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साहित्य का इतिहास दर्शन

साहित्य का इतिहास दर्शन

अगर आप हिंदी साहित्य का इतिहास दर्शन के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त करना चाहते है तो उम्मीद करता हूँ कि यह लेख आपके लिए उपयोगी साबित होगा.

साहित्य का इतिहास दर्शन

  • अतीत के तथ्यों का वर्णन-विश्लेषण, जो कालक्रमानुसार दिया गया हो, इतिहास कहलाता है।
  • इतिहास के प्रति वस्तुपरक दृष्टिकोण, जिसमें तर्कपूर्ण शैली एवं गवेषणात्मक पद्धति का आधार लिया गया हो,इतिहास को वैज्ञानिक रूप प्रदान करता है । जबकि इतिहास के प्रति आत्मपरक दृष्टिकोण एवं ललित शैली उसे ‘कलात्मक’ रूप देते हैं ।
  • इतिहास लेखन के प्रति भारतीय दृष्टिकोण आदर्शमूलक एवं अध्यात्मवादी रहा है ।
  • भारत का प्राचीन इतिहास सत्य शोधन तक सीमित नहीं रहा है, उसे शिवं एवं सुंदरं रूप देने का प्रयास करता रहा है ।
  • यूनानी विद्वान हिरोडोटस ने इतिहास के चार लक्षण निर्धारित किए हैं-
  • इतिहास एक वैज्ञानिक विधा है, अतः इसकी पद्धति आलोचनात्मक होती है ।
  • यह मानविकी के अंतर्गत आता है, इसलिए यह मानव जाति से संबंधित है ।
  • इसके तथ्य, निष्कर्ष आदि प्रमाण पर आधारित होते हैं ।
  • यह अतीत के आलोक में भविष्य पर प्रकाश डालता है ।
  • पाश्चात्य इतिहास दर्शन विकासवादी दृष्टिकोण को मान्यता देता है ।
  • साहित्य के इतिहास में हम साहित्यिक रचनाओं का अध्ययन ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में करते हैं ।
  • साहित्य के इतिहास को समझने के लिए तत्कालीन परिस्थितियों का अध्ययन करना आवश्यक है। साथ ही  इनके रचयिताओं की परिस्थितियों एवं मनोभावनाओं को भी जानना आवश्यक है ।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के साहित्य के इतिहास के बारे में विचार –

आचार्य रामचंद्र शुक्ल साहित्य के इतिहास को जनता की चित्तवृत्ति का इतिहास मानते हैं। जनता की चित्तवृत्ति तत्कालीन परिस्थितियों से परिवर्तित होती है। अतः साहित्य का स्वरूप भी इन परिस्थितियों के अनुरूप बदलता है।

शुक्ल जी की यह भी धारणा है कि साहित्य का इतिहास कवियों का वृत्त संग्रह न होकर साहित्य की प्रवृत्ति का इतिहास होता है।

हिंदी साहित्य के इतिहास के बारे अन्य विद्वानों का मत –

  •  इटेलियन विद्वान ‘विको’ स्वीकार करते है कि इतिहास का संबंध न केवल अतीत से होता है, न वर्त्तमान से। इतिहास का निर्माता स्वयं मनुष्य होता है और मनुष्य चाहे जिस युग का हो उसकी मूलभूत प्रवृत्तियां एकसी  रहती हैं
  • कालिंगवुड’ के अनुसार, इतिहास दर्शन का सम्बन्ध न तो अपने आप में अतीत से होता है न ही अतीत के बारे में इतिहासकार के विचारों से बल्कि उसका संबंध इन दोनों के पारस्परिक सम्बन्ध से होता है
  • हीगल ने स्पष्ट किया कि, “इतिहास केवल घटनाओं का अन्वेषण एवं संकल्प मात्र नहीं है, अपितु उसके भीतर कार्य-कारण शृंखला विद्यमान है।“
  • जर्मन चिंतक भी इस तथ्य को मान्यता देते हैं कि साहित्य के इतिहास की व्याख्या तद्युगीन चेतना के आधार पर की जानी चाहिए
  • कारलाइन के अनुसार, “किसी राष्ट्र के काव्य का इतिहास वहां के धर्म, राजनीति और विज्ञान के इतिहास का सार होता है काव्य के इतिहास में लेखक को राष्ट्र के उच्चतम लक्ष्य, उसकी क्रमागत दिशा और विकास को देखना अत्यंत आवश्यक है इससे राष्ट्र का निर्माण होता है।“
  • डॉ. गणपति चंद्र गुप्त के अनुसार, साहित्य के क्षेत्र में सर्जन शक्ति साहित्यकार की नैसर्गिक प्रतिभा, सांस्कृतिक परंपराओं, युगीन चेतना एवं क्रिया-प्रतिक्रिया से प्रेरित होकर गतिशीलता प्राप्त करती है।
  • हिंदी साहित्य के इतिहास दर्शन के अंतर्गत निम्न तथ्यों का समावेश किया जा सकता है-
  • साहित्यकार की प्रतिभा और व्यक्तित्व का अध्ययन
  • युगीन चेतना का अध्ययन
  • साहित्यिक एवं सांस्कृतिक परंपराओं का अध्ययन
  • साहित्यकार की नैसर्गिक प्रतिभा एवं परंपरा का द्वंद्व एवं उसके स्त्रोत का अध्ययन
  • साहित्यकार द्वारा अभीष्ट की प्राप्ति

इससे स्पष्ट होता है कि साहित्य का इतिहास आलोचना नहीं है। इतिहासकार कृति का मूल्यांकन युगीन प्रवृत्तियों के संदर्भ में करता है। स्वतंत्र रूप से नहीं। आलोचना में जहां मूल्यांकन पर बल दिया जाता है, इतिहास में वह युगीन प्रवृत्तियों के सापेक्ष साहित्य के विशलेषण पर।

हिंदी साहित्य का इतिहास दर्शन FAQ’s

साहित्य के इतिहास को जनता की चित्तवृत्ति का इतिहास किसने बताया है ?

उत्तर – आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने साहित्य के इतिहास को जनता की चित्तवृत्ति का इतिहास कहा है.

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