You are currently viewing द्वितीय विश्व युद्ध
द्वितीय विश्व युद्ध

द्वितीय विश्व युद्ध

द्वितीय विश्व युद्ध

प्रथम विश्व युद्ध के उपरान्त 1919 ई. में पेरिस में एक शांति सम्मलेन आयोजित हुआ था, जिसमें भविष्य में विश्व शांति की आशा की गई थी किन्तु यह आशा निराधार साबित हुई और प्रथम विश्व युद्ध के 20 वर्षो के पश्चात् ही पुनः विश्व द्वितीय युद्ध की धधकती हुई ज्वालाओं में प्रज्जवलित हो उठा।

पेरिस शांति सम्मलेन में मित्र राष्ट्रों ने विश्व शांति की स्थापना तथा आपसी समस्याओं के समाधान के लिए राष्ट्रसंघ का गठन किया था और सभी सदस्य देशों ने विश्व-शांति की स्थापना करने तथा सभी राज्यों की राष्ट्रीय एकता एवं क्षेत्रीय अखण्डता की सुरक्षा करने वचन दिया था।

शीघ्र ही जो घटना-चक्र प्रारम्भ हुआ उसकी परिणति द्वितीय विश्व युद्ध के रूप में हुई।

युद्ध के कारण –

वर्साय की अपमानजनक संधि –

प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी की भीषण पराजय के उपरान्त उसे वर्साय की अपमानजनक संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए विवश होना पड़ा था।

अमेरिकी राष्ट्रपति विल्सन के 14 सूत्रों के बावजूद भी इंग्लैंड के लायड जार्ज, फ्रांस के क्लिमेंशू तथा

उनके सहयोगी राजनेताओं ने राष्ट्रीय स्वार्थों, प्रतिशोध एवं

भावी सुरक्षा को दृष्टिगत रखते हुए एक ऐसी व्यवस्था के निर्माण का प्रयास किया।

जर्मनी को प्रथम विश्व युद्ध के लिए विवश किया गया। जर्मनी के सभी उपनिवेशों को उससे छीन लिया गया।

उसका पूर्ण निःशस्त्रीकरण कर सैनिक दृष्टि से उसे पंगु बना दिया गया।

वर्साय संधि की शर्तों के निर्माण में मित्र राष्ट्रों ने दूरदर्शितापूर्ण नीति का पालन नहीं किया और

इसमें केवल जर्मनी के प्रति प्रतिशोध की एकाकी भावना को महत्त्व दिया।

तानाशाहों का उदय –

प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् अनेक देशों में तानाशाहों का उदय हुआ था।

जर्मनी में हिटलर का उदय हुआ और सन 1933 ई. में

उसने तत्कालीन गणतंत्रीय सरकार को हटाकर शासन पर अधिकार कर लिया।

1935 ई. में एडोल्फ हिटलर ने वर्साय के सैनिक उपबंधों का परित्याग कर पुनः जर्मनी का शस्त्रीकरण प्रारम्भ किया।

1 सितम्बर, 1939 ई. में पोलैण्ड पर उसके आक्रमण ने द्वितीय विश्व युद्ध को प्रारम्भ कर दिया।

इटली में बेनिती मुसोलिनी ने इटली की जनता के असंतोष का लाभ उठाकर अपनी

अधिनायकवादी सत्ता स्थापित की। मित्र राष्ट्रों के पक्षपातपूर्ण व्यवहार से इटली में भयंकर असंतोष व्याप्त हो गया था।

स्पेन एवं जापान में भी यह काल तानाशाही के उत्कर्ष का काल था।

हिटलर एवं मुसोलिनी का सहयोग लेकर जनरल फ्रेंको ने स्पेन में गणतंत्रवादियों को युद्ध में पराजित किया।

राष्ट्रसंघ की असफलता –

राष्ट्रसंघ की स्थापना के पीछे प्रमुख उद्देश्य यूरोपीय शक्तियों के पारस्परिक विवादों का समाधान प्रस्तुत करना तथा विश्व में शांति बनाए रखना था, परन्तु राष्ट्रसंघ इन उद्देश्यों की पूर्ति में पूर्णतः विफल रहा।

