राज्यसभा | Rajya Sabha | संरचना | सदस्य | अवधि | योग्यताएं
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1954 ई. में राज्य परिषद् की जगह राज्यसभा (Rajya Sabha) शब्द को अपनाया गया। राज्यसभा, उच्च सदन कहलाता है।
राज्यसभा की संरचना –
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 80 के अनुसार राज्यसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 250 हो सकती है।
लेकिन वर्तमान में यह संख्या 245 है। जिसमें से 229 सदस्य राज्यों से, 4 सदस्य संघ राज्य क्षेत्रों से व 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत होते है।
संविधान की चौथी अनुसूची में राज्यसभा के लिए राज्यों व संघ राज्य क्षेत्रों में सीटों के आवंटन का वर्णन किया गया है।
राज्यों का प्रतिनिधित्व –
राज्यसभा में राज्यों के प्रतिनिधि का निर्वाचन राज्य विधानसभा के निर्वाचित सदस्य करते हैं।
चुनाव आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा होता है।
राज्यसभा के लिए राज्यों की सीटों का बंटवारा उनकी जनसंख्या के आधार पर किया जाता है।
संघ राज्य क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व –
राज्यसभा में संघ राज्य क्षेत्र का प्रत्येक प्रतिनिधि एस कार्य के लिए निर्मित एक निर्वाचक मण्डल द्वारा चुना जाता है।
यह चुनाव भी आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा होता है।
मनोनीत या नाम निर्देशित सदस्य –
राष्टपति, राज्यसभा में 12 ऐसे सदस्यों को मनोनीत या नाम निर्देशित करता है, जिन्हें कला, साहित्य, विज्ञान और समाज सेवा, विषयों के संबंध में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव हो।
ऐसे व्यक्तियों को नामांकित करने के पीछे उद्देश्य है कि नामी या प्रसिद्ध व्यक्ति बिना चुनाव के राज्यसभा में जा सकें।
राज्यसभा की अवधि –
राज्यसभा (पहली बार 1952 में स्थापित) एक निरंतर चलने वाली संस्था है।
अर्थात् यह एक स्थाई सदन है और इसका विघटन नहीं होता किंतु इसके एक-तिहाई सदस्य हर दूसरे वर्ष सेवानिवृत्त होते है।
ये सीटें चुनाव के द्वारा फिर भरी जाती हैं और राष्ट्रपति द्वारा हर तीसरे वर्ष की शुरुआत में मनोचयन होता है।
सेवानिवृत्त होने वाले सदस्य कितनी भी बार चुनाव लड़ सकते हैं और मनोनीत हो सकते हैं।
संविधान में राज्यसभा (Rajya Sabha) के सदस्यों के लिए पदावधि निर्धारित नहीं की गई, इसे संसद पर छोड़ दिया गया था।
इसी के तहत, जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के आधार पर संसद ने कहा की राज्यसभा के सदस्यों की पदावधि छह वर्ष की होनी चाहिए।
योग्यताएं –
- वह भारत का नागरिक हो।
- उसकी आयु 30 वर्ष से कम न हो।
- वह किसी लाभ के पट पर न हो, विकृत मस्तिष्क का न हो।
- ऐसी अन्य योग्यताएं रखता हो, जो संसद के किसी कानून द्वारा निश्चित की जावें
अनुच्छेद 102 के अनुसार संघ अथवा राज्यों के मंत्री पद लाभ के पद नहीं समझे गए हैं।
यदि कभी यह प्रशन उठता है कि संसद के किसी सदन का कोई सदस्य उपर्युक्त योग्यताएं रखता है अथवा नहीं तो यह प्रश्न निर्णय के लिए राष्ट्रपति को सौंपा जाएगा तथा राष्ट्रपति चुनाव आयोग की राय के आधार पर जो निर्णय देगा, अंतिम होगा।
स्थानों का रिक्त होना –
दोहरी सदस्यता –
कोई भी व्यक्ति एक समय में संसद के दोनों सदनों का सदस्य नहीं हो सकता।
यदि कोई व्यक्ति संसद के दोनों सदनों में चुन लिया जाता है तो उसे 10 दिनों के भीतर यह बताना होगा कि उसे किस सदन में रहना है।
सूचना न देने पर, राज्यसभा में उसकी सीट खाली हो जाएगी।
