महाराणा प्रताप
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प्रारम्भिक जीवन –
महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 ई. को हुआ था। इनकी माता जयवंता बाई पाली के अखैराज सोनगरा चौहान की पुत्री थी। फरवरी, 1572 ई. में प्रताप के पिता महाराणा उदयसिंह की गोगुन्दा में मृत्यु हो गई।
उदयसिंह ने प्रताप के अधिकारों की अवहेलना कर अपने दूसरे पुत्र जगमाल को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था, क्योंकि जगमाल की माता भटियाणी पर उसकी विशेष कृपा थी।
इसलिए उदयसिंह की मृत्यु के बाद जगमाल को राजगद्दी पर भी बैठा दिया था, लेकिन यह स्थिति ज्यादा दिन तक नहीं रही।
जालौर के अखैराज सोनगरा व ग्वालियर के रामशाह तंवर ने इसका विरोध किया।
तब रावत कृष्णदास व रावत सांगा ने अन्य प्रमुख सामन्त-सरदारों की सहमति से प्रपात को गद्दी पर बिठाने का निर्णय कर, उदयसिंह की दाह क्रिया से लौटते ही 26 फरवरी, 1572 ई. को प्रताप को गोगुन्दा में मेवाड़ की राजगद्दी पर बिठाया।
इससे क्रुद्ध होकर जगमाल मेवाड़ छोड़कर चला गया और 17 अक्टूबर, 1583 ई. को हुए दताणी युद्ध में वह मारा गया।
मेवाड़ की दशा –
जब महाराणा प्रताप गद्दी पर बैठा उस समय मेवाड़ का आर्थिक एवं समाजिक जीवन ठीक नहीं था, व्यापार एवं उद्योग-धंधे समाप्त से हो गए थे। प्रशासनिक व्यवस्था भी अस्त-व्यस्त थी। मेवाड़ का उपजाऊ प्रदेश मुगलों के पास था।
मेवाड़ में इस समय ग्वालियर और सिरोही के शासक आश्रय पा रहे थे तथा मेवाड़ को छोड़, शेष राजस्थान के शासकों ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली और कुछ ने तो मुगलों से वैवाहिक संबंध भी स्थापित कर लिए थे।
इन परिस्थितियों में मुगलों से युद्ध अवश्यंभावी था।
संघर्ष की प्रारम्भिक तैयारियाँ –
प्रताप ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति से मेवाड़ में एकता स्थापित करने का प्रयास किया। उसने राज्य के दो प्रमुख आधार स्तंभों-सामन्तो व भीलों को एक सूत्र में संगठित किया।
महाराणा प्रताप ने संघर्ष की तैयारी हेतु गोगुन्दा के बजाय कुम्भलगढ़ को अपनी राजधानी बनाया। यही पर प्रताप ने जब अपने सिंहासनारूढ़ होने का उत्सव मनाया तब मारवाड़ का शासक चंद्रसेन भी उस समय कुम्भलगढ़ में उपस्थित था।
अकबर की भी मान्यता थी कि मेवाड़ की अस्त-व्यस्त स्थिति के उपरान्त भी प्रताप से युद्ध करना आसान नहीं, अतः अकबर ने वार्तालाप द्वारा प्रताप को अधीनता स्वीकार कराने का प्रयास किया।
महाराणा जानता था कि वार्तालाप से कोई हल नहीं निकलने वाला है, परन्तु भावी संघर्ष की तैयारी के लिए आवश्यक समय प्राप्त किया जा सकता हैं। अतः बातचीत के द्वार अपनी ओर से बंद नहीं किए।
शिष्ट मण्डल के प्रयास –
अगस्त 1572 ई. में अकबर ने जलालखां कोरजी को वार्ता के लिए मेवाड़ भेजा। प्रताप ने भी उसका स्वागत किया लेकिन उसे असफल ही लौटना पड़ा।