प्रारम्भ में पराजित राष्ट्रों को राष्ट्रसंघ की सदस्यता नहीं दी गई थी,

जिस कारण अनेक देश इसे विजयी राष्ट्रों का मात्र एक गुट मानते थे।

मित्र राष्ट्रों ने राष्ट्रसंघ को अपने स्वार्थों के लिए प्रयुक्त किया।

राष्ट्रसंघ के पास अपने निर्णयों को लागू कराने के लिए प्रभावकारी मशीनरी का अभाव था,

इसीलिए यह संस्था बड़ी शक्तियों के विवादों को सुलझाने तथा शांति स्थापित करने में सफल नहीं हो सकी।

निःशस्त्रीकरण –

वर्साय की संधि के माध्यम से मित्रराष्ट्रों ने बलात जर्मनी का पूर्ण निःशस्त्रीकरण कर सैनिक दृष्टि से उसे पूर्णतः पंगु बना दिया था।

मित्र राष्ट्रों ने जर्मनी को यह विश्वास दिलाया था कि भविष्य में शीघ्र ही व्यापक निःशस्त्रीकरण भी किया जाएगा।

इसके लिए व्यापक कार्य योजना बनाने का दायित्व राष्ट्रसंघ को सौंपा गया।

1932 ई. का जिनेवा में आयोजित निःशस्त्रीकरण सम्मलेन फ्रांस एवं जर्मनी के

पारस्परिक मतभेद के कारण असफल हो गया और जर्मनी ने सम्मलेन से पृथक होने की घोषणा कर दी।

1933 ई. के पश्चात् यूरोप के प्रायः सभी छोटे-बड़े देश अपनी सैनिक शक्ति का विकास करने में जुट गए।

जापान ने तेजी से अपनी सैनिक शक्ति बढाई और एशिया की एक प्रमुख शक्ति बन बैठा।

मित्रराष्ट्रों की नीति में अंतर्विरोध एवं तुष्टीकरण की नीति –

मित्रराष्ट्र अपने निजी स्वार्थों के कारण एवं पारस्परिक एकता के अभाव में हिटलर एवं मुसोलिनी के विरुद्ध कोई प्रभावात्मक कदम नहीं उठा पाए। मित्रराष्ट्रों ने इन तानाशाहों की शक्ति का प्रतिरोध करने के बजाय उनके प्रति तुष्टीकरण की नीति को अपनाया।

फ्रांस जहाँ जर्मनी के प्रति कठोर नीति का पक्षपाती था, वहीँ ब्रिटेन उसके प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाना चाहता था।

ब्रिटेन अपने व्यापारिक हितों, फ्रांस को नियंत्रित करने तथा रूसी साम्यवाद के यूरोप में प्रसार को रोकने के लिए जर्मनी को शक्तिशाली बनाना चाहता था।

इसीलिए ब्रिटेन ने हिटलर के प्रति तुष्टीकरण की नीति अपनायी, जिस कारण अन्य मित्रराष्ट्र उससे असंतुष्ट एवं नाराज हो गए।

उग्र राष्ट्रवाद –

प्रथम विश्व युद्ध की भांति ही उग्र राष्ट्रवाद, द्वितीय विश्व युद्ध का एक महत्वपूर्ण कारक था।

जर्मनी, इटली एवं जापान में राष्ट्रवाद की भावना अत्यन्त उग्र थी।

यहाँ के तानाशाही शासकों द्वारा उग्र राष्ट्रवाद की भावना को बढ़ावा दिया गया और राष्ट्र की शक्ति एवं गौरव को पुनर्स्थापित करने के लिए राष्ट्र के आर्थिक साधनों पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर आक्रामक नीतियों का पालन किया गया।

एडोल्फ हिटलर ने जर्मन जाति को सर्वश्रेष्ठ प्रजाति घोषित किया और इस भावना को उग्र राष्ट्रीयता का आधार बना कर वर्साय की संधि के अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए जर्मन राष्ट्र को उत्तेजित किया।

युद्ध का तात्कालीन कारण –

पेरिस शांति सम्मलेन में पोलैण्ड को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित किया गया था और समुद्र तट तक उसकी पहुँच बनाने के लिए जर्मनी की सीमा से होकर एक गलियारा भी उसे दिया गया था जो डेंजिग के बंदरगाह तक पहुँचता था।

सम्मलेन का यह निर्णय जर्मनी के लिए अपमानजनक एवं उसकी राष्ट्रीय प्रतिष्ठा के सर्वथा प्रतिकूल था।

