प्रथम विश्व युद्ध
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28 जून, 1914 को आस्ट्रिया और सर्बिया के मध्य जो युद्ध आरम्भ हुआ उसने शीघ्र ही प्रथम विश्व युद्ध का रूप ले लिया।
यूरोप दो सशस्र गुटों में बट गया – एक ओर मित्र एवं संयुक्त राष्ट्र थे,
जिसमें इंग्लैंड, फ्रांस, रूस, सर्बिया, जापान, पुर्तगाल, यूनान, इटली, अमेरिका आदि थे तो दूसरी तरफ केन्द्रीय शक्तियां थी,
जिनमें जर्मनी, आस्ट्रिया-हंगरी, बल्गेरिया और तुर्की थे।
युद्ध के कारण –
गुप्त एवं कूटनीतिक संधियाँ –
बिस्मार्क प्रथम व्यक्ति था जिसने फ्रांस को यूरोपीय राजनीति में एकाकी कर देने के लिए गुप्त संधियों की सरंचना की थी।
रूस और फ्रांस के मध्य भी एक द्विवर्गीय संधि हुई थी।
इन परिस्ठितियों में विवश होकर इंलैंड को भी अपनी शानदार पृथक्करण की नीति का परित्याग करना पड़ा तथा
उसे फ्रांस के साथ शक्तिशाली गुट निर्मित करना पड़ा।
राष्ट्रीयता की भावना –
1789 ई. की फ्रांस की क्रांति से राष्ट्रीयता की भावना का आविर्भाव हुआ था
जिसने कालांतर में इटली और जर्मनी के एकीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।
1871 ई. के उपरान्त अल्सास-लारेन की माँग फ्रांस की राष्ट्रीय माँग बन गई,
इटली ने भी ट्रेटीनों, ट्रिस्ट के प्रदेशों को प्राप्त करने के लिए समुद्धरणवादी आन्दोलन आरम्भ किया,
जिसने आस्ट्रिया के साथ उसके संबंधों को प्रतिकूल बनाया।
20 वीं शताब्दी के प्रारम्भ में यह भावना इतनी बदलती हो चुकी थी कि प्रायः रणोंमादी प्रत्येक देश यह मांग कर रहा था कि एक राष्ट्रीयता एक राज्य के सिद्धांत की यह भावना प्रथम विश्व युद्ध के मूलभूत कारणों में से एक थी।
उग्र सैन्यवाद एवं शस्त्रीकरण –
19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में यूरोप के लगभग सभी देशों ने अपनी सैन्य-शक्ति को विस्तारित करने का प्रयास किया था।
1890 के पश्चात् जब जर्मनी ने अपनी नौ-सैनिक शक्ति को बढ़ाना प्रारम्भ किया तो यह इंग्लैंड की नौ-सैनिक शक्ति के लिए एक चुनौती समझा गया।
1914 ई. तक जर्मनी के पास 18 लाख, 50 हजार सैनिक थे जबकि लगभग 50 हजार व्यक्ति आरक्षित सैन्य कर्मी थे। रूस के पास इस समय लगभग 15 लाख सैनिक थे।
आर्थिक प्रतिद्वंद्विता तथा साम्राज्यवाद –
उन्नीसवीं सदी के अंत तक अफ्रीका, एशिया व बाल्कन क्षेत्रों का अधिकांश भाग यूरोपीय देशों का औपनिवेशिक अंग बन चुका था। इनमें सर्वाधिक हिस्सा इंग्लैंड तथा फ्रांस को प्राप्त हुआ था।
बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में जर्मनी तथा इंग्लैंड की वाणिज्यिक प्रतिद्वंद्विता इतनी अधिक हो चुकी थी कि दोनों देशों के उद्योगपति एवं नेतागण एक-दूसरे को नीचा दिखाने का कोई अवसर नहीं चूकते थे।