इक के बाद मानसिंह को मेवाड़ में भेजा। किन्तु उसके असफल लौटने पर अकबर ने 1573 ई. में राजा भगवंतदास को भेजा परन्तु वह भी असफल ही आया।
इसके कुछ समय पश्चात् अकबर ने एक और प्रयास किया और राजा टोडरमल को भेजा किन्तु उसे भी अपने उद्देश्य में सफलता नहीं मिली।
मानसिंह की नियुक्ति –
काबुल एवं अन्य स्थानों से छुटकारा पाकर अकबर 1576 ई. के प्रारम्भिक महीनों में मेवाड़-अभियान प्रारम्भ करने के उद्देश्य से अजमेर पहुँचा। यहाँ रहकर वह युद्ध क्षेत्र की नवीनतम गतिविधियों से सम्पर्क रख सकता था।
यहीं उसने 3 अप्रैल, 1576 ई. को मानसिंह के नेतृत्व में मुगल अभियान प्रारम्भ करने की घोषणा की। हेमू को छोड़कर यह पहला अवसर था जब मुस्लिम सेना का नेतृत्व किसी हिन्दू को दिया गया हो। मुस्लिम सामन्तों में इसका विरोध था।
स्वयं अकबर भी विरोध से परिचित था इसलिए मानसिंह की नियुक्ति की घोषणा आगरा से न कर अजमेर से की।
अकबर का मानना था कि मानसिंह के नेतृत्व में मुगल सेनाएँ होने के कारण प्रताप पहाड़ों की सहायता न लेकर खुले मैदान में लड़ेगा क्योंकि आमेर के शासक कुछ समय पूर्व तक मेवाड़ की अधीनता में थे।
मानसिंह अजमेर से रवाना होकर मांडलगढ़ पहुँचा जहाँ वह दो माह तक ठहरा रहा। इतने लम्बे समय तक रुकने के पीछे दो उद्देश्य थे – 1. अपने रसद माल को सुरक्षित रखना व 2. प्रताप के धैर्य को समाप्त करना।
मांडलगढ़ से रवाना होकर बनास नदी के किनारे मोलेला नामक स्थान पर मुगल सेना ने पड़ाव डाला। प्रताप को जब शाही सेना के मांडलगढ़ से प्रयाण के समाचार मिले तो वह भी ससैन्य गोगुन्दा से लोसिंग पहुँचा। सामरिक दृष्टि से प्रताप के लिए यह बड़ा ही उपयुक्त स्थान था।
सेना का जमाव –
प्रताप ने अपनी सेना का विभाजन करते हुए हरावल का नेतृत्व पठान हाकिमखां सूर को दिया तथा मुख्य सेना के दाहिने पार्श्व में भामाशाह तथा उसका भाई ताराचंद और ग्वालियर के भूतपूर्व राजा रामशाह को अपने पुत्रों सहित तैनात किया।
बाएं पार्श्व में मानसिंह, अखैराज सोनगरा मानसिंह झाला, बीदा झाला आदि के साथ नियुक्त था। पृष्ठ भाग में मील धनुर्धारी और केन्द्र में प्रताप था। चंदावल में अपने साथियों सहित पानरवा का राणा-पूंजा था।
उधर मानसिंह ने शाही सेना को जमाते हुए हरावल में जगन्नाथ कछवाहा और आसफखां को रखा तथा सैयद हाशिम बारहा की देखरेख में कोई 80 योद्धाओं को रखा गया था जिन्हें चूजे इरावल कहा जाता है।
मुख्य सेना के बाएँ भाग का नेतृत्व गाजीखां बदख्शी कर रहा था। दाहिने भाग का नेतृत्व सैयद अहमद खां बारहा कर रहा था और पृष्ठ भाग में चंदावल का नेतृत्व महतर खां के अधीन था। मानसिंह केन्द्र में था।
हल्दीघाटी का युद्ध –
8 जून, 1576 ई. को प्रताप की सेना के अग्रभाग ने, जिसका नेतृत्व हकीम खां कर रहा था,
पहाड़ों से निकल कर मुगल सेना पर आक्रमण किया।
इस आक्रमण से मुगल सेना का हरावल छिन्न-भिन्न हो गया।
