आंग्ल-मराठा युद्ध
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आंग्ल-मराठा युद्ध के कारण –
मराठा शासक माधवराव प्रथम की 18 नवम्बर, 1772 ई. में मृत्यु होने के बाद इसके पुत्रहीन होने के कारण उत्तराधिकार का संघर्ष शुरू हो गया।
माधवराव प्रथम का चाचा रघुनाथराव पेशवा बनना चाहता था लेकिन माधवराव प्रथम का भाई नारायणराव पेशवा बन गया।
इससे मराठों में आपसी फुट, गुटबंदी और गुप्त षड्यंत्रों की स्थिति उत्पन्न हो गई।
रघुनाथराव ने 13 अगस्त, 1733 को अपनी पत्नी आनंदीबाई के सहयोग से नारायणराव की हत्या करवाकर स्वयं पेशवा बन गया।
नाना फड़नवीस के नेतृत्त्व में अनेक मराठा-सरदारों ने रघुनाथ राव का विरोध किया, लेकिन फिर भी उसे तत्काल पेशवा-पद से हटाया न जा सका क्योंकि नारायणराव भी पुत्रहीन था।
17 अप्रैल, 1774 को नारायणराव के पुत्र होने के बाद नाना फड़नवीस तथा मराठा-दरबार के अन्य कई नेताओं ने मिलकर रघुनाथराव को पदच्युत कर दिया तथा नारायणराव के अल्पवयस्क पुत्र को माधवराव द्वितीय के नाम से पेशवा घोषित कर दिया।
माधव राव के संरक्षण एवं शासन-संचालन के लिए बारह योग्य मराठा व्यक्तियों के सहयोग से ‘बारह भाइयों की परिषद्’ नामक एक सलाहकार परिषद् की स्थापना की गई।
बाद में इस परिषद् की सारी शक्तियां नाना फड़नवीस के हाथों में आ गई।
इस परिषद् ने जब रघुनाथराव को कैद करने के आदेश दिए तो वह पूना भाग गया।
वहां से दिसम्बर 1774 में ठाणे पर आक्रमण कर अधिकार ज़माने का असफल प्रयास किया।
मराठा-संघ से अलग हो जाने के बाद रघुनाथराव ने अंग्रेजों की तरफ हाथ बढाया।
सूरत की संधि-
रघुनाथराव ने बंबई कौंसिल के अध्यक्ष हॉर्नबाई से बातचीत की और 6मार्च, 1775 को अंग्रेजों के साथ सुरत की संधि की।
इस संधि की प्रमुख शर्तें निम्न हैं-
- रघुनाथराव को पेशवा बनने में अंग्रेज सहायता देंगे।
- इसके फलस्वरूप रघुनाथराव कम्पनी की बम्बई शाखा को थाणे, बेसीन, सालसिट व जम्बूसर (गुजरात) के प्रदेश देगा।
- रघुनाथराव की सुरक्षा के लिए 2500 सैनिकों की एक अंग्रेज सेना पूना में रखी जाएगी। इस सेना का डेढ़ लाख रुपये का मासिक खर्च रघुनाथराव कम्पनी को अदा करेगा।
- अपनी सुरक्षा करने के बदले वह कम्पनी को 6 लाख रुपये देगा।
- यदि रघुनाथराव पूना दरबार से कोई शांति समझौता करेगा, तो उसमें अंग्रेजों को अवश्य सम्मिलित करेगा।
यही वह संधि है, जिसने तत्कालीन राजनीति को आंग्ल-मराठा संघर्ष की ओर धकेल दिया।
प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (1775-1782 ई.)
