फ्रांस की क्रांति
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फ्रांस की क्रांति (1789 ई.) विश्व इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। इस क्रांति ने विश्व इतिहास में तीन नए आधुनिक आदर्श रखे – स्वतंत्रता, समानता एवं भ्रातृत्व। 18वीं सदी के मध्य तक जो फ्रांस प्राचीन संस्थाओं का केन्द्र था वही 18वीं शताब्दी के अंत तक क्रांति का केन्द्र बन गया।
क्रांति से पूर्व फ्रांस की दशा –
लुई चौदहवें (1643-1715 ई.) के शासनकाल में फ्रांस यूरोप का सबसे शक्तिशाली देश हो गया था। उसके शासनकाल में फ्रांस उन्नति के चरम शिखर पर पहुँच गया। राज्य क्रांति से पूर्व फ्रांस की जो दशा थी, उसको संक्षेप में निम्नानुसार प्रकट कर सकते हैं –
1. एकतंत्रीय शासन प्रणाली –
फ्रांस के राजा स्वेच्छाचारी और निरंकुश थे। राजा की इच्छा को ही कानून माना जाता था। सारे देश में समान कानून नहीं था। भाषण, विचार व प्रेस की स्वतंत्रता का आभाव था। राजा अपनी इच्छानुसार कर वसूल करता था। सरकारी कर्मचारी जनता पर अत्याचार करते थे और रिश्वतखोरी द्वारा अपने को समृद्ध बनाने में लगे रहते थे।
2. शिक्षा पर चर्च का प्रभाव –
शिक्षा चर्च के अधीन थी, इसलिए इस युग के विद्यालय ज्ञान व प्रकाश के केन्द्र न होकर पुरानी परम्परा की सांप्रदायिक शिक्षा को अधिक महत्त्व देते थे। बहुसंख्यक जनता अशिक्षित थी। नए विचारों की पुस्तकों के प्रकाशन पर सरकार का प्रतिबन्ध लगा हुआ था।
3. चर्च का राज्य पर प्रभाव –
फ्रांस का चर्च बहुत समृद्ध और शक्तिशाली था। निरंकुश व स्वेच्छाचारी शासन में वह राजा का प्रमुख सहायक था। बड़े पादरी और महंत अपने धार्मिक कर्तव्यों की उपेक्षा करते थे और राजदरबार की साजिशों में भाग लिया करते थे। पादरी भोगविलास में जीवन बिताते थे।
4. असमान समाज व्यवस्था –
फ्रांस का समाज तीन श्रेणियों में विभक्त था। प्रथम पादरी अथवा धर्माधिकारी, द्वितीय कुलीन या सामत एवं तृतीय वर्ग साधारण जन (कृषक एवं मजदूर) । प्रथम व द्वितीय वर्ग के लोग तृतीय वर्ग के किसानों एवं मध्यम वर्ग के लोगों का शोषण कर रहे थे और विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे थे।
देहातों की बहुसंख्यक जनता अभी अर्द्ध-दास की दशा में थी। उनका घोर शोषण किया जा रहा था।
5. जनता में असंतोष –
शहरों में निवास करने वाली माध्यम श्रेणी और मजदूर जनता में असन्तोष बहुत अधिक था। फ्रांस का औद्योगिक विकास न होने के कारण वहां के श्रमिकों की दशा बहुत शोचनीय थी।
आम जनता में निरंकुश राज-व्यवस्था व सामाजिक असमानता के विरुद्ध क्रांति की भावना निरन्तर बढ़ती जा रही थी। इन परिस्थितियों में फ्रांस की जनता का जीना मुश्किल हो गया था, इसलिए 1789 ई. में उसने अपनी सरकार के खिलाफ विद्रोह का झंडा खड़ा कर दिया।
फ्रांस की क्रांति के कारण
राजनीतिक कारण –