इसी प्रकार रूस एवं आस्ट्रिया के वाणिज्यिक हित बाल्कन क्षेत्र में टकरा रहे थे। सुदूर-पूर्व एवं चीन में आर्थिक और राजनीतिक साम्राज्यवाद के प्रसार हेतु भी यूरोपीय राज्यों में निर्णायक संघर्ष आवश्यक प्रतीत होने लगा था।
पूर्वी समस्या और जर्मनी –
जर्मनी को विश्व-शक्ति बनाने के उद्देश्य से कैसर विलियम द्वितीय ने पूर्वी समस्या में अभिरुचि लेनी प्रारम्भ कर कर दी। 1878 ई. के बर्लिन सम्मलेन के उपरान्त से ही इंग्लैंड ने टर्की के आन्तरिक मामलों में रुचि लेना बंद कर दिया था।
कैसर विलियम द्वितीय ने टर्की के साथ मधुर संबंध बनाने का प्रयास किया और टर्की के सुल्तान और उसकी जनता को यह विश्वास दिलाया की जर्मनी उसका सबसे बड़ा शुभचिंतक और मित्र है।
कैसर विलियम द्वितीय बर्लिन-बगदाद रेलवे लाइन का निर्माण करना चाहता था जिससे जर्मनी को अत्यधिक लाभ होने की आशा थी, वहीं इंग्लैंड, फ्रांस, सीरिया जैसे देशों को भारी हानि की आशंका थी।
योजना के पूरा होने पर इंग्लैंड के भारत तथा एशिया के उपनिवेशों के लिए संकट उत्पन्न हो सकता था।
अतः इंग्लैंड एवं फ्रांस ने जर्मनी की इस योजना का घोर विरोध किया,
रूस ने भी अपने मित्रों इंग्लैंड एवं फ्रांस का साथ दिया।
बोसनिया-हर्जिगोविना की समस्या –
बोसनिया-हर्जिगोविना के प्रदेश मूलतः टर्की साम्राज्य में स्थित थे किन्तु 1878 की बर्लिन संधि ने इन प्रदेशों के प्रशासन का अधिकार आस्ट्रिया को दे दिया था।
1908 ई. में आस्ट्रिया ने संधि का उल्लंघन कर इन प्रदेशों को अपने साम्राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी।
सर्बिया ने आस्ट्रिया के इस कदम की कटु आलोचना की।
इस समस्या ने आस्ट्रिया तथा सर्बिया के बीच शत्रुता को जन्म दिया।
अल्सास-लारेन की समस्या –
अल्सास-लारेन का क्षेत्र लम्बे समय से फ्रांस व जर्मनी के मध्य संघर्ष का कारण बना था। 1870 ई. में सेडान के युद्ध में फ्रांस पराजित हो गया और इस भू-क्षेत्र पर जर्मनी का अधिकार हो गया।
अल्सास व लारेन के प्रदेशों पर फ्रांस के औद्योगिक हित सन्निहित थे।
धीरे-धीरे इन प्रदेशों को फ्रांस में शामिल करने के लिए जन जागृति उत्पन्न होने लगी और बिस्मार्क के पतन के उपरान्त इन प्रदेशों को फ्रांस में सम्मिलित करने का अत्यधिक दबाव पड़ने लगा तथा जनता सरकार से मांग करने लगी कि इन भू-प्रदेशों को किसी भी प्रकार से जर्मनी से वापिस लिया जाए।
कैसर विलियम द्वितीय का चरित्र –
जर्मनी के कैसर विलियम द्वितीय के चरित्र ने भी यूरोप को युद्ध के कगार तक पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
वह अत्यधिक महत्वकांक्षी तथा क्रोधी स्वभाव वाला था।
वह ‘विश्वप्रभुत्व या सर्वनाश’ की नीति पर विश्वास करता था। उसका मानना था कि विश्व की राजनीति में जर्मनी की निर्णायक भूमिका होनी चाहिए।