सूरत की संधि पहली शर्त के अनुसार बंबई सरकार ने रघुनाथराव की सहायता हेतु एक सेना पूना की ओर भेजी।
18मई, 1775 ई. को अरास नामक स्थान पर अंग्रेजों और मराठों के बीच संघर्ष हुआ जिसमें मराठे परास्त हुए।
बंगाल सरकार ने सूरत की संधि तथा परिणामस्वरूप अरास में हुए आंग्ल-मराठा युद्ध को रैग्युलेटिंग एक्ट के विरुद्ध मानते हुए उसे तुरंत रोकने के आदेश प्रसारित किए।
इसका विरोध करने के कुछ और भी कारण थे-
- सूरत की संधि पर रघुनाथराव के हस्ताक्षर थे, पेशवा के नहीं।
- सूरत की संधि से कम्पनी को व्यर्थ में ही मराठों से संघर्ष करना पड़ा।
- मराठा-शक्ति ने अंग्रेजों को किसी भी प्रकार का आपात नहीं पहुँचाया था, अतः बंगाल सरकार ने कम्पनी के इस हस्तेक्षप को अनौचित्यपूर्ण माना।
समझौता वार्ता –
आदेश के बाद भी जब युद्ध बंद नहीं हुआ, तब बंगाल सरकार ने कर्नल अप्टन को मराठों से समझौता वार्ता करने भेजा।
अप्टन के पूना पहुँचते ही युद्ध तो बंद हो गया परन्तु अप्टन और मराठों के बीच अनेक मतभेद उत्पन्न हो गए, क्योंकि अप्टन ने रघुनाथराव को मराठों को सौंपने, सालसिट बेसीन पर से अपने अधिकार वापस लेने की मराठों की मांग को स्वीकार नहीं किया।
वार्ता असफल होने के बाद दोनों शक्तियों के मध्य यह युद्ध फिर से प्रारम्भ हो गया।
इसी दौरान एक राजद्रोही मराठा सरदार सदाशिव मराठों के विरुद्ध लड़ने के लिए आ गया।
मराठे दो मोर्चों पर युद्ध न कर सके और अंग्रेजों से संधि करनी पड़ी।
पुरन्दर की संधि –
1 मार्च, 1776 ई. को अंग्रेजों व मराठों के बीच पुरन्दर की संधि हुई। इस संधि के अंतर्गत-
- रघुनाथराव के कार्य को करने के लिए अंग्रेजों ने जो रकम खर्च की थी, उसकी क्षतिपूर्ति के रुप में मराठों ने अंग्रेजों को 12 लाख रुपये देना निश्चित किया।
- सूरत की संधि रद्द कर दी गई तथा मराठों ने रघुनाथराव को 3 लाख 15 हजार रुपये की वार्षिक पेंशन केना स्वीकार किया।
- यह निर्णय लिया गया कि राघोबा अब कोई सेना नहीं रखेगा तथा गुजरात के कोगरगाँव में जाकर रहेगा।
- युद्ध में अंग्रेजों ने जिन मराठा क्षेत्रों पर अधिकार किया है, वे उन्हीं के पास रहेंगे।
इस संधि-पत्र पर मराठों की ओर से सखाराम बापू ने तथा अंग्रेजों की ओर से कर्नल अप्टन ने हस्ताक्षर किए।
बम्बई सरकार तथा वारेन हेस्टिंग्स इस संधि की स्वीकृति के पक्ष में नहीं थे।
बडगाँव का समझौता –
यह समझौता 19 जनवरी, 1779 को मराठों व अंग्रेजों के मध्य हुआ। इसमें यह तय किया गया कि –
- अंग्रेज रघुनाथराव को मराठों को सुपुर्द कर देंगे।
- अब तक जीते गए सभी मराठा प्रदेश अंग्रेजों द्वारा उन्हें लौटा दिए जायेंगे।
- इस संधि की शर्तों के पूरा करने तक दो अंग्रेज अधिकारी मराठों के बंधक के रुप में रहेंगे।
सालबई की संधि –
17 मई, 1782 को अंग्रेजों व मराठों के बीच यह संधि हुई। इस संधि में –
- अंग्रेजों ने मराठों को यह आश्वासन दिया कि वे रघुनाथराव का साथ छोड़ देंगे तथा मराठों ने रघुनाथराव को 25000 रुपये मासिक पेंशन के रुप में देने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
- सालसिट तथा भड़ौच के अतिरिक्त ब्रिटिश सेना द्वारा विजित अन्य सभी मराठा क्षेत्रों पर से अंग्रेज अपना अधिकार त्यागने को तैयार हो गए।
- अंग्रेजों ने न केवल माधवराव द्वितीय को पेशवा के रुप में स्वीकार कर लिया अपितु फतेहसिंह गायकवाड़ को भी बड़ौदा का शासक मान लिया।
- इस संधि को स्वीकार करने के छः महीने के अन्दर ही हैदरअली जीते हुए सभी ब्रिटिश प्रदेश लौटा देगा। इसके अतिरिक्त वह अंग्रेजों, पेशवा व कर्नाटक के नवाब के विरुद्ध युद्ध में भी शामिल नहीं होगा।
जून, 1782 में इस संधि के मसविदे पर हस्ताक्षर का हेस्टिंग्स ने इसकी पुष्टि कर दी परन्तु संधि की चौथी शर्त को लेकर महादजी और नाना फड़नवीस में विवाद उत्पन्न हो गया।
द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1803 ई.)
