत्र (विशाल सूर्य घड़ी), जयप्रकाश यंत्र एवं राम यंत्र प्रमुख यंत्र हैं।

जयसिंह ने ऐसी ही चार ओर वेधशालाएँ दिल्ली, उज्जैन, बनारस एवं मथुरा में बनवाई।

प्रातिक्रिया दे

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.