1. सम्राट की निरंकुशता –
फ्रांस में निरंकुश राजतंत्रात्मक प्रणाली विद्यमान थी। राजा का पद वंशानुगत होता था। फ्रांस के राजाओं का शासन-सम्बन्धी मूल सिद्धांत यह था कि राजा पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि है। उसकी इच्छा ही कानून थी जिसका उल्लंघन करना प्रजा के लिए देवी आदेश के उल्लंघन के समान था।
इस प्रकार फ्रांस के शासक जनता को राज्य कार्यों में अधिकार देने के पक्ष में नहीं थे। जनता भी राजा की निरंकुशता सहन करती आ रही थी, क्योंकि फ्रांस के पूर्व राजा निरंकुश, होने के साथ निपुण और साहसी थे, जिन्होंने फ्रांस की प्रतिष्ठा में वृद्धि की थी।
2. अयोग्य शासक –
उस समय फ्रांस में लुई सोलहवें का शासन था जो 1774 में कठिन परिस्थिति में सिंहासन पर बैठा था। खजाना खाली था और लुई चौदहवें तथा लुई पन्द्रहवें के समय का कर्ज राज्य पर चढ़ा हुआ था।
वह डरपोक और अस्थिर ह्रदय का था और उसकी निर्णय शक्ति भी बहुत कमजोर थी। वह अपने भाई और पत्नी मेंरी आत्वानेत की सलाह से प्रशासन चला रहा था। इस प्रकार लुई सोलहवें के काल में फ्रांस में अराजकता एवं अव्यवस्था फैलने लगी।
3. विलासिता तथा शानशौकत पर अपार खर्च –
फ्रांस के शासकों ने विलासिता और दिखावे पर अपार धन खर्च किया। वर्साय के शीश महल में 18 हजार व्यक्ति रहते थे, जिनमें से 16 हजार लुई सोलहवें के दास तथा 800 महारानी मेंरी की दासियां थी। शेष लोगों में राजपरिवार के अतिथि तथा समान्त थे।
लुई सोलहवें अपनी विलासिता पर 6 करोड़ रूपए वार्षिक खर्च कर रहा था। जबकि जनता गरीबी से परेशान थी।
4. निरंकुश वारंट प्रथा –
फ्रांस के राजा बहुत स्वेच्छाचारी थे। वे जिसको चाहते, गिरफ्तार कर सकते थे। इसके अलावा एक और प्रथा थी, जिससे लोगों की स्वतंत्रता हर समय खतरे में थी। राजा एक प्रकार के वारंट जारी करता था, जिन्हें ‘लैटर्स द कारो’ कहा जाता था।
राजा ये पत्र अपने रिश्तेदारों, कृपा-पत्रों, कर्मचारियों आदि को देता था, जिन्हें दिखाकर किसी भी व्यक्ति को बन्दी बनाकर दण्डित किया जा सकता था जिसका पता राजा को भी नहीं होता था।
अनेक निरपराध लोग इन पत्रों से कष्ट भोगते थे। इससे आम लोगों के न्याय और स्वतंत्रता का हनन हो रहा था।
5. सम्राटों की साम्राज्यवादी नीति –
फ्रांस के सम्राटों ने साम्राज्य प्रसार की नीति को अपनाया था जिसके कारण फ्रांस को अनावश्यक रुप से यूरोप के कई युद्धों में भाग लेना पड़ा। इसमें राज्य का बहुत अधिक धन खर्च हुआ।
खजाने को भरने के लिए जनता पर अनेक कर लगाए गए, तो जनता का असंतोष भड़क उठा।
6. दोषपूर्ण शासन व्यवस्था –
फ्रांस का प्रशासनिक ढांचा भी बड़ा अक्षम, अव्यवस्थित और खर्चीला था। शासन का प्रमुख राजा था। उसकी सहायता के लिए पांच समितियां थी, जो कानून बनाने, आदेश पारित करने तथा राज्य की गतिविधियों को संचालित करने का कार्य करती थी।