अगर कोई व्यक्ति एक ही सदन में दो सीटों पर चुन लिया जाता है, तो उसे स्वेच्छा से किसी एक सीट को खाली करने का अधिकार है।
अन्यथा, दोनों सीटें रिक्त हो जाती हैं।
कोई व्यक्ति एक ही समय में संसद या राज्य के विधानमंडल के किसी सदन का सदस्य नहीं हो सकता।
अगर कोई व्यक्ति निर्वाचित होता है तो उसे 14 दिनों के अंदर राज्य के विधानमंडल की सीट को खाली करना होता है, अन्यथा संसद में उसकी सदस्यता समाप्त हो जाती है।
निरर्हता –
यदि कोई व्यक्ति संविधान में दी गई विनिर्दिष्ट निरर्हता से ग्रस्त पाया जाता है, तो उसका स्थान रिक्त हो जाता है।
विनिर्दिष्ट निरर्हता में संविधान की दसवीं अनुसूची में दर्ज निरर्हता में दल-बदल भी शामिल है।
पदत्याग –
कोई सदस्य, यथा स्थिति, राज्यसभा के सभापति या लोकसभा के अध्यक्ष को संबोधित त्याग-पत्र द्वारा अपना स्थान त्याग सकता है।
त्याग-पत्र स्वीकार हो जाने पर उसका स्थान रिक्त हो जाता है।
अनुपस्थिति –
यदि कोई सदस्य सदन की अनुमति के बिना 60 दिन की अवधि से अधिकसमय के लिए सदन की सभी बैठकों में अनुपस्थित रहता है तो सदन उसका पद रिक्त घोषित कर सकता है।
60 दिनों की अवधि की गणना में, सदन के स्थगन या सत्रावसान की लगातार चार दिनों से अधिक अवधि, को शामिल नहीं किया जाता है।
अन्य स्थितियां –
किसी सदस्य को संसद की सदस्यता रिक्त करनी होती है –
- यदि न्यायालय उस चुनाव को अमान्य या शून्य करार देता है।
- यदि उसे सदन द्वारा निष्कासित कर दिया जाता है।
- यदि वह राष्ट्रपति या उप-राष्ट्रपति चुन लिया जाता है।
- यदि उसे किसी राज्य का राज्यपाल बनाया जाता है।
राज्यसभा का सभापति –
राज्यसभा का पीठासीन अधिकार सभापति कहलाता है। देश का उप-राष्ट्रपति इसका पदेन सभापति होता है।
जब उप-राष्ट्रपति, राष्ट्रपति के रूप में काम करता है तो वह राज्यसभा (Rajya Sabha) के सभापति के रूप में कार्य नहीं करता है।
राज्यसभा के सभापति को तब ही पद से हटाया जा सकता है जब उसे उप-राष्ट्रपति पद से हटा दिया जाए।
सभापति सदन का सदस्य नहीं होता है। वह मत बराबर होने की स्थिति में ही अपना वोट दे सकता है।
उप-सभापति –
राज्यसभा अपने सदस्यों के बीच से स्वयं अपना उप-सभापति चुनती है।
जब किसी कारण से उप-सभापति का स्थान रिक्त हो जाता है तो राज्यसभा के सदस्य अपने बीच से नया उप-सभापति चुन लेते है।
उपसभापति सदन में सभापति का पद खाली होने पर सभापति के रूप में कार्य करता है।
सभापति की अनुपस्थिति में भी वह सभापति के रूप में कार्य करता है।
जब सभापति राज्यसभा की अध्यक्षता करता है तो उप-सभापति एक साधारण सदस्य की तरह होता है।
राज्यसभा की विशेष शक्तियां –
- यह संसद को राज्य सूची (अनुच्छेद 249) में से विधि बनाने हेतु अधिकृत कर सकती है।
- यह संसद को केंद्र एवं राज्य दोनों के लिए नई अखिल भारतीय सेवा के सृजन हेतु अधिकृत कर सकती है (अनुच्छेद 312) ।
- केवल राज्य ही उप-राष्ट्रपति को हटाने की प्रक्रिया शुरू कर सकता है। दूसरे शब्दों में उप-राष्ट्रपति को पदच्युत करने संबंधी कोई संकल्प केवल राज्यसभा में ही लाया जा सकता है, न कि लोकसभा में (अनुच्छेद 67) ।
- यदि राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय आपातकाल अथवा राष्ट्रपति शासन अथवा वित्तीय आपातकाल की घोषणा ऐसे समय करते हैं जबकि लोकसभा भंग की जा चुकी है अथवा लोकसभा का विघटन इसकी स्वीकृत अवधि के अन्दर होता है, तब यह घोषणा अकेले राज्यसभा के अनुमोदन पर भी प्रभावी होगी(अनुच्छेद 352, 356 तथा 360) ।