इस युद्ध के प्रारम्भ होने के निम्नलिखित कारण थे –
- मराठों को जीत कर वेलेजली साम्राज्य का विस्तार की अपनी लालसा पूरी करना चाहता था।
- वेलेजली यह अच्छी तरह से जानता था कि मराठा संघ को छिन्न-भिन्न करने पर ही अंग्रेज भारत के भाग्य निर्माता बन जाएँगे, अतः युद्ध अनिवार्य था।
- मराठों की आपसी फूट और उनके पारस्परिक लड़ाई-झगड़ों ने वेलेजली को उन पर आक्रमण करने के लिए प्रोत्साहित किया।
- बेसीन की संधि ने द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध को अनिवार्य बना दिया। यह संधि राष्ट्रीय सम्मान के अनुकूल नहीं थी।
- वेलेजली के पास युद्ध का एक बड़ा बहाना था- फ्रांसीसियों के आक्रमण का भय।
द्वितीय मराठा युद्ध की घटनाएँ –
6 अगस्त, 1803 को जनरल आर्थर वेलेजली ने कम्पनी की ओर से मराठों के साथ युद्ध की विधिवत् घोषणा कर दी।
अंग्रेजों ने मराठों पर सब तरफ से भीषण प्रहार किए।
आर्थर वेलेजली ने अगस्त में ही मराठों को पीछे खदेड़ कर अहमदनगर पर अधिकार कर लिया।
29 नवम्बर, 1803 को आरगाँव के युद्ध में भोंसले को पूर्णतः पराजित किया।
15 दिसम्बर को गाविलगढ़ का किला भी भोंसले के हाथ से निकल गया।
उत्तरी भारत में भी मराठों को पराजय हासिल हुई।
जनरल लेक ने कानपुर से कूच कर सबसे पहले अलीगढ़ पर आक्रमण किया और उसे जीत लिया।
इस युद्ध में फ्रांसीसी सेनापति पेरोन हताश हो गया और उसने सिंधिया की नौकरी छोड़ दी।
लेक ने 18 अक्टूबर को आगरे पर भी अधिकार कर लिया और नवंबर में लसवाडी नामक स्थान पर सिंधिया की शेष सेना का भी खात्मा कर दिया।
गुजरात में भडौंच पर अधिकार कर लिया गया।
सिंधिया के लगभग सारे राज्य पर कम्पनी का अधिकार हो गया।
कटक व गाविलगढ़ का पतन होते ही भोंसले ने 17 दिसम्बर को अपनी पराजय के दो दिन बाद ही अंग्रेजों से देवगांव की संधि कर ली और युद्ध से अलग हो गया।
सिंधिया भी सभी मोर्चों पर हार गया था, अतः उसने भी 30 दिसम्बर, 1803 को सुर्जी अर्जुन पांव में अंग्रेजों से संधि कर ली।
देवगांव की संधि (17 दिसम्बर, 1803 ) –
इस संधि की शर्ते निम्नानुसार थी –
- समस्त पूर्वी समुद्र तट सहित कटक का प्रान्त अंग्रेजों को दे दिया जाएगा।
- वर्धा नदी तक पश्चिम बरार का प्रान्त निजाम को दे दिया जाएगा।
- भोंसले बेसीन की संधि का और उन सभी संधियों का सम्मान करेगा जो अंग्रेजों ने उसके अधीनस्थ शासकों के साथ की हैं।
- भोंसले मराठा-संघ को भंग कर देगा तथा अपनी सेना में अंग्रेजों के किसी शत्रु को नियुक्त नहीं करेगा।
- उसने अपनी राजधानी नागपुर में एक ब्रिटिश रेजिडेंट रखना भी स्वीकार कर लिया।