सरकारी पदों पर नियुक्ति योग्यता के आधार पर नहीं होती थी। कुलीन तथा अमीर लोग पदों को खरीद लेते थे और उन्हें सम्मान तथा आय बढ़ाने का साधन समझते थे।
7. विदेश नीति की असफलता –
लुई चौहदवें के शासनकाल में फ्रांस यूरोप में सबसे शक्तिशाली राष्ट्र हो गया। उसने अनेक युद्ध कर फ्रांस की सीमाओं का विस्तार किया। लुई चौदहवें के दोनों उत्तराधिकारी कमजोर सिद्ध हुए और उनके शासनकाल में फ्रांस के उपनिवेशों को इंलैंड ने छीन लिया था।
इससे अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में फ्रांस की प्रतिष्ठा को बहुत हानि पहुंची। स्वाभिमानी फ्रांसीसी जनता इससे बहुत क्षुब्ध थी।
सामाजिक कारण –
1. सामाजिक असमानता –
तत्कालीन फ्रांस की सामाजिक रचना स्वतंत्रता पर आश्रित न होकर जन्म पर आश्रित थी। सभी फ्रांसीसी लोगों के अधिकार समान नहीं थे। कुछ लोगों के पास विशेष अधिकार थे और कुछ के पास कोई भी अधिकार नहीं थे।
(i) पादरी वर्ग –
प्रथम एस्टेट के अंतर्गत राज्य का पादरी वर्ग आता है। राज्य में चर्च की स्थिति राज्य के भीतर एक दूसरे राज्य की तरह थी। पादरी वर्ग अत्यन्त समृद्ध एवं संपन्न था। इनके अधिकार में फ्रांस की भूमि का 10 प्रतिशत था।
चर्च का अपना प्रशासन था व अपने न्यायालय थे। अठारहवीं शताब्दी में फ्रांस में चर्च बहुत बदनाम तथा अलोकप्रिय हो गया था।
जनता में असंतोष इस वजह से था कि चर्च की बढ़ती हुई सम्पति के साथ पादरी अपने धार्मिक कर्तव्यों की उपेक्षा करते जा रहे थे।
(ii) कुलीन वर्ग –
फ्रांस में द्वितीय एस्टेट के अंतर्गत कुलीन लोग आते थे। जिनको अनेक विशेषाधिकार प्राप्त थे, जैसे कि राज्य के प्रत्यक्ष करों से मुक्ति तथा राज्य के नागरिक एवं सैनिक प्रशासन के सभी पदों पर एकाधिकार इत्यादि।
कुलीन वर्ग की विलासिता का भार आम जनता को उठाना पड़ता था।
(iii) साधारण वर्ग –
तृतीय एस्टेट के अंतर्गत फ्रांस का तीसरा वर्ग था। देश की आबादी की लगभग 94 प्रतिशत जनता इस वर्ग से ही सम्बन्ध थी। इस सामाजिक वर्ग में मध्यम-वर्ग, किसान, कारीगर व श्रमिक शामिल थे।
राज्य के करों का लगभग सारा भार इसी वर्ग को उठाना पड़ता था। मजदूर संगठित भी नहीं थे ये अपनी हालत से बहुत असंतुष्ट थे। जब राज्य क्रांति हुई तब श्रमिक वर्ग बड़े उत्साह से अव्यवस्था और दंगा करने के लिए उसमें शामिल हो गए।
आर्थिक कारण –
क्रांति के समय फ्रांस की आर्थिक स्थिति अत्यन्त दयनीय थी। अनेक युद्धों में भाग लेने के कारण यहाँ का राजकोष खाली हो गया था।
फ्रांस में कर-व्यवस्था असमानता और पक्षपात के सिद्धांत पर आधारित थी। कुलीन वर्ग और पादरी अधिकांश करों से मुक्त थे। अप्रत्यक्ष करों के अंतर्गत नमक कर, चुंगी, उत्पाद शुल्क, निर्यात कर आदि सम्मिलित थे।
इनमें नमक-कर गाबेल सबसे कष्टकर था। नमक के व्यापार का एकाधिकार राज्य ने एक कम्पनी को दे दिया था।