यहाँ तक कि वाम पार्श्व में नियुक्त मुगल सैनिक भी डर कर भाग निकले।
इसी प्रकार मेवाड़ की सेना का दूसरा भाग जो प्रताप के नेतृत्व में था
उसने भी आक्रमण कर मुगल सेना में खलबली मचा दी।
महाराणा प्रताप और मानसिंह का भी आमना-सामना हो गया।
मानसिंह सौभाग्य से बच गया। प्रताप ने अद्धभुत वीरता का प्रदर्शन किया।
हाथियों का युद्ध भी रोमांचक था जैसे ही प्रथम आक्रमण के बाद मुगल पुनः व्यवस्थित हुए
तो प्रताप ने युद्ध को खुले मैदान से हटाकर पहाड़ी क्षेत्र में मोड़ना चाहा।
युद्ध का प्रारम्भ घाटी के मुहाने से हुआ था और यहाँ मिट्टी का रंग हल्दी जैसा होने से इसे हल्दीघाटी का युद्ध कहते हैं। प्रमुख युद्ध रक्तताल क्षेत्र में हुआ।
यह क्षेत्र खमनोर गाँव के पास स्थित होने से इसे खमनोर का युद्ध भी कहते हैं।
अबुल फजल ने इसे गोगुन्दा का युद्ध कहा है।
युद्ध किसके पक्ष में –
प्रताप, हकीमखां सूर, ग्वालियर के रामशाह के नेतृत्व में हुए मेवाड़ीआक्रमण की भयंकरता को स्वयं बदायूँनी स्वीकार करता है।
उसका मानना है कि इन आक्रमणों ने मुगलों की रक्षा पंक्ति छिन्न-भिन्न कर दी।
प्रताप सेना सहित पहाड़ों में छिपा था वहाँ मुगल सेना का जाने का साहस नहीं हुआ।
मानसिंह स्थिति को जानता था।
महाराणा प्रताप के पहाड़ी में नए चुने हुए स्थान पर लड़ने का अर्थ सम्पूर्ण मुगल सेना की जान खतरे में डाल देना होता।
अगर मानसिंह चतुराई न करता और प्रताप के जाल में आ जाता तो उसे करारी हार का सामना करना पड़ता।
परिस्ठितियों को देखें तो स्पष्ट है कि प्रताप हारा नहीं।
अगर ऐसा होता तो मुगल संघर्ष में प्रताप के अनुयायी ही उसका नेतृत्व स्वीकार नहीं करते।
बदायूँनी भी जिक्र करता है जब युद्ध के समाचार लेकर वह अकबर के पास जा रहा था
तब मार्ग में मुगल-विजय के बारे में बताता तो कोई भी उस पर विश्वास नहीं करता।
यहाँ तक की अकबर ने भी मानसिंह द्वारा भेजे गए संदेश पर विश्वास नहीं किया।
अतः महमूद खां को वास्तविक स्थिति का पता लगाने मेवाड़ भेजा।
परिणाम –
इस युद्ध का सर्वाधिक महत्व इस बात में है कि गत अर्द्ध शताब्दी से चले आ रहे
राजस्थान मुगल संघर्ष में पहली बार मुगल मेवाड़ को हरा न सके।
कतिपय इतिहासकारों ने इस युद्ध में प्रताप की हार बताई तथा युद्ध क्षेत्र से भाग जाने की बात कही।
अगर मुगल विजयी होते तो मानसिंह व आसफखां को पारितोषिक मिलता।
इसके विपरीत मुगल दरबार में उनकी उपस्थिति पर भी पाबंदी लगा दी।
यद्यपि यह आज्ञा कुछ समय पश्चात् वापिस ले ली गई
परन्तु इतना तो निश्चित है कि युद्ध का संचालन एवं परिणाम आशा के अनुकूल नहीं रहा।
कई इतिहासकार इसे अनिर्णायक युद्ध भी मानते हैं।
गोगुन्दा में मुगल सेना की दुर्दशा –
युद्ध स्थल से चलकर मुगल सेना ने गोगुन्दा में अपना पड़ाव डाला परन्तु प्रताप ने सुरक्षा एवं
रसद सामग्री की ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि मुगल सेना बंदियों की तरह पड़ी रही।
