कर्नाटक का प्रथम युद्ध
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व्यापार से आरम्भ होकर अंग्रेजी तथा फ्रांसीसी कम्पनियाँ भारत की राजनीति में उलझ गई। 17वीं-18वीं सदी में आंग्ल-फ्रांसीसी शाश्वत शत्रु थे अतः ज्यों की यूरोप में उनका आपसी संघर्ष आरम्भ होता संसार के प्रत्येक कोने में, जहाँ कम्पनियाँ कार्य करती थी, आपसी युद्ध आरम्भ हो जाते थे। प्रथम कर्नाटक युद्ध के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं –
दक्षिण भारत की दयनीय राजनैतिक स्थिति –
दक्षिण की अनिश्चित तथा अराजक राजनीतिक स्थिति ने संबंधित यूरोपीय कम्पनियों को प्रभुत्व स्थापित करने के लिए प्रेरित किया। फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले ने इस दिशा में पहल की जिसका अंग्रेजों ने भी अनुसरण किया। परिणामस्वरूप दोनों में संघर्ष आरम्भ हो गया।
यूरोपीय परिस्थितियाँ –
प्रथम कर्नाटक युद्ध का मूल कारण इंग्लैंड तथा फ्रांस की यूरोपीय राजनीति में भाग लेने से संबंधित था। यूरोप में इस समय आस्ट्रिया की महारानी मेरिया थेरेसा के उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर इंग्लैण्ड तथा फ्रांस के मध्य युद्ध आरम्भ हो गया था जिसके प्रभाव स्वरूप भारत में भी दोनों जातियों में संघर्ष आरम्भ हो गया।
अंग्रेजों द्वारा पाण्डिचेरी पर आक्रमण –
पाण्डिचेरी का गवर्नर डूप्ले अपनी सामुद्रिक शक्ति को कमजोर समझता था। अतः जिस समय यूरोप में युद्ध आरम्भ हुआ, उस समय डूप्ले की पहल पर दोनों व्यापारिक कम्पनियों ने अपनी-अपनी गृह सरकारों को लिखा कि वे भारत में परस्पर युद्ध नहीं करना चाहती।
फ्रांसीसी सरकार ने तो इसे स्वीकार कर लिया किन्तु इंग्लैंड ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। जवाब में डूप्ले ने 1748 ई. में मोरिशस के फ्रांसीसी गवर्नर लाबूरदोने की सहायता मांगी तथा मद्रास पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में उसने अंग्रेज सेनापति पैटन को करारी हार दी।
मद्रास पर फ्रांसीसियों का अधिकार –
इतना होते हुए भी शायद युद्ध टल जाता परन्तु जब फ्रांसीसियों ने अंग्रेजों के महत्त्वपूर्ण बंदरगाह मद्रास पर अधिकार कर लिया तो युद्ध अनिवार्य हो गया। इसी समय मद्रास के प्रश्न पर डूप्ले तथा लाबूरदोने में मतभेद हो गया।
डूप्ले चाहता था की मद्रास के साथ-साथ पाण्डिचेरी से 18 मील दूर स्थित फोर्ट सेंट डेविड पर भी फ्रांसीसियों का अधिकार हो जाए किन्तु लाबूरदोने ने एक मोटी रकम के बदले मद्रास अंग्रेजों को लौटा दिया।
डूप्ले ने इसे अस्वीकार करते ही मद्रास को पुनः जीत लिया किन्तु वह सेंट डेविड के किले को न जीत सका। इस स्थिति में कर्नाटक के नवाब ने दोनों कम्पनियों को लड़ते हुए देखकर उन्हें युद्ध बन्द करने की आज्ञा दी।
इस पर डूप्ले ने मद्रास को जीतकर नवाब को देने का प्रस्ताव किया, किन्तु जब डूप्ले ने वचन पूरा नहीं किया तो नवाब ने महफूज खां के नेतृत्व में 10000 भारतीय सैनिकों की विशाल सेना भेजी जिसे अद्यार नदी पर स्थित सेंट टीम के स्थान पर छोटी सी फ्रांसीसी सेना ने पराजित कर दिया।
ए.ला. शेपेल की संधि (1748) –
1748 ई. में यूरोप में ब्रिटेन तथा फ्रांस के मध्य हुई ए.ला. शेलेप की संधि के माध्यम से आस्ट्रिया के उत्तराधिकार का युद्ध समाप्त हो गया। इस संधि के अनुसार भारत में फ्रांसीसियों ने अंग्रेजों के विजित प्रदेशों को लौटा देने तथा अमेरिका में अंग्रेजों द्वारा विजित फ्रांसीसी क्षेत्र लौटाने का निर्णय हुआ।
जिसके आधार पर मद्रास अंग्रेजों को लौटा दिया गया और इस संधि से प्रथम कर्नाटक युद्ध समाप्त हुआ।
कर्नाटक के प्रथम युद्ध के परिणाम तथा महत्त्व –
युद्ध के प्रथम दौर में दोनों दल बराबर रहे, लेकिन यह युद्ध कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण था, जैसे इस युद्ध ने यूरोपवासियों को भारतीय राजनीतिक पतन का पूरा ज्ञान करा दिया। युद्ध के दुसरे दौर में फ्रांसीसी श्रेष्ठ रहे।
द्वितीय युद्ध (1749 – 1754 ई.)
