महाराणा सांगा
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प्रारम्भिक जीवन –
महाराणा संग्रामसिंह (सांगा) का जन्म 24 मार्च, 1481 ई. को हुआ था। रायमल के 13 पुत्र थे जिनमें पृथ्वीराज, जयमल, संग्रामसिंह विशेष उल्लेखनीय हैं।
सांगा के उत्तराधिकारी होने के बारे में एक ज्योतिषी की भविष्यवाणी के कारण सांगा और पृथ्वीराज में ऐसी गंभीर लड़ाई हुई कि दोनों लहुलुहान हो गए और सांगा की आँख भी जाती रही।
तब महाराणा सांगा भाग कर अजमेर के पास श्रीनगर में करमचंद पंवार के यहाँ रहा। करमचंद ने अपनी पुत्री का विवाह सांगा के साथ कर दिया।
उसी समय मेवाड़ में जयमल और पृथ्वीराज की मृत्यु हो गई थी। अतः सांगा को बुलाकर रायमल ने अपना उत्तराधिकारी घोषित किया जो उसकी मृत्यु के बाद 1509 ई. में मेवाड़ की गद्दी पर बैठा।
शुरूआती कठिनाइयाँ –
महाराणा सांगा पर बैठा तब मेवाड़ आतंरिक कलह और बाह्य आक्रमणों का शिकार बना हुआ था। अनेक सामन्त और शासक मेवाड़ के प्रभाव से मुक्त होने से ही संतुष्ट नहीं थे अपितु मेवाड़ का अस्तित्व मिटाने का उत्सुक थे।
मालवा व गुजरात के सुल्तान मेवाड़ के घोर शत्रु थे। दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी की निगाहें भी इसी ओर लगी हुई थी। सांगा ने इन सारी परिस्ठितियों का अदम्य साहस से सामना किया।
उसने करमचन्द पंवार का अमजेर, परबतसर, मांडल, फूलिया बनेड़ा के परगने जागीर में दिए और अपनी उत्तरी-पूर्वी सीमा को उसके माध्यम से सुदृढ़ किया।
मालवा संघर्ष के कारण एवं युद्ध –
मालवा और मेवाड़ की परम्परागत शत्रुता चली आ रही थी। 1401 ई. से 1530 ई. में अपनी स्वतंत्रता के अंत तक मालवा, मेवाड़ का शत्रु बना रहा।
दोनों प्रदेशों के शासक प्रसारवादी नीति में विश्वास रखते थे अतः वे एक दूसरे की निर्बलता का लाभ उठाना चाहते थे।
मालवा मुस्लिम व मेवाड़ हिन्दू धर्म के पोषक व रक्षक थे। मालवा के सुल्तान जब तब भी अवसर मिलता तो वे अपने राज्य के हिन्दुओं के साथ-साथ पड़ौसी सीमावर्ती हिन्दू राज्यों के हिन्दुओं पर शत्याचार करते, मंदिर-मूर्तियाँ तोड़ने से नहीं चूकते थे।
इधर महाराणा सांगा अपने को हिन्दू धर्म तथा संस्कृति का पोषक व रक्षक मानता था। अतः यह उसका नैतिक कर्त्तव्य था कि वह विरोधियों से लड़कर धर्म व संस्कृति की रक्षा करें।
तत्कालीन कारण मालवा का उत्तराधिकारी संघर्ष था। इसमें सांगा ने मालवा के प्रधान मंत्री एवं विरोधी मेदिनीराय को सहायता देने तथा गागरौन, चंदेरी आदि प्रदेशों को जागीर उसे देने से मालवा का सुल्तान महमूद खिलजी द्वितीय महाराणा से प्रतिशोध लेना चाहता था।
मालवा युद्ध (1519 ई.)
