राजस्थान की लोक देवियाँ
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जनमानस की आस्था का केंद्र लोक देवियाँ राजस्थान के हर क्षेत्र में विराजमान हैं। यहाँ मातृदेवी को समर्पित अनेक प्रसिद्ध मंदिर है, जहाँ लोग हजारों किलोमीटर चलकर भी अपनी कुलदेवी के दर्शन करने आते हैं।
करणी माता (देशनोक, बीकानेर)-
इनका जन्म सुआप गाँव में चारण जाति के श्री मेहा जी के घर हुआ। बीकानेर के राठौड़ शासकों की कुल देवी करणी माता ‘चूहों वाली देवी’ के नाम से भी प्रसिद्ध है। इन चूहों को ‘करणी माता के काबे’ कहा जाता है। यहाँ के सफेद चूहे के दर्शन करणी माता के दर्शन माने जाते हैं।
करणी माता के मठ के पुजारी चारण जाति के होते हैं। करणी माता के आशीर्वाद एवं कृपा से ही राठौड़ शासक ‘राव बीका’ ने बीकानेर क्षेत्र पर राठौड़ वंश का शासन स्थापित किया था।
जीण माता (सीकर)-
जीण माता धंध राय की पुत्री व हर्ष की बहिन थी। इनके मंदिर का निर्माण राजा हट्टड़ द्वारा पृथ्वीराज चौहान प्रथम के शासन कल में करवाया गया, जिसमें जीण माता की अष्टभुजी प्रतिमा है। यह मंदिर सीकर शहर के नजदीक रैवासा गाँव की आडावाला पहाड़ियों के मध्य स्थित है।
के मंदिर में चैत्र व अश्विन मास की शुक्ला नवमी को विशाल मेले भरते हैं। देवी की प्रतिमा एक सामने घी व तेल की दो अखण्ड ज्योति सदैव जलती रहती है।
राजस्थानी लोक साहित्य में जीण माता का गीत सबसे लम्बा है। यह गीत कनफटे जोगियों द्वारा डमरु व सारंगी वाद्य की संगत से गाया जाता है।
इनका अन्य नाम भ्रामरी देवी (भूरी की राणी) भी है।
कैला देवी (करौली) –
कैला देवी करौली के यदुवंश (यादव वंश) की कुल देवी हैं। इनका मंदिर करौली के निकट त्रिकूट पर्वत की घाटी में स्थित है। कैला देवी के भक्त इनकी आराधना में प्रसिद्ध ‘लांगुरिया गीत’ गाते हैं।
चैत्र शुक्ला अष्टमी को चैत्र नवरात्रा में इनका विशाल लक्खी मेला भरता है। कैला देवी के मंदिर के सामने बोहरा की छतरी है।
शिला देवी (आमेर, जयपुर) –
शिलादेवी की अष्टभुजी काले पत्थर की मूर्ति को 16वीं शताब्दी के अंत में आमेर के महाराजा मानसिंह प्रथम पूर्वी बंगाल के राजा केदार से लाए थे। मानसिंह ने इस मूर्ति को राजमहल के पास संरक्षण करने वाली देवी के रूप में स्थापित किया। यहाँ शिलादेवी महिषासुर मर्दिनी के रूप में विराजमान हैं।
शिला देवी जयपुर के कछवाहा राजवंश की आराध्य देवी हैं। इनका मंदिर आमेर के राज महलों में मोहनबाड़ी के कोने पर स्थित है।
जमुवाय माता (जयपुर) –
जमुवाय माता ढूंढाड़ के कछवाहा राजवंश की कुल देवी हैं। इनका मंदिर जमुवारामगढ़ (जयपुर) में स्थित हैं। इनका प्राचीन नाम जामवंती था। यहाँ जमवायमाता की मूर्ति गाय व बछड़े के साथ प्रतिष्ठित है।
शीतला माता (चाकसू, जयपुर) –
चेचक की देवी के रूप में प्रसिद्ध शीतला माता के अन्य नाम सैढल माता या महामाई भी हैं। चाकसू (जयपुर) की शील डूंगरी पर स्थित शीतला माता के मंदिर का निर्माण जयपुर के महाराजा श्री माधोसिंह जी ने करवाया था।
चैत्र कृष्णा अष्टमी (शीतलाष्टमी) को इनकी वार्षिक पूजा होती है एवं चाकसू के मंदिर पर विशाल मेला भरता है। इस दिन लोग रात का बनाया ठण्डा भोजन (बास्योड़ा) खाते है।
शीतला माता की सवारी गधा है। प्रायः जांटी (खेजड़ी) को शीतला माता मानकर पूजा की जाती है।
शीतला माता की पूजा खंडित प्रतिमा के रूप में की जाती है। इसके पुजारी कुम्हार जाति के होते हैं।
नागणेची (जोधपुर) –
इनकी अठारह भुजाओं वाली प्रतिमा बीकानेर के यशस्वी संस्थापक राव बीका ने स्थापित करवाई थी। ये जोधपुर के राठौड़ों की कुल देवी है।
स्वांगियाजी (जैसलमेर) –
ये भाटी राजाओं की कुल देवी मानी जाती हैं। जैसलमेर के राजचिह्न में देवी के हाथ में स्वांग (भाला) का मुड़ा हुआ रूप दिखाया गया है। इस राजचिह्न में सबसे ऊपर पालम चिड़िया (सगुनचिड़ी) इस देवी का प्रतिक है।
अम्बिका माता –
उदयपुर जिले के जगत नामक गाँव में इनका मंदिर है, जो शक्तिपीठ कहलाता है। जगत का अम्बिका मंदिर ‘मेवाड़ का खजुराहो’ कहलाता है। यह मंदिर राजा अल्लत के काल में 10वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में महामारू शैली में निर्मित है। यहाँ नृत्य गणपति की विशाल प्रतिमा स्थित है।
पथवारी माता-
राजस्थान में तीर्थयात्रा की सफलता की कामना हेतु पथवारी देवी की लोक देवी के रूप में पूजा की जाती है। पथवारी देवी गाँव के बाहर स्थापित की जाती है।
सुगाली माता –
आउवा के ठाकुर परिवार (चाँपावतों) की कुलदेवी सुगाली माता मारवाड़ के लोगों की आराध्य देवी रही है। सुगाली माता की प्रतिमा के दस सिर व चौपन हाथ हैं।
राजस्थान राज्य में 1857 ई. के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में आउवा के ठाकुर कुशाल सिंह चाँपावत का अविस्मरणीय योगदान रहा है।
शांकम्भरी देवी –
सांभर (जयपुर) में इनका मंदिर स्थित है। यह चौहानों की कुलदेवी है।
त्रिपुरा सुन्दरी –
बांसवाड़ा जिले के तलवाड़ा के पास माँ त्रिपुरा सुन्दरी का प्रसिद्ध मंदिर है। माँ त्रिपुरा सुंदरी गुजरात के सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह की इष्ट देवी थी।
मंदिर के गर्भगृह में देवी की अठारह भुजाओं वाली काले पत्थर की प्रतिमा विराजमान है। मूर्ति के निचले भाग में ‘श्रीयंत्र’ उत्कीर्ण है।