पान-जर्मन लीग की स्थापना के पीछे उनका उद्देश्य आस्ट्रिया, स्विटजरलैंड, बेल्जियम, होलैंड तथा अन्य देशों में निवास करने वाले जर्मन जाति के लोगों को संगठित करना था।
अंतर्राष्ट्रीय संस्था का अभाव –
उस समय यूरोप में कोई ऐसी संस्था नहीं थी जो पारम्परिक वार्तालाप द्वारा विभिन्न देशों के झगड़ों का समाधान कर युद्ध की आशंका को समाप्त कर देती।
सभी देश अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए उचित व अनुचित कार्यों को करने के लिए पूर्णतः स्वतंत्र थे, यद्यपि ‘अंतर्राष्ट्रीय कानून और सदाचार की संहिता’ निर्मित हो चुकी थी, किन्तु इसे क्रियान्वित करने वाली शक्ति का सर्वथा आभाव था।
प्रथम विश्व युद्ध का तत्कालीन कारण –
उपर्युक्त परिस्ठितियों के परिदृश्य में सम्पूर्ण यूरोप में अशांति, अव्यवस्था, संदेह, निराशा एवं कटुता का वातावरण उत्पन्न हो गया था और सम्पूर्ण महाद्वीप में युद्ध के बादल मंडराने लगे।
अब बारूद में विस्फोट के लिए केवल एक चिनगारी की आवश्यकता थी और आस्ट्रिया के राजकुमार की हत्या ने उस चिनगारी की भूमिका तैयार कर दी।
आस्ट्रिया के सम्राट के भतीजे तथा राजसिंहासन के उत्तराधिकारी आर्क ड्यूक फ्रांसिस फर्डीनेन्द एवं उसकी पत्नी सोफी की 28 जून, 1914 ई. को बोसनिया की राजधानी सराजेवो में उस समय हत्या कर दी गई जब शाही दल सराजेवो के टाउन हॉल की और जा रहा था।
इस घटना ने यूरोप को प्रथम विश्व युद्ध की ज्वाला में ढकेल दिया।
राजकुमार की हत्या की प्रतिक्रिया –
आस्ट्रिया तथा सर्बिया के सम्बन्ध बोसनिया-हर्जोगोविना के प्रश्न पर पहले ही तनावपूर्ण थे तथा
इस घटना ने आस्ट्रिया को सर्बिया से प्रतिशोध लेने का अवसर दे दिया।
आस्ट्रिया ने इस हत्या का दोष सर्बिया पर लगाया और उसके सम्मुख दस सूत्रीय माँगपत्र प्रस्तुत किया और
सर्बिया को इसे स्वीकार करने के लिए अल्टीमेटम दिया।
सर्बिया ने इस माँग पत्र में उल्लिखित प्रायः सभी मांगों को स्वीकार कर लिया केवल दो मांगों को मानने से इंकार किया क्योंकि इन्हें मानने से उसकी प्रभुसत्ता और सम्मान को ठेस पहुँचती थी।
युद्ध के लिए तैयार आस्ट्रिया ने सर्बिया के उत्तर को असंतोषजनक मानते हुए
28 जुलाई, 1914 ई. को सर्बिया के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
जर्मनी ने आस्ट्रिया का पक्ष लिया।
जबकि रूस ने आस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की। फ्रांस, रूस का मित्र था,
उसने भी जर्मनी व आस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध घोषित कर दिया।
5 अगस्त, 1914 ई. को ब्रिटेन भी इस युद्ध में सम्मिलित हो गया।
प्रथम विश्व युद्ध की मुख्य घटनाएँ –
पश्चिमी मोर्चा –