1519 ई. में महमूद ने पूर्ण शक्ति एवं साहस के साथ गागरौन पर आक्रमण कर दिया, जिसमें मुसलमानों की करारी हार हुई तथा काफी जन-धन की हानि हुई।
स्वयं सुल्तान बंदी कर चित्तौड़गढ़ लाया गया जहाँ उसका इलाज कराने के बाद काफी धन-जन की हानि हुई। सुल्तान को बंदी बना कर चित्तौड़गढ़ लाया गया जहाँ उसका इलाज कराने के बाद काफी धन देकर मांडू भेज दिया।
सुल्तान ने भी महाराणा की अधीनतास्वरूप रत्नजड़ित मुकुट तथा सोने की कमर पेटी भेंट की। राणा के इस व्यवहार की निजामुद्दीन अहमद ने बड़ी प्रशंसा की है।
श्यामलदास एवं हरबिलास शारदा के अनुसार सांगा ने सुल्तान को छोड़ दिया किन्तु उसके एक पुत्र को ओल (जामिन) के तौर पर चित्तौड़गढ़ में रख लिया। निःसंदेह यह महाराणा सांगा की दूरदर्शिता का परिचायक था।
गुजरात संघर्ष के कारण –
नागौर के मुस्लिम राज्य को कुम्भा ने जीत लिया था। अतः गुजरात का सुल्तान मुजफ्फर नागौर को पूर्णतः स्वतंत्र कराना चाहता था।
गुजरात के सुल्तान ने महमूद की सहायता कर मेदिनीराय को मालवा से बाहर निकाला था। अतः मेवाड़ के लिए यह आवश्यक था कि वह अपने शत्रु के मित्र को भी यथोचित दण्ड दे।
गुजरात व मेवाड़ अपनी विस्तारवादी नीति के कारण परस्पर परम्परागत शत्रु थे।
ईडर का मामला इनके बीच संघर्ष का तत्कालीन कारण बन गया था।
दोनों राज्यों की सीमा के मध्य होने से ईडर का सामरिक महत्त्व बढ़ गया था।
ईडर के राव भाण के दो पुत्र थे – सूर्यमल व भीम। भाण की मृत्यु के बाद सूर्यमल गद्दी पर बैठा और 18 महीने बाद उसकी भी मृत्यु हो गई। तब उसका पुत्र रायमल गद्दी पर बैठा लेकिन उसके काका भीम ने उसे गद्दी से हटा दिया और स्वयं राव बन गया।
रायमल सांगा की शरण में गया। उधर भीम की मृत्यु के बाद उसका पुत्र गद्दी पर बैठ गया।
तब सांगा ने रायमल को पुनः ईडर का राव बना दिया।
भारमल ने गुजरात की सहायता से पुनः ईडर का शासन प्राप्त कर लिया।
सांगा ने 1519 ई. में चित्तौड़गढ़ से प्रयाण कर एक ही दिन में ईडर को विजय कर लिया।
गुजराती सेना अहमदनगर की ओर भागी।
सांगा ने उसका पीछा करते हुए अहमदनगर दुर्ग को घेर लिया और दुर्ग के किंवाड तोड़ कर राजपूत दुर्ग में पुस गए और खूब लूटा। सांगा बडनगर, बीसलनगर तथा गुजरात के अन्य इलाकों को लुटता हुआ चित्तौड़गढ़ आ गया।
महाराणा सांगा ने गुजरात को लूटा, ईडर पर पुनः अपना प्रभुत्व स्थापित किया तथा गुजरात के उत्तराधिकारी को चित्तौड़गढ़ में शरण देकर अपना प्रभाव जमा लिया।
सांगा व इब्राहिम लोदी –
सांगा और इब्राहीम लोदी विस्तारवादी नीति में विश्वास करते थे।
अतः दोनों ही शासकों की महत्वकांक्षा ने उन्हें संघर्ष हेतु आमने-सामने लिया दिया।
राणा ने अपना राज्य विस्तार बयाना तक फैला दिया था जो दिल्ली और आगरा के सुल्तान के लिए एक चुनौती था। डॉ. अवध बिहारी पाण्डे के मतानुसार ‘मालवा का राष्य राणा सांगा और इब्राहीम लोदी के बीच कबाब में हड्डी की तरह था।
सांगा ने गद्दी पर बैठते ही अजमेर पर अधिकार कर, करमचंद पंवार के नाम अजमेर का पट्टा लिख दिया।