सुर्जी अर्जुन गाँव की संधि (30 दिसम्बर, 1803) –
सिंधिया व अंग्रेजों के मध्य हुई इस संधि की प्रमुख शर्ते इस प्रकार थी –
- सिंधिया अंग्रेजों को गंगा-यमुना का दोआब क्षेत्र, यमुना पर स्थित दिल्ली क्षेत्र, बुंदेलखंड का कुछ भाग, गुजरात के कुछ जिले, अहमदनगर का गढ़ तथा गोदावरी नदी तक विस्तृत अजंता का क्षेत्र देने को तैयार हो गया।
- अंग्रेजों को सिंधिया ने यह वचन दिया कि वह सम्राट पर से अपना नियंत्रण त्याग देगा।
- सिंधिया पेशवा निजाम तथा गायकवाड पर से अपने समस्त अधिकारों को हटाने को सहमत हो गया।
- यह निश्चय किया गया की सिंधिया अपनी सेवा में किसी फ्रेंच, अमेरिकन या अंग्रेजों के किसी शत्रु को नियुक्त नहीं करेगा।
- सिंधिया ने बेसीन की संधि को मान्यता प्रदान की और अपने दरबार में एक अंग्रेज रेजिडेंट की नियुक्ति पर सहमत हो गया।
- सिंधिया अपने यहाँ ब्रिटिश सहायक सेना रखने को भी तैयार हो गया।
तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध
युद्ध के कारण –
इंदौर के मराठा शासक होल्कर ने द्वितीय मराठा युद्ध में भोंसले और सिंधिया का साथ नहीं दिया था,
पर मराठों की इस अपमानजनक पराजय से उसके जातीय अभिमान को इतनी ठेस पहुँची कि उसने अंग्रेजों से बदला लेने का निश्चय कर लिया।
वेलेजली भी होल्कर को अपने संरक्षण में लेकर मराठों की अवशिष्ट शक्ति को नष्ट करना चाहता था।
लार्ड लेक ने गवर्नर जनरल की भावनाएं 29 जनवरी, 1804 के एक पत्र द्वारा होल्कर को अवगत करा दी और स्वयं सेना सहित होल्कर के शिविर के पास डट गया।
युद्ध का आरम्भ (1804-05) –
अप्रैल, 1804 में अंग्रेजों ने तीन ओर से होल्कर पर आक्रमण कर दिया।
उत्तर से लेक ने, दक्षिण से जनरल आर्थर वेलेजली ने और पश्चिम से कर्नल मोनसन ने आक्रमण किया।
होल्कर ने मोनसन व कर्नल कासेट की अंग्रेजी सेना को बुरी तरह हराया।
लेक ने होल्कर पर आक्रमण किया और उसे परास्त करने में सहारनपुर में सफलता मिली।
होल्कर को पीछे हटना पड़ा।
होल्कर ने दो युद्ध 12 नवम्बर और 17 नवम्बर, 1804 को डीग और फर्रुखाबाद में हारे और वह पीछे हट कर भरतपुर तक आ गया।
लेक ने भरतपुर की दीवारों पर सिर पटका किन्तु चारों बार उसे हताश होकर वापस लौटना पड़ा।
मुस्तफापुर की संधि –
यह संधि 12 नवम्बर, 1805 को जार्ज बार्लो व सिंधिया के मध्य हुई।
इस संधि के अनुसार सिंधिया ने खुद को अंतिम रुप से होल्कर से अलग कर लिया।
राजघाट की संधि –
यह संधि 24 दिसम्बर, 1805 को होल्कर और अंग्रेजों के बीच हुई।
