न्यायपालिका judiciary

अध्याय 5 न्यायपालिका (judiciary)

कानून के शासन को लागू करने के लिए हमारे पास एक न्याय व्यवस्था है। इस व्यवस्था में बहुत सारी अदालतें हैं जहाँ नागरिक न्याय के लिए जा सकते हैं। सरकार का अंग होने के नाते न्यायपालिका (judiciary) भी भारतीय लोकतंत्र की व्यवस्था भारतीय लोकतंत्र की व्यवस्था बनाए रखने में अहम भूमिका निभाती है।

न्यायपालिका की क्या भूमिका है?

अदालतें बहुत सारे मुद्दों पर फ़ैसले सुनाती हैं। न्यायपालिका (judiciary) के कामों को मोटे तौर पर निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है –

विवादों का निपटारा –

न्यायिक व्यवस्था नागरिकों, नागरिक व सरकार, दो राज्य सरकारों और केंद्र व राज्य सरकारों के बीच पैदा होने वाले विवादों को हल करने की क्रियाविधि मुहैया कराती है।

न्यायिक समीक्षा –

संविधान की व्याख्या का अधिकार मुख्य रूप से न्यायपालिका (judiciary) के पास ही होता है। इस कारण यदि न्यायपालिका को ऐसा लगता है कि संसद द्वारा पारित किया गया कोई कानून संविधान के आधारभूत ढाँचे का उल्लंघन करता है तो वह उस कानून को रद्द कर सकती है। इसे न्यायिक समीक्षा कहा जाता है।

कानून की रक्षा और मौलिक अधिकारों का क्रियान्वयन –

अगर देश के किसी भी नागरिक को ऐसा लगता है कि उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है तो वह सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय में जा सकता है।

यहाँ एक घटना की उल्लेख किया है जिसमें खेतिहर हाकिम शेख चलती हुई ट्रेन से गिरकर घायल हो गए। जब कई अस्पताओं ने उनका इलाज करने से मना कर दिया जिसकी वजह से उनकी हालत काफ़ी खराब हो गई थी।

इसी मामले की सुनवाई के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला किया था कि संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रत्येक नागरिक को जीवन का मौलिक अधिकार दिया गया है और इसमें स्वास्थ्य का अधिकार भी शामिल है।

परिणामस्वरूप न्यायालय ने पश्चिम बंगाल सरकार को आदेश दिया कि वह अस्पतालों की लापरवाही के कारण हाकिम शेख को जो नुकसान हुआ है उसका मुआवजा दे। सरकार को यह आदेश भी दिया गया कि वह प्राथमिक स्वास्थ्य व्यवस्था की रूपरेखा तैयार करे और उसमें आपात स्थितियों में रोगियों के इलाज पर विशेष ध्यान दिया जाए।

भारत का सर्वोच्च न्यायालय –

इसकी स्थापना 26 जनवरी, 1950 को की गई थी। उसी दिन हमारा देश गणतंत्र बना था। अपने पूर्ववर्ती फेडरल कोर्ट ऑफ़ इंडिया (1937-49) की भाँती यह न्यायालय भी पहले संसद भवन के भीतर चेंबर ऑफ प्रिंसेज में हुआ करता था। इसे 1958 में इस इमारत में स्थानांतरित किया गया।

स्वतंत्र न्यायपालिका (judiciary) क्या होती है?

कल्पना कीजिए कि एक ताकतवर नेता ने आपके परिवार की जमीन पर कब्ज़ा कर लिया है। आप एक ऐसी व्यवस्था में रहते हैं जहाँ नेता किसी न्यायाधीश को उसके पद से हटा सकते हैं या उसका तबादला कर सकते हैं। जब आप इस मामले को अदालत में ले जाते हैं तो न्यायाधीश भी नेता की हिमायत करता दिखाई देता है।

नेताओं का न्यायाधीश पर जो नियंत्रण रहता है उसकी वजह से न्यायाधीश स्वतंत्र रूप से फैसले नहीं ले पाते। स्वतंत्रता का यह अभाव न्यायाधीश को इस बात के लिए मजबूर कर देगा कि वह हमेशा नेता के ही पक्ष में फैसला सुनाए। हम ऐसे बहुत सारे किस्से जानते हैं जहाँ अमीर और ताकतवर लोगों ने न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित करने का प्रयास किया है।

लेकिन भारतीय संविधान इस तरह की दखलअंदाजी को स्वीकार नहीं करता। इसीलिए हमारे संविधान में न्यायपालिका को पूरी तरह स्वतंत्र रखा गया है।

इस स्वतंत्रता का एक पहलू है ‘शक्तियों का बँटवारा’। यह हमारे संविधान का एक बुनियादी पहलू है। इस प्रकार विधायिका और कार्यपालिका जैसी सरकार की अन्य शाखाएँ न्यायपालिका (judiciary) के काम में दखल नहीं दे सकतीं। अदालतें सरकार के अधीन नहीं हैं। न ही वे सरकार की ओर से काम करती हैं।

एक बार नियुक्त हो जाने के बाद किसी न्यायाधीश को हटाना बहुत मुश्किल होता है। इसके आधार पर वे विधायिका और कार्यपालिका द्वारा शक्तियों के दुरुपयोग को रोक सकती हैं।

भारत में अदालतों की संरचना कैसी है?