पश्चिमी मोर्चे में मुख्यतः जर्मनी एवं फ्रांस के बीच युद्ध लड़ा गया।
पश्चिमी मोर्चे में जर्मनी का मुख्य उद्देश्य फ्रांस पर अधिकार करना था।
इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए जर्मनी ने सर्वप्रथम अगस्त 1914 में बेल्जियम पर आक्रमण कर उसकी राजधानी ब्रुसेल्स पर आधिपत्य जमाया।
इंग्लैंड तथा फ्रांस ने बेल्जियम की सहायता के लिए अपनी सेनाएँ भेजी लेकिन जर्मनी ने उन्हें विभिन्न स्थानों पर पराजित किया।
बेल्जियम से जर्मनी की सेनाओं ने आगे बढ़कर लगभग सम्पूर्ण उत्तरी फ्रांस पर अधिकार कर लिया और
जर्मन सेना पेरिस की ओर बढ़ने लगी।
मानें का युद्ध –
पेरिस पहुँचने के लिए जर्मन सेना का माने को पार करना आवश्यक था।
पेरिस से मात्र 15 मील दूर स्थित मानें नदी को पार कर जब जर्मन सेना आगे की ओर बढ़ी तो फ्रांसीसी सेना के कमांडर जोफ्रे ने फ्रांसीसी सैनिकों के साथ उनका मुकाबला किया और अदम्य साहस तथा राष्ट्रभक्ति का परिचय देते हुए जर्मन सेना को पराजित कर दिया।
इस पराजय के फलस्वरूप जर्मनी को फ्रांस पर अपना अधिकार करने की योजना का परित्याग करना पड़ा।
न्यो चैपल (Neuve Chappelle) का युद्ध –
उत्तरी-पूर्वी फ्रांस तथा बेल्जियम पर जर्मन सेना के अधिकार को समाप्त करने के लिए मार्च 1915 ई. में इंग्लैंड तथा फ्रांस की संयुक्त सेनाओं ने जर्मनी की सेना को उत्तरी सागर से निष्कासित करने तथा उसकी मोर्चाबंदी को समाप्त करने के उद्देश्य से उस पर भीषण आक्रमण किया।
न्यो चैपल के इस युद्ध में यद्यपि किसी भी पक्ष को सफलता नहीं मिली तथापि यह युद्ध इस दृष्टि से महत्वपूर्ण था कि इस युद्ध ने इंलैंड तथा फ्रांस को यह समझाने के लिए विवश किया कि जर्मन सेना को फ्रांस व बेल्जियम से खदेड़ने के लिए कठिन परिश्रम व बलिदान नितांत आवश्यक होगा।
सोमें (Somme) का युद्ध –
जुलाई 1916 ई. में इंग्लैंड की सेना ने फ्रांस की सेना के सहयोग से जर्मन सेना पर आक्रमण किया।
इस युद्ध में दोनों तरफ से भीषण रक्तपात हुआ।
हताहत सैनिकों की संख्या की दृष्टि से यह अत्यधिक विनाशकारी युद्ध था।
इस युद्ध में इंग्लैंड ने प्रथम बार टैंकों का प्रयोग किया था।
प्रारम्भ में मित्र राष्ट्रों को सफलता मिली, लेकिन वर्षा का मौसम होने के कारण
उन्हें पुनः सफलता मिलना कठिन हो गया था।
प्रशा पर रूसी आक्रमण –
अगस्त 1914 ई. में रूस ने प्रशा के पूर्वी भाग पर सशक्त आक्रमण किया और अनेक स्थानों पर विजय प्राप्त कर जर्मनी को हतप्रभ कर दिया।
जर्मनी ने पश्चिमी मोर्चे से अपनी सेना हटाकर हिन्ड़ेनबर्ग के नेतृत्व में पूर्वी मोर्चे में रूस पर आक्रमण किया और न केवल रुसी सेना को पराजित कर पूर्वी प्रशा पर पुनः अधिकार स्थापित किया वरन रूस के कुछ भू-भाग पर भी अपना कब्जा कर लिया।
आस्ट्रिया पर रूसी आक्रमण –