मेवाड़ी सेना के आक्रमण के भय से खाद्य-सामग्री एकत्रित करने के लिए
मुगल गोगुन्दा से बाहर आने का साहस नहीं कर सकते थे।
उनको अपने ही जानवरों के मांस तथा आम जो उस क्षेत्र में विशेष होते थे
उनको खा कर ही संतोष करना पड़ा।
अतः करीब तीन माह बाद ही सैनिकों को गोगुन्दा छोड़ना पड़ा।
अकबर के पुनः प्रयास –
मुगल सेना के गोगुन्दा से लौटते ही अकबर 1576 ई. के अंतिम महीनों में मेवाड़ में आया
परन्तु उसको भी खाली हाथ लौटना पड़ा।
उसके जाते ही प्रताप ने मेवाड़ के समतल प्रदेशों पर आक्रमण कारण शुरू कर दिया।
अतः अकबर ने शाहबाज खां को अक्टूबर 1577 ई. में ससैन्य भेजा।
यद्यपि वह कुम्भलगढ़ को लेने में सफल हुआ परन्तु प्रताप को पकड़ नहीं सका।
शाहबाज खां दुबारा दिसम्बर 1578 ई. में ततः नवम्बर 1579 ई. में तीसरी बार मेवाड़ में आया
परन्तु प्रताप की छापामार युद्ध नीति ने इस सेना को इतना परेशान कर दिया
कि सेना को असफल होकर लौटना पड़ा।
1580 ई. में अब्दुर्ररहीम खानखाना के नेतृत्व में मुगल सेना आइ परन्तु प्रताप के पुत्र अमरसिंह ने अचानक आक्रमण किया और खानखाना के हरम को भी अपने अधिकार में ले लिया परन्तु प्रताप के आदेश से मुगल स्रियों को सम्मान खानखाना के पास भेज दिया।
इस विजय ने प्रताप की कीर्ति को चरों ओर प्रकाशित किया तथा
प्रताप को आक्रामक रुख अपनाने की प्रेरणा भी मिली।
दिवेर युद्ध –
इस बीच कुम्भलगढ़ छोड़ने के बाद प्रताप ने अपनी सैनिक तैयारियों में कोई कमी नहीं आने दी।
उसने अपना केन्द्र गोगुन्दा से उत्तर-पशिचम में 16 किमी. दूर स्थित ढोलाण (ढोल) गाँव में स्थापित किया।
अकबर को अन्य क्षेत्र में व्यस्त पाकर प्रताप ने अपना सैनिक अभियान पश्चिमी मेवाड़ के पहाड़ी क्षेत्रों में स्थित
मुगल थानों और चौकियों पर आक्रमण कर उन्हें अपने अधिकार में लेना शुरू कर किया।
उसने अपना सर्वप्रथम लक्ष्य दिवेर पर अधिकार करने का रखा।
सन 1582 ई. में विजयादशमी के आसपास प्रताप ने दिवेर पर जबरदस्त आक्रमण किया।
इस अप्रत्याशित आक्रमण तथा युद्ध में मेवाड़ की शानदार सफलता के कारण शेष मुगल सेनाएँ भाग खड़ी हुई।
प्रताप ने उनका आमेर तक पीछा किया।
दिवेर-विजय की ख्याति चारों ओर फैल गई ओर मुगल सैनिक अपने शेष थाने स्वयं खाली करके भागने लग गए।
कर्नल टॉड ने इस युद्ध को प्रताप के गौरव का प्रतीक माना तथा दिवेर को मेराथन की संज्ञा दी है।
अकबर ने 1584 ई. में जगन्नाथ कछवाहा को मेवाड़ में भेजा परन्तु उसे विफल लौटना पड़ा।
इस अवधि में एक-एक करके मांडलगढ़ एवं चित्तौड़ दुर्ग को छोड़ समस्त मेवाड़ पर प्रताप ने अधिकार कर लिया।
चावण्ड में नई राजधानी का निर्माण किया व राज्य की प्रशासनिक व आर्थिक व्यवस्था को सुचारू बनाया।
साहित्य व कला के क्षेत्र में भी राज्य की आशातीत प्रगति हुई।
चावण्ड में ही प्रताप का 19जनवरी, 1597 ई. के दिन स्वर्गवास हुआ।