उत्पादित वस्तुओं को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने पर प्रत्येक प्रान्त की सीमा पर चुंगी देनी पड़ती थी जिससे उनका मूल्य बहुत बढ़ जाता था।
सेना में व्याप्त असंतोष –
सेना में फैला हुआ असंतोष भी फ्रांस की राज्य क्रांति का एक प्रमुख कारण बना। सेना में उच्च पदों पर नियुक्त अयोग्य व्यक्तियों के खिलाफ योग्य सैनिकों में असंतोष विद्यमान था।
फ्रांसीसी सैनिक प्रजातंत्रवादी विचारधारा से प्रभावित हो रहे थे। सी कारण क्रांति समय उन्होंने भी साधारण जनता का साथ दिया।
अव्यवस्थित शासन प्रणाली –
फ्रांस का प्रशासनिक ढांचा अव्यवस्थित एवं खर्चीला था। फ्रांस की शासन-व्यवस्था में एकरूपता का अभाव था। स्थानीय स्वशासन नामक इकाई फ्रांस में नहीं थी।
अलग-अलग प्रान्तों के भिन्न-भिन्न प्रकार के कानून थे। देश के विभिन्न भागों में जनता का असंतुष्ट होना स्वाभाविक था।
देश में बौद्धिक चेतना जागृत होना –
क्रांति से पूर्व फ्रांस के कई लेखकों, विचारकों व दार्शनिकों ने जनता में क्रांति की भावना जगाने का अथक प्रयत्न किया। इन विचारकों के बारे में संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है –
मांटेस्क्यू (1689-1755 ई.)
मांटेस्क्यू स्वयं कुलीन था लेकिन उसने राजा के देवी अधिकार के सिद्धांत के खिलाफ आवाज उठाई।
उसका कहना था कि राजा ईश्वरीय विधान की कृति नहीं है, वह इतिहास की रचना है।
इनकी प्रसिद्ध रचना ‘दी स्पिरिट ऑफ लॉज’ थी जिसका प्रकाशन 1748 ई. में हुआ था।
उसने अपनी दूसरी पुस्तक ‘पर्सियन लेटर्स’ में फ्रांस में व्याप्त असमानताओं, भ्रष्टाचार तथा बर्बरता का चित्रण किया है तथा निरंकुशतावाद के घातक परिणामों की ओर ध्यान आकृष्ट किया है।
वाल्टेयर (1694-1779 ई.)
वाल्टेयर मध्यम वर्ग का था। वह सभी लेखकों में सबसे अधिक प्रभावशाली था।
वह बुद्धि की स्वतंत्रता एवं विचार की स्वतंत्रता का प्रबल समर्थक था।
वह प्रजातंत्र में आस्था नहीं रखता था।
वाल्टेयर प्रबुद्ध तथा शुभकारी निरंकुशवाद में विश्वास रखता था।
चर्च और राज्य के दोषों के खिलाफ उसने जो पुस्तकें लिखी, उसके कारण लोगों का ध्यान उनकी बुराइयों की तरफ आकृष्ट हुआ और लोग इन दोषों को दूर कर एक नए युग की कल्पना करने लगे।
रूसो (1712-1778 ई.)
फ्रांस में क्रांति की भावना को जगाने में सबसे प्रमुख स्थान रूसो का है।
जहाँ मोंटेस्क्यू और वाल्टेयर का दृष्टिकोण सुधारात्मक था।
वहीँ रूसो का दृष्टिकोण सब कुछ बदलकर एक नए समाज का संगठन करने का था।
रूसो की सबसे प्रसिद्ध रचना सामाजिक अनुबंध है।
उसने दो महान सिद्धांतो का प्रतिपादन किया, जनता की सार्वभौम सत्ता तथा समस्त नागरिकों की राजनीतिक समानता।
निरंकुश शासन के युग में उसके सिद्धांत बड़े आकर्षक सिद्ध हुए। पूरे यूरोप में उसके विचार फ़ैल गए।
दिदरो (1713-1784 ई.)