इस संधि के अनुसार होल्कर ने चम्बल नदी के उत्तर पश्चिम के समस्त प्रदेशों पर उसका अधिकार बने रहने का आश्वासन दिया।
नर्मदा के दक्षिण में भी होल्कर के प्रदेश वापस दे दिए गए।
इस प्रकार तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध समाप्त हुआ।
चतुर्थ आंग्ल-मराठा युद्ध (1817-18)
युद्ध के कारण –
- नेपाल-युद्ध से छुटकारा पाते ही हेस्टिंग्स ने पेशवा भोंसले, सिंधिया और होल्कर की सरहदों के बाहर विशाल सेनाएँ जमा करनी शुरू कर दी।
- हेस्टिंग्स ने अंग्रेजी हितों को देखते हुए मराठा शक्ति से निपट लेना ही उचित समझा।
- मराठे दुसरे और तीसरे युद्ध की पराजय का प्रतिकार करना चाहते थे।
- पेशवा बाजीराव द्वितीय अंग्रेजों के नियंत्रण से मुक्त होने के लिए मराठों को संगठित करने में व्यस्त था और पूना स्थित अंग्रेज रेजिडेंट उसकी गतिविधियों को बड़े संदेह की दृष्टि से देख रहा था।
युद्ध का प्रारम्भ –
निश्चित योजनानुसार 30 अक्तूबर, 1817 की शाम को जनरल स्मिथ और कर्नल पर के अधीन पूरी अंग्रेज सेना ने पूना की छावनी में प्रवेश किया।
पेशवा समझ गया कि अंग्रेज युद्ध करने पर उतारु हैं।
लार्ड हेस्टिंग्स अपने सेनापति नेपियर को 7 अप्रैल, 1817 को ही आदेश दे चुका था कि वह युद्ध के लिए तैयार रहे।
उत्तर से नेपियर, पश्चिम से स्मिथ और दक्षिण से मैल्कम ने पेशवा के राज्य पर आक्रमण किया।
5 नवम्बर, 1817 को पूना के निकट किरकी नामक स्थान पर अंग्रेजों और पेशवा की सेनाओं के मध्य घमासान युद्ध हुआ।
पेशवा के सेनापति गोखले की इच्छा थी कि कर्नल बर की सेना के आने से पहले ही जनरल स्मिथ की सेना पर हमला कर दिया जाए।
किन्तु उसके कुछ नमकहराम साथियों ने उसकी इस इच्छा को पूरा न होने दिया।
किरकी के युद्ध में अंग्रेजों की विजय हुई।
पेशवा बाजीराव को बापू गोखले और कुछ सैनिकों के साथ मैदान से हट जाना पड़ा।
लेकिन 19 फरवरी, 1818 को बापू गोखले युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ।
पेशवा और अंग्रेजों के मध्य यह अंतिम घमासान युद्ध था।
विवश होकर बाजीराव ने जून, 1818 में सर जॉन मैल्कम से सुलह की बातचीत की –
- पेशवा का राज्य अंग्रेजी राज्य में मिला लिया गया। पेशवा-पद सदा के लिए समाप्त हो गया।
- इनको 80 हजार पौण्ड की वार्षिक पेंशन दे दी गई। उसे उत्तर प्रदेश में कानपुर से 12 मील उत्तर पश्चिम में बिठूर की जागीर दी गई जहाँ उसने जीवन के शेष वर्ष ग्लानि और प्रायश्चित में काटे।
- पेशवा के स्वामिभक्त मंत्री त्र्यंबक को पेशवा से 200 मील दूर बनारस के पास चुनार के किले में बन्दी बनाकर रखा गया जहाँ इस देशभक्त ने कैद की कोठरी में सिसक-सिसक कर प्राण त्याग दिए।