अजमेर दिल्ली सल्तनत के अधीन था।
अतः इब्राहीम लोदी चुप न रह सका और ससैन्य मेवाड़ की ओर प्रस्थान किया।
युद्ध (1517 ई.) –
दोनों ही तरफ की सेनाओं में हाड़ौती सीमा पर 1517 ई. में खातोली गाँव के पास युद्ध हुआ।
एक पहर तक युद्ध होने के बाद इब्राहीम लोदी सेना सहित भाग गया।
युद्ध में महाराणा के घुटने पर तीर लगने से वह लंगड़ा हो गया तथा
उसका बांया हाथ भी तलवार से कट गया था।
इब्राहिम लोदी ने इस हार का बदला लेने के लिए 1518 ई. में
मियां मक्खन के नेतृत्व में एक सेना भेजी, किन्तु इस बार भी उसे पराजित होना पड़ा।
सांगा व बाबर संघर्ष –
जब मध्य एशिया में बाबर अपना राज्य स्थापित करने में असफल रहा तो लोदी सरदारों के आमंत्रण पर तह भारत आया और यहाँ उसने अपना साम्राज्य स्थापित करना चाहा।
इस क्रम में उसने दिल्ली को जीत लिया।
बाबर के लिए दिल्ली पर अधिकार करना सरल था, किन्तु अपनी शक्ति को दृढ़ बनाए रखना कठिन था।
उत्तर-पश्चिम भारत की विजय और पानीपत में इब्राहीम लोदी की हार ने
बाबर को केन्द्रीय हिन्दुस्तान का स्वामी बना दिया था।
लेकिन अब भी उसके समक्ष दो प्रतिद्वंद्वी थे – राजपूत और अफगान।
युद्ध परिषद ने अफगान शक्ति का सामना करने को सुझाया
फिर भी इस बीच के घटनाक्रमों ने बाबर का ध्यान सांगा की ओर केन्द्रीय कर दिया।
युद्ध के कारण –
1. समझौते का उल्लंघन
बाबर ने अपनी आत्मकथा ‘बाबरनामा’ में लिखा है कि राणा सांगा का दूत काबुल में
उसके पास एक संधि प्रस्ताव लेकर उपस्थित हुआ और यह निश्चित हुआ
कि बाबर पंजाब की ओर से इब्राहीम पर आक्रमण करेगा और महाराणा सांगा आगरा की ओर से।
आधुनिक शोध से यह स्पष्ट हो गया हैं कि इस प्रकार का समझौता अवश्य हुआ था
किन्तु डॉ. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार पहल राणा की ओर से न की जाकर बाबर की ओर से की गई।
उल्लंघन सांगा द्वारा ही किया गया था।
अतः बाबर सांगा से युद्ध करना चाहता था।
2. धार्मिक कारण –
पानीपत युद्ध के परिणाम ज्ञात होते ही राणा ने अपना साम्राज्य विस्तार प्रारम्भ कर दिया।
रणथम्भौर के पास खंडार दुर्ग सहित करीब 200 स्थानों पर उसने अधिकार कर लिया
जो इससे पूर्व सल्तनत के अधीन थे।
अतः बाबर का चिंतित होना स्वाभाविक ही था।
3. राजपूत-अफगान गठबंधन –
राणा ने महमूद लोदी तथा हसनखां मेवाती को अपने पक्ष में मिला लिया।
यह अफगान- राजपूत मैत्री बाबर के लिए अत्यधिक खतरनाक सिद्ध हो सकती थी।
अनेक अफगान महाराणा सांगा के पास ससैन्य पहुँचने लगे।
इस मैत्री से बाबर चिंतित हुआ तथा संघर्ष अनिवार्य हो गया।
4. दोनों की महत्वकांक्षा –
बाबर एवं सांगा दोनों ही महत्वकांक्षी थे। अतः युद्ध अवश्यंभावी हो गया था। दोनों ओर युद्ध की तैयारियाँ होने लगी।
खानवा का युद्ध (1527 ई.) –
बाबर की गतिविधियों का अवलोकन कर राणा सांगा ससैन्य जनवरी 1527 ई. के अंत में चित्तौड़गढ़ से रवाना हुआ।
महाराणा सांगा रणथम्भौर होते हुए बयाना पहुँचे और 16 फरवरी को महंदी ख्वाजा से बयाना दुर्ग छीन लिया।