क्रांति की भावना को जन्म देने वाले विचारकों में दिदरो का भी महत्वपूर्ण स्थान है।
उसको विश्वास था कि सत्य ज्ञान से सभी दोषों का निराकरण और सुख की वृद्धि हो सकती है।
इसके लिए उसने अनेक विद्वानों के सहयोग से विश्वकोष का सम्पादन किया।
सरकार ने दिदरो को अनेक तरीकों से परेशान किया और उसे कारावास भी भुगतना पड़ा।
लेकिन दिदरो ने अपने प्रयत्न बंद नहीं किए। यह विश्वकोष 1751 से 1772 ई. तक 17 खण्डों में प्रकाशित हुआ।
क्रांति की भावना के प्रचार में यह ग्रन्थ बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुआ।
विदेशी घटनाओं का प्रभाव –
इंग्लैंड के प्रशासन का प्रभाव –
कुछ समय पूर्व ही इंग्लैंड में जनता के प्रयासों से संवैधानिक शासन व्यवस्था की स्थापना हुई थी।
वैधानिक शासन की स्थापना के बाद इंग्लैंड में राजा के अधिकार सीमित कर दिए गए और
सभी को व्यक्तिगत स्वतंत्रता प्रदान की गई।
आयरलैण्ड का प्रभाव –
आयरलैण्ड के सम्राट लगभग एक शताब्दी तक अपनी जनता पर निरंकुश शासन करते रहे।
परिणामस्वरूप वहाँ की जनता ने निरंकुश शासन के खिलाफ 1779-82 ई. तक आंदोलन किया,
जिसके कारण उन्हें काफी सुविधाएं प्राप्त हुई। इसका फ्रांस की जनता पर भी प्रभाव पड़ा।
सप्तवर्षीय युद्ध का प्रभाव –
यह युद्ध इंग्लैंड और फ्रांस के बीच में हुआ था।
जिसमें इंग्लैंड विजयी हुआ और उसकी प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई
जबकि फ्रांस की पराजय होने से उसके सम्मान में कमी आयी।
इस युद्ध में खर्च किए गए धन के कारण फ्रांस की आर्थिक स्थिति को दयनीय बना दिया।
इस पराजय से फ्रांस के सम्राट की दुर्बलता और अयोग्यता विश्व के अन्य देशों के सामने प्रकट हो गई।
अतः फ्रांस की जनता ने ऐसे अयोग्य सम्राट का हटाने का निश्चय किया।
अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम का प्रभाव –
सन 1776 में अमेरिका का स्वतंत्रता संग्राम लड़ा गया था।
उपनिवेशों ने ब्रिटिश आधिपत्य के विरुद्ध सफलता प्राप्त की थी।
ब्रिटिश आधिपत्य से मुक्त होकर अमेरिका ने अपने देश में लोकतंत्रात्म शासन का विकास किया।
क्रांति की भावनाओं की विजय ने फ्रांसीसी क्रांतिकारियों में उत्साह भर दिया।
राजतंत्र के खिलाफ घृणा के विचार प्रबल होते गए और
फ्रांसीसी जनता भी पुरानी संस्थाओं का अंत कर नए युग की स्थापना के लिए तैयार हो गई।
फ्रांस की क्रांति की शुरुआत एवं महत्वपूर्ण चरण
एस्टेटस- जनरल-चुनाव एवं अधिवेशन –
लुई सोलहवें के आदेश से 1789 के प्रारम्भ में एस्टेट्स-जनरल के तीनों सदनों के प्रतिनिधियों के सार्वजनिक चुनाव संपन्न हुए।
तृतीय एस्टेट के लोगों ने सुधारों की आशा में बड़े उत्साह से मतदान किया था।
किन्तु राजा सुधार नहीं चाहता था, उसका उद्देश्य केवल अपना खाली खजाना भरना था।