सितम्बर 1914 ई. में रुसी सेना से आस्ट्रिया पर आक्रमण किया और आस्ट्रिया की सेना को अनेक स्थानों पर पराजित कर गेलेशिया के प्रदेश पर कब्जा जमा लिया।
आस्ट्रिया की सहायता के लिए जर्मनी ने न केवल अपनी सेनाएँ भेजी वरन रूस के अधीनस्थ राज्य पोलैण्ड पर भी आक्रमण कर दिया।
इस प्रकार जर्मनी के हस्तक्षेप के कारण रूस को आस्ट्रिया से पलायन करना पड़ा और गेलेशिया पर अधिकार कर लेम्बर्ग की ओर बढ़ने लगी किन्तु पुनः जर्मन सेनाओं ने आस्ट्रिया की मदद की और रुसी अभियान को न केवल विफल बनाया वरन उसे अपार क्षति भी पहुँचायी।
दक्षिण-पूर्वी मोर्चा –
टर्की साम्राज्य ने नवम्बर, 1914 ई. में जर्मनी के पक्ष में युद्ध में प्रवेश किया और
अपने बोस्पपोरस के जलडमरूमध्य को जर्मन युद्धपोतों के लिए खोल दिया।
रूस ने टर्की के इस कदम को अपने विरुद्ध खुली चुनौती मानते हुए टर्की के विरुद्ध युद्ध घोषित कर दिया,
इंग्लैंड तथा फ्रांस ने भी रूस का समर्थन किया।
मित्रराष्ट्र टर्की की राजधानी कुस्तुतूनिया पर कब्जा जमाना चाहते थे ताकि काला सागर के मार्ग से रूस को सैनिक सामग्री भेजी जा सके लेकिन मित्रराष्ट्र अपने प्रथम प्रयास में सफल नहीं हो सके।
युद्ध में बल्गेरिया का पदार्पण –
दक्षिण-पूर्वी मोर्चे में मित्र राष्ट्रों के प्रथम असफल प्रयास के परिणामस्वरूप बल्गेरिया धुरी राष्ट्रों के पक्ष में हो गया और
अक्टूबर 1915 में उसने युद्ध में शामिल की घोषणा कर दी।
बल्गेरिया द्वारा साथ देने के फलस्वरूप जर्मनी एवं आस्ट्रिया ने सर्बिया पर सम्मिलित आक्रमण कर दिया और
नवम्बर 1915 ई. में सर्बिया को भीषण पराजय का सामना करना पड़ा।
सर्बिया की पराजय के उपरान्त जनवरी 1916 ई. में धुरी राष्ट्रों ने मोंटिनिगों को पराजित कर,
कुस्तुतूनिया के साथ बर्लिन के प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित कर लिए।
रूमानिया पर आक्रमण –
रूमानिया अगस्त 1916 ई. में प्रथम विश्व युद्ध में मित्र राष्ट्रों के पक्ष में युद्ध में शामिल हुआ था।
लेकिन सितम्बर 1916 ई. में ही जर्मनी, आस्ट्रिया, बल्गेरिया एवं टर्की की सम्मिलित सेनाओं ने रूमानिया पर आक्रमण कर दक्षिण रूमानिया पर आधिपत्य स्थापित कर लिया।
दक्षिणी मोर्चा –
इटली प्रारम्भ में प्रथम विश्व युद्ध से तटस्थ रहा था,
किन्तु मई 1915 में इटली और आस्ट्रिया के मध्य हुए युद्ध में इटली की पराजय हुई थी।
1916 ई. में आस्ट्रिया ने इटली पर पुनः आक्रमण किया,
किन्तु रूस द्वारा आस्ट्रिया पर आक्रमण ने इटली पर आस्ट्रिया के आक्रमण को विफल कर दिया।
समुद्री मोर्चे पर युद्ध –
जल-सेना के विस्तार की होड़ भी काफी हद तक प्रथम विश्वयुद्ध को प्रारम्भ करने के लिए उत्तरदायी थी।