इसके बाद राजपूत सेना ने भुसावर में पड़ाव डालकर बाबर को काबुल एवं
दिल्ली से मिलने वाली सहायता को रोक दिया।
1 मार्च, 1527 ई. को राणा सांगा फतहपुर सीकरी से 16 कि.मी. उत्तर-पश्चिम में स्थित खानवा के मैदान में आ गया।
बाबर आगरा से 16 फरवरी को रवाना हुआ।
बयाना युद्ध से भागे हुए सैनिकों ने राजपूत शक्ति का बढ़ा चढ़ा कर वर्णन किया तथा
मुगल सेना को हतोत्साहित कर दिया।
बाबर चिंतित तो था लेकिन विचलित नहीं हुआ।
सेना के समक्ष उसने एक कूटनीतिक ओजस्वी भाषण दिया
जिससे सेना में नवीन उत्साह का संचार हुआ और सैनिक युद्ध करने को तैयार हो गए।
शनिवार 16 मार्च 1527 ई. को प्रातः 9:30 बजे भीषण युद्ध प्रारम्भ हुआ।
बाबर ने पानीपत के आधार पर ही सेना की व्यूह रचना की।
मुगल तोपखाने द्वारा भयंकर आग बरसाने पर भी वीर राजपूतों ने अपने निरंतर आक्रमणों से बाबर के होश उड़ गए।
इसी बीच महाराणा सांगा के तीर लग जाने से बेहोशी की हालत में उसे मैदान से हटा लिया गया।
राणा के बाद सलुम्बर के रावत रतनसिंह और झाला अज्जा ने युद्ध जारी रखा, लेकिन राजपूतों की हार हुई।
पराजय के कारण –
1. विश्वासघात – कर्नल टॉड, श्यामलदास ने महाराणा सांगा की हार का प्रमुख कारण सिलहदी तंवर का विश्वासघात माना है। जब युद्ध चल रहा था तब तंवर बाबर से मिल गया तथा सांगा की सैनिक कमजोरियों का ज्ञान कराया जिसका लाभ बाबर ने उठाया।
2. महाराणा सांगा का घायल होना – हरविलास शारदा का मानना है कि युद्ध के समय सांगा की आँख में तीर लग जाने से वह सैन्य संचालन नहीं कर पाया। युद्ध क्षेत्र से उसके हटने के समाचार मिलते ही सेना में भगदड़ मच गई और यह हार का कारण बना।
3.सांगा की सेना में एकता का आभाव – राणा की सेना में विविध वंशीय सैनिक थे जो अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार युद्ध में सम्मिलित हुए थे और उनका संबंध जितना राणा से नहीं था उतना अपने वंशीय नेता से था।
4. पैदल सेना की अधिकता – राजपूतों में पैदल सैनिक अधिक थे, जबकि मुगलों की सेना में अधिकांश घुड़सवार अधिक थे।
द्रुतगामीगति व पैंतरेबाजी की चाल में पैदल और घुड़सवारों का कोई मुकाबला नहीं था।
5. बाबर का तोपखाना – राजस्थानी योद्धाओं को पहली बार तोप का सामना करना पड़ा था।
बारूद के प्रयोग, तोपों और बंदूको की तुलना में तीर-कमान भाले तलवारें बर्छियाँ आदि निम्न कोटि के थे।
महाराणा सांगा की मृत्यु –
राणा सांगा को खानवा के युद्ध से घायल अवस्था में बसवा ले जाया गया।
पुनः होश आने पर उसने बाबर से युद्ध करना चाहा किन्तु उसके सरदारों ने,
जो युद्ध के पक्ष में बिल्कुल ही नहीं थे, राणा को जहर दे दिया।
जिससे 30 जनवरी, 1528 ई. को उनका देहांत हो गया।
उनका पार्थिव शरीर कालपी से मांडलगढ़ लाया गया और वही उनका दाहसंस्कार किया गया।
जहाँ आज भी उनका स्मारक छत्री के रूप में अवस्थित हैं।
मृत्यु के समय उनके एक आँख, एक हाथ और एक टांग ही थी और
उसके शरीर पर 80 घावों के निशान भी मौजूद थे फिर भी उसका यश, प्रभुत्व और जोश कम नहीं हुआ था।