चुनाव के दौरान विभिन्न वर्गों के मतदाताओं द्वारा अपनी-अपनी शिकायतों एवं मांगों के स्मृतिपत्र तैयार किए गए थे।
इन प्रतिवेदनों को काहिए कहा जाता था।
कुलीन एवं पादरी वर्ग अपने विशेषाधिकारों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे
जबकि तृतीय एस्टेट के लगभग सभी प्रतिनिधि संवैधानिक सुधारों के पक्ष में थे।
5 मई, 1787 को एस्टेट्स जनरल का अधिवेशन वर्साय में शुरू हुआ।
इस अधिवेशन के साथ ही क्रांति का श्रीगणेश हो गया। इस सभा को बुलाना राजा की प्रथम पराजय थी।
राष्ट्रीय महासभा की घोषणा (17 जून, 1789) –
दोनों एस्टेट्स की हठधर्मिता से परेशान होकर 17 जून, 1789 को तृतीय एस्टेट के प्रतिनिधियों ने अपने सदन को राष्ट्रीय महासभा घोषित कर दिया और अन्य दोनों एस्टेट्स के प्रतिनिधियों को भी इस राष्ट्रीय महासभा, में शामिल होने के लिए कहा।
सम्राट लुई सोलहवाँ इस घटना से बहुत नाराज हुआ और उसने संसद भवन में ताले लगवा दिए,
ताकि वहां राष्ट्रीय महासभा का अधिवेशन न हो सके।
ऐसी स्थिति में तृतीय एस्टेट्स के प्रतिनिधियों ने संसद भवन के पास ही टेनिस कोर्ट में बेली की अध्यक्षता में शपथ ली जिसे टेनिस कोर्ट की शपथ के नाम से जाना जाता है।
राजा को परिस्थितियों के आगे झुकना पड़ा और उसने तीनों एस्टेट्स के प्रतिनिधियों को राष्ट्रीय संविधानिक महासभा की एक इकाई के रूप में स्वीकार कर लिया।
यह क्रांतिकारियों की पहली विजय थी।
बास्तिल का पतन (जुलाई, 1789 ई.) –
जनता के हाथों में शक्ति का जाना दरबारियों को, रानी को और राजा के भाई को बुरा लगा।
सम्राट लुई ने कुलीनों के प्रभाव में आकर शक्ति के प्रयोग द्वारा क्रांति को नष्ट करने का निश्चय कर लिया।
उसने फ्रांस की सेना को वर्साय और पेरिस में एकत्र किया ताकि जनता की भीड़ दबी रहे।
लोकप्रिय प्रधानमंत्री नेकर को भी पद से हटा दिया गया।
पेरिस की जनता यह सब देखकर उत्तेजित ही गई और उसने भोजन तथा हथियारों की दुकानों को लुटन शुरू कर दिया। ये दंगे मूलतः आर्थिक असंतोष के प्रतीक थे।
वहाँ खाद्य पदार्थों की कीमतें बहुत बढ़ गई थी, 14 जुलाई, 1789 को सशस्र भीड़ ने पेरिस के पूर्व में स्थित बास्तिल के शाही किले एवं जेल पर आक्रमण कर दिया।
कुछ घण्टों के संघर्ष के बाद भीड़ ने बास्तिल के किले पर अधिकार कर लिया।
फ्रांस में आज भी 14 जुलाई का दिन स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता है।
फ्रांस में गणतंत्र की स्थापना –
जून 1791 में राजा ने पेरिस से निकल भागने की योजना बनाई लेकिन उसको वापस पकड़ कर पेरिस लाया गया।
जनता का राजा से विश्वास उठ गया।
रोब्सपियर दांते तथा मारा जैसे उग्र क्रन्तिकारी नेता भी केवल राजा के अधिकारों को सीमित कर देना चाहते थे।