महायुद्ध के प्रारम्भ में अगस्त 1914 ई. में इंग्लैंड ने हेलीगोलैंड के समीप जर्मन नौ सेना को पराजित कर दिया था, किन्तु शीघ्र ही जर्मन नौ सेना ने चिली के बंदरगाह के समीप इंग्लैंड की नौ सेना को पराजित कर दिया।
समुद्री मोर्चे में जर्मनी एवं ब्रिटेन एक बार पुनः जटलैंड के युद्ध में आमने-सामने हुए थे।
मई 1916 ई. में ब्रिटिश एडमिरल बेट्टी के नेतृत्व में जर्मन नौ-सैनिक बेड़े पर आक्रमण किया गया और
जर्मन युद्ध पोतों को हेलीगोलैंड तक वापिस खदेड़ दिया गया।
अमेरिका का युद्ध में प्रवेश –
अमेरिका ने प्रारम्भ में स्वयं को युद्ध में तटस्थ रखा था,
किन्तु अमेरिका के अधिकांश नागरिकों की सहानुभूति मित्र राष्ट्रों के साथ थी।
युद्ध आरम्भ होते ही मित्र राष्ट्रों ने अमेरिका से अधिकाधिक अनाज एवं युद्ध सामग्री खरीदना प्रारम्भ किया था,
जिससे अमेरिकी उद्योगों को भारी लाभ हुआ।
1917 ई. में जर्मनी द्वारा अमेरिकी यात्री जहाज लुसिटानिया को डुबाने के कारण अमेरिकी जनमत
जर्मनी के प्रबल विरोध में उठ खड़ा हुआ क्योंकि इस जहाज में लगभग 1200 यात्री सवार थे।
अमेरिकी सरकार ने 6 अप्रैल, 1917 को जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
अमेरिका के युद्ध में शामिल होने से मित्र राष्ट्रों को अत्यन्त सहयोग मिला और
अंततः सभी के संयुक्त प्रयासों से मित्र राष्ट्रों को विजय मिली।
रूस में बोल्शेविक क्रांति –
सन 1915 एवं 1916 में रूस पूर्वी मोर्चे पर केन्द्रीय शक्तियों द्वारा बुरी तरह पराजित हुआ था।
रूस की आतंरिक स्थिति निरन्तर खराब हो रही थी, निरंकुश जारशाही जनता की सुविधाओं का कोई ध्यान नहीं रखती थी।
ऐसी स्थिति में 15मार्च, 1917 को जार निकोलस द्वितीय के शासन के विरुद्ध रूस में क्रांति हो गई और
7 नवम्बर, 1917 ई. को लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों ने सत्ता पर पूर्ण अधिकार जमा लिया।
बल्गेरिया टर्की, आस्ट्रिया, जर्मनी द्वारा आत्मसमर्पण –
समय के साथ केन्द्रीय शक्तियों की स्थिति प्रतिकूल होने लगी।
अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश मित्र राष्ट्रों का पक्ष लेने से मित्र राष्ट्रों की स्थिति सुदृढ़ हो गई थी।
29 सितम्बर, 1918 ई. को बल्गेरिया ने मित्र राष्ट्रों के समक्ष बिना शर्त आत्मसमर्पण कर दिया और
युद्ध-विराम संधि पर हस्ताक्षर कर दिए।
प्रतिकूल परिस्थितियाँ देख कर टर्की व आस्ट्रिया दोनों देशों ने युद्ध से हटने का निर्णय लिया और
31 अक्टूबर, 1918 ई. को दोनों राष्ट्रों ने युद्ध विराम संधि पर हस्ताक्षर कर बिना शर्त
मित्र राष्ट्रों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया।
11 नवम्बर, 1918 ई. को जर्मनी ने भी युद्ध-विराम संधि पर हस्ताक्षर कर दिए।
इस प्रकार प्रथम विश्व युद्ध 4 वर्ष 3 माह व 11 दिनों तक चला था।