1 सितम्बर, 1939 ई. को हिटलर ने पोलैण्ड पर अचानक आक्रमण कर दिया।

3 सितम्बर, 1939 ई. को ब्रिटेन एवं फ्रांस ने जर्मनी को युद्ध बंद करने की चेतावनी दी किन्तु हिटलर ने इस चेतावनी की अनसुनी कर दी, जिससे ब्रिटेन एवं फ्रांस ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। शीघ्र ही यह युद्ध विश्व युद्ध में परिवर्तित हो गया।

प्रमुख घटनाएँ –

द्वितीय विश्व युद्ध 6 वर्ष की लम्बी अवधि तक निरंतर चलता रहा। यह विश्व की सर्वाधिक दुर्भाग्यपूर्ण घटना मानी जा सकती है। इस विश्व युद्ध की घटनाओं को संक्षेप में सुविधा की दृष्टि से चार भागों में विभाजित किया जा सकता है।

प्रथम अवस्था के अंतर्गत 1 सितम्बर, 1939 ई. से 21 जून, 1941 ई. तक की घटनाओं को सम्मिलित किया जा सकता है, जिसमें जर्मनी ने पोलैण्ड, डेनमार्क, नीदरलैंड, बेल्जियम, लक्जेम्बर्ग, फ्रांस, ब्रिटेन तथा यूनान पर भीषण आक्रमण किए।

विश्व युद्ध की द्वितीय अवस्था के अन्तर्गत 22 जून, 1941 ई. से 6 दिसम्बर, 1941 ई. तक की घटनाओं को सम्मिलित किया जा सकता है, जबकि धुरी राष्ट्रों ने अफ्रीका पर आक्रमण किया और जर्मनी द्वारा रूस पर आक्रमण किया गया।

इसी अवधि में धुरी राष्ट्रों ने उत्तरी अफ्रीका पर भी विजय अभियान चलाया और उसे हस्तगत कर लिया।

विश्व युद्ध की तृतीय अवस्था 7 दिसम्बर, 1941 ई. से 7 नवम्बर, 1942 ई. तक मानी जा सकती है।

इस दौरान जापान ने पर्ल हार्बर पर आक्रमण किया और

मित्र राष्ट्रों ने नीदरलैंड, ईस्ट इंडिज तथा काकेशस पर अधिकार स्थापित किया।

7 दिसम्बर, 1941 ई. को जापान द्वारा प्रशांत महासागर स्थित अमेरिकी द्वीप समूह पर्ल हार्बर पर भीषण आक्रमण कर अमेरिकी नौ सैनिक बेड़े को अत्यधिक क्षति पहुँचाई गई, जिसकी प्रतिक्रियास्वरूप 8 दिसम्बर, 1941 ई, को अमेरिका और इंग्लैंड ने जापान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।

जर्मनी एवं इटली ने भी अमेरिका के विरुद्ध युद्ध घोषित कर दिया और

इस प्रकार युद्ध वास्तविक रूप में विश्व युद्ध बन गया।

चतुर्थ अवस्था

8 नवम्बर, 1942 से 14 अगस्त, 1945 ई. तक की मानी जा सकती है। इस अवधि में 8 नवम्बर, 1942 ई. से 6 मई, 1945 ई. तक का काल अमेरिका द्वारा फ्रैंच उत्तरी अफ्रीका पर आक्रमण एवं जर्मनी का आत्मसमर्पण का काल है तथा 7 मई, 1945 ई. से 14 अगस्त, 1945 ई. की अवधि वह हैं

जिसमें जापान द्वारा आत्मसमर्पण किया गया और विश्व युद्ध का अंत हुआ।

परमाणु बम –

6 अगस्त, 1945 को जापान के हिरोशिमा शहर पर अमेरिका द्वारा पहला अणु बम गिराया गया और

9 अगस्त, 1945 को नागासाकी शाहर पर दूसरा अणुबम गिराया गया।

अणुबमों के प्रलयंकारी विनाश से भयभीत होकर जापान ने 10 अगस्त, 1945 ई. को आत्मसमर्पण का प्रस्ताव दिया और 14 अगस्त, 1945 ई. को द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति की घोषणा की गई।

प्रातिक्रिया दे

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.