भोंसला परास्त –
अंग्रेजों ने भोंसले के गुप्त भेद जानने के लिए रामचंद्र राव को 6000 रुपया सालाना गुप्त पेंशन देना शुरु कर दिया।
रामचंद्र राव भोंसले दरबार की समस्त गुप्त खबरें रेजिडेंट तक पहुंचा देता था।
लार्ड हेस्टिंग्स ने आंतरिक फूट का लाभ उठाकर अप्पा साहेब के साथ एक सहायक संधि संपन्न की जिससे भोंसले की स्वतंत्रता लगभग समाप्त हो गई।
जिस समय पूना के निकट पेशवा ने ब्रिटिश रेजीडेंसी को जला दिया उसी समय अप्पा साहेब ने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध प्रारम्भ कर दिया।
26 नवम्बर, 1817 ई. की शाम को सीताबल्दी स्थान पर अंग्रेज सेना पर हमला कर दिया।
29 नवम्बर, 1817 ई. को कम्पनी की कुछ और पलटने नागपुर पहुँच गई।
14 दिसंबर, 1817 ई. को जेनकिन्स ने निम्नलिखित अपमानजनक शर्त अप्पा साहेब के पास भेज दी और कह भेजा की यदि 16 तारीख की सुबह तक इन शर्तों को नहीं माना तो मराठा सेना के ऊपर चारों ओर से हमला कर दिया जाएगा।
शर्तो का सार निम्न था –
- राजा अप्पा साहेब इस बात को स्वीकार करें कि उनकी सेना ने अंग्रेजी सेना पर हमला करके अपराध किया है। दण्डस्वरूप सारी रियासत अंग्रेजों की हो चुकी है अतः अप्पा साहेब केवल अंग्रेज कम्पनी की दया से अपने लिए कुछ आशा कर सकते हैं।
- राजा की सारी युद्ध-सामग्री तोप खाने इत्यादि कम्पनी के हवाले कर दिए जाएँ। बाद में जब रियासत के सैनिकों की संख्या निश्चित हो जाएगी तब इस सामान का एक भाग उन्हें वापस कर दिया जाएगा।
- रेजीडेंट के साथ मिलकर राजा अपनी सारी अरबी सेना को जीतनी जल्दी हो सके, बरखास्त कर देगा।
- राजा की सेना फ़ौरन, जिस स्थान पर अंग्रेज कहें, चली जाएगी।
- फिलहाल नागपुर, का नगर खाली कर दिया जाए और कम्पनी की सेना उस पर कब्जा कर ले। बाद में संधि हो जाने पर नगर वापस दे दिया जाएगा।
दिसम्बर, 1817 ई. में अप्पाजी असीरगढ़ का अंतिम युद्ध हार गए।
विवश होकर अप्पाजी ने अंग्रेजों से संधि कर ली।
होल्कर की पराजय और संधि –
पेशवा बाजीराव द्वारा संघर्ष छेड़ देने पर होल्कर ने भी अंग्रेजों से अपनी रक्षा का उपयुक्त अवसर पाकर, पेशवा के पक्ष में युद्ध की घोषणा कर दी।
20 दिसम्बर, 1817 ई. को अंग्रेजों और होल्कर की सेनाओं में शिप्रा नदी के किनारे महिपुर नामक स्थान पर घमासान युद्ध हुआ।
इस आंग्ल-मराठा युद्ध में होल्कर की सेना पराजित हुई।
फलत 6 जनवरी, 1818 ई. को मंदसौर नामक स्थान पर होल्कर को अंग्रेजों के साथ एक सहायक संधि करनी पड़ी।