लेकिन अब वे एकतंत्र को समाप्त कर फ्रांस में गणतंत्र स्थापित करने के लिए एक जुट हो गए।
नए संविधान के अनुसार व्यवस्थापिका सभा के चुनाव हुए और 1 अक्टूबर, 1791 को इस विधान निर्मात्री सभा की पहली बैठक हुई।
विधानसभा में प्रमुख दो दल थे – 1. वैध राजसत्तावादी, 2. गणतंत्रवादी।
राजसत्ता को हटाकर गणतंत्र की स्थापना इनका मुख्य लक्ष्य था।
गणतंत्रवादी दो भागों में विभक्त थे – जेकोबिन क्लब व कार्डेलिए क्लब।
फ्रांस का आस्ट्रिया व प्रशा से युद्ध –
फ्रांस में क्रांति का तेजी से प्रसार हो रहा था लेकिन यूरोप के अनेक देशों में राजतंत्र ने अभी भी जड़ें जमा रखी थी।
इस कारण से फ्रांस और अन्य यूरोपीय देशों में तनाव की स्थिति उत्पन्न हो गई थी।
आस्ट्रिया और प्रशा की गतिविधि से परेशान होकर फ्रांस ने अप्रैल, 1792 में आस्ट्रिया के विरुद्ध की घोषणा कर दी।
इस युद्ध में प्रशा ने आस्ट्रिया का साथ दिया।
फ्रांसीसी सेनाओं को अनेक स्थानों पर पराजय का सामना करना पड़ा।
इसी समय फ्रांसवासियों को यह जानकारी मिली की राजा लुई सोलहवाँ तथा रानी मेंरी एंतोइनेट फ्रांस के शत्रुओं से मिले हुए हैं तथा उन्हें गुप्त योजनाओं की सूचनाएं भिजवा रहे हैं।
राजतंत्र की संपत्ति –
फ्रांस की नाराज जनता ने 10 अगस्त, 1792 को राजा के ट्वीलरी के महल पर आक्रमण कर दिया।
राजा एवं राजपरिवार के सदस्यों को विधान निर्मात्री सभा के पास शरण लेनी पड़ी।
विधान निर्मात्री सभा के सदस्यों ने प्रस्ताव पारित दिया कि राजा को पद से हटा दिया जाए तथा फ्रांस में राजतंत्र को पूरी तरह समाप्त कर दिया जाए।
विधान निर्मात्री सभा ने स्वयं को भंग कर राष्ट्रीय सम्मलेन के चुनाव की घोषणा की।
इस चुनाव में फ्रांस के सभी लोगों को मत देने का अधिकार प्रदान किया गया।
राष्ट्रीय सम्मलेन –
राष्ट्रीय संविधान परिषद् का प्रथम अधिवेशन 21 दिसम्बर, 1792 को हुआ।
उसका सबसे पहला काम राजसत्ता के अंत की घोषणा करके गणतंत्र की स्थापना करना था।
राजा लुई सोलहवें को मृत्यु-दण्ड –
लुई सोलहवें पर फ्रांस के शत्रुओं से मिले होने का गम्भीर आरोप था।
राष्ट्रीय सम्मलेन ने उस पर दिसम्बर, 1792 में मुकदमा चलाया।
मतदान के द्वारा उसे बहुमत से मौत की सजा सुनाई गई।
21 जनवरी, 1793 को पेरिस के राजमहल के सामने उसे मृत्यु दण्ड दे दिया गया।
डिइरेक्टरी का शासन (1795-1799 ई.) –
27 अक्टूबर, 1795 को डाइरेक्टरी का शासन फ्रांस में शुरू हुआ।
डाइरेक्टरी की स्थापना के साथ विशुद्ध क्रांति का अंत हो गया।
इसका कार्यकाल गुप्त योजनाओं एवं षडयंत्र का काल था।
यह काल फ्रांस के गणतंत्र का पतनोंन्मुख काल था।
इसका पतन क्रांति के युग की समाप्ति था।
इस प्रकार अपने दस वर्ष के इतिहास में फ्रांसीसी क्रांति ने अनेक रूप धारण किए।