हमारे देश में तीन अलग-अलग स्तर पर अदालतें होती हैं।

  1. जिन अदालतों से लोगों का सबसे ज्यादा ताल्लुक होता है, उन्हें अधीनस्थ न्यायालय या जिला अदालत कहा जाता है। ये अदालतें आमतौर पर जिले या तहसील के स्तर पर या किसी शहर में होती हैं। प्रत्येक राज्य जिलों में बँटा होता है और हर जिले में एक जिला न्यायाधीश होता है।
  2. अधीनस्थ अदालतों को कई अलग-अलग नामों से संबोधित किया जाता है। उन्हें ट्रायल कोर्ट या जिला न्यायालय, अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, प्रधान न्यायिक मजिस्ट्रेट, मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट, सिविल जज न्यायालय आदि नामों से बुलाया जाता है।
  3. प्रत्येक राज्य का एक उच्च न्यायालय होता है। यह अपने राज्य की सबसे ऊँची अदालत होती है।

दूसरी तरफ चार पूर्वोत्तर राज्यों असम, नागालैंड, मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश के लिए गुवाहाटी में एक ही उच्च न्यायालय रखा गया है। 1 जनवरी, 2019 से आंध्र प्रदेश (अमरावती) और तेलंगाना (हैदराबाद) में अलग-अलग उच्च न्यायालय हैं। कुछ उच्च न्यायालयों की राज्य के अन्य हिस्सों में खण्डपीठ (बेंच) भी हैं।

उच्च न्यायालय से ऊपर सर्वोच्च न्यायालय होता है। यह देश की सबसे बड़ी अदालत होती है जो नई दिल्ली में स्थित है। देश के मुख्य न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय के मुखिया होते हैं।

हमारे देश में एकीकृत न्यायिक व्यवस्था है। इसका मतलब यह है कि ऊपरी अदालतों के फैसले नीचे की सारी अदालतों को मानने होते हैं। अगर किसी व्यक्ति को ऐसा लगता है कि निचली अदालत द्वारा दिया गया फैसला सही नहीं है, तो वह उससे ऊपर की अदालत में अपील कर सकता है।

विधि व्यवस्था की विभिन्न शाखाएँ कौन सी हैं?

दहेज़ हत्या का यह मामला ‘समाज के विरुद्ध अपराध’ की श्रेणी में आता है। यह आपराधिक/फौजदारी कानून का उल्लंघन है। फौजदारी कानून के अलावा हमारी विधि व्यवस्था दीवानी कानून या सिविल लॉ से संबंधित मामलों को भी देखती है। फौजदारी और दीवानी कानून के बीच फर्क इस प्रकार है –

क्र.फौजदारी कानूनदीवानी कानून
1.ये ऐसे व्यवहार या क्रियाओं से संबंधित हैं जिन्हें कानून में अपराध माना गया है। जैसे- चोरी, दहेज़ के लिए औरत को तंग करना, हत्या आदि।इसका संबंध व्यक्ति विशेष के अधिकारों के उल्लंघन या अवहेलना से होता है। उदाहरण के लिए जमीन की बिक्री, चीजों की खरीदारी, किराया, तलाक आदि से संबंधित विवाद।
2.इसमे सबसे पहले आमतौर पर प्रथम सूचना रिपोर्ट/प्राथमिकी (एफ.आई.आर.) दर्ज कराई जाती है। इसके बाद पुलिस अपराध की जाँच करती है और अदालत में केस फ़ाइल करती है।प्रभावित पक्ष की ओर से न्यायालय में एक याचिका दायर की जाती है। अगर मामला किराये से संबंधित है तो मकान मालिक या किरायेदार मुकदमा दायर कर सकता है।
3.अगर व्यक्ति दोषी पाया जाता है तो उसे जेल भेजा जा सकता है और उस पर जुर्माना भी किया जा सकता है।अदालत राहत की व्यवस्था करती है। उदाहरण के लिए अगर मकान मालिक और किरायेदार के बीच विवाद है तो अदालत यह आदेश दे सकती है कि किरायेदार मकान को खाली करे और बकाया किराया चुकाए।

क्या हर व्यक्ति अदालत की शरण में जा सकता है?

भारत के सभी नागरिक देश के न्यायालयों की शरण में जा सकते हैं। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक नागरिक को अदालत के माध्यम से न्याय माँगने का अधिकार है। वास्तव में गरीबों के लिए अदालत में जाना काफी मुश्किल साबित होता है।

क़ानूनी प्रक्रिया में न केवल काफी पैसा और कागजी कार्यवाही की जरुरत पड़ती है, बल्कि उसमें समय भी बहुत लगता है।

1980 के दशक में सर्वोच्च न्यायालय ने जनहित याचिका (पी.आई.एल.) की व्यवस्था विकसित की थी। न्यायालय ने किसी भी व्यक्ति या संस्था को ऐसे लोगों की ओर से जनहित याचिका दायर करने का अधिकार दिया है जिनके अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है।

यह याचिका उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में दायर की जा सकती है। अब सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के नाम भेजे गए पत्र को भी जनहित याचिका माना जा सकता है। शुरूआती सालों में जनहित याचिका के माध्यम से बहुत सारे मुद्दों पर लोगों को न्याय दिलाया गया था।

सरकारी या सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में बच्चों को दोपहर का जो भोजन (मिड-डे-मील) दिया जाता है उसकी व्यवस्था भी एक जनहित याचिका के फलस्वरूप ही हुई थी।

न्याय तक आम लोगों की पहुँच को प्रभावित करने वाला एक मुद्दा यह है कि मुकदमे की सुनवाई में अदालतें कई साल लगा देती हैं।

भारत में न्यायाधीशों की संख्या

क्र.न्यायालय का नाम स्वीकृत पद कार्यरतरिक्त
1.उच्चतम न्यायालय (1 नवम्बर, 2019 की स्थिति)34340
2.उच्च न्यायालय (1 नवम्बर, 2019 की स्थिति)1079655424
3.जिला और अधीनस्थ न्यायालय22644175095135

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