द्वितीय कर्नाटक युद्ध के कारण तथा घटनाओं को हम निम्न बिन्दुओं के अंतर्गत समझ सकते हैं –
डूप्ले की महत्वाकांक्षाएँ –
कर्नाटक के प्रथम युद्ध के बाद डूप्ले को मद्रास लौटाने के लिए विवश होना पड़ा था, किन्तु इससे उसकी राजनीतिक पिपासा जाग उठी तथा उसने फ्रांसीसी राजनैतिक प्रभाव के प्रसार के उद्देश्य से भारतीय राजवंशों के परस्पर झगड़ों में भाग लेने का विचार किया।
हैदराबाद तथा कर्नाटक के उत्तराधिकार विवाद में डूप्ले का हस्तक्षेप –
1748 ई. में दक्कन के स्वायत्त राज्य के संस्थापक आसफजाह की मृत्यु होने पर उसका पुत्र नासिरजंग उसका उत्तराधिकारी बना किन्तु उसके भतीजे (आसफजाह के पौत्र) मुजफ्फरजंग ने इस दावे को चुनौती दी।
दूसरी ओर कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन तथा उसके बहनोई चाँदा साहिब के बीच विवाद था। शीघ्र ही विदेशी कम्पनियों के हस्तक्षेप से ये दोनों विवाद में परिवर्तित हो गए।
डूप्ले ने इस अनिश्चित अवस्था से राजनैतिक लाभ उठाने के लिए मुजफ्फरजंग को दक्कन की सूबेदारी तथा चाँदा साहिब को कर्नाटक की सूबेदारी के लिए समर्थन देने की बात सोची।
प्रतिक्रिया स्वरूप अंग्रेजों के लिए नासिरजंग तथा अनवरुद्दीन का साथ देने का ही विकल्प बचा था। मुजफ्फरजंग, चाँदा साहिब तथा फ्रेंच सेनाओं ने 1749 ई. के अगस्त माह में वेल्लौर के समीप अचर नामक स्थान पर अनवरुद्दीन को हराकर मार दिया।
दिसम्बर, 1750 ई. में नासिरजंग भी एक संघर्ष में मारा गया। मुजफ्फरजंग दक्कन का सूबेदार बन गया तथा उसने दूजे को कृष्णा नदी के दक्षिणी भाग के मुगल प्रदेशों का गवर्नर नियुक्त कर दिया।
उत्तरी सरकारों के कुछ जिले भी फ्रांसीसियों को दिए गए। मुजफ्फरजंग के आग्रह पर फ्रेंच सेना की एक टुकड़ी बुस्सी की अध्यक्षता में हैदाराबाद में तैनात कर दी गई। इधर 1751 ई. में चाँदा साहिब कर्नाटक के नवाब बन गए। यह डूप्ले की शक्ति की पराकाष्ठा थी।
हैदराबाद तथा कर्नाटक की राजनीति में अंग्रेजों का हस्तक्षेप –
डूप्ले के बढ़ते प्रभाव से भयभीत अंग्रेजों ने अनवरुद्दीन के पुत्र मुहम्मद अली को सहायता देने का निश्चय किया। मुहम्मद अली ने त्रिचनापल्ली में शरण ली किन्तु फ्रांसीसी तथा चाँदा साहिब मिलकर भी त्रिचनापल्ली के दुर्ग को जीत नहीं पाए।
क्लाइव ने कर्नाटक की राजधानी अर्काट पर आक्रमण कर केवल 210 सैनिकों की सहायता से उसे जीत लिया। चाँडा साहिब ने अपनी आधी सेना, अपने पुत्र राजा साहब के नेतृत्व में अर्काट पर अधिकार करने के लिए भेज दी।
क्लाइव ने 53 दिन तक इस सेना का सफल प्रतिरोध किया तथा जून 1752 ई. में घेरा डालने वाली फ्रांसीसी सेना ने अंग्रेजों के आगे हथियार डाल दिए। चाँदा साहब ने भाग कर तंजौर के राजा के यहाँ शरण ली जहाँ उसकी हत्या कर दी गई।
मुहम्मद अली को कर्नाटक का नवाब बनाया गया। इसके बाद यद्यपि विभिन्न स्थानों पर अंग्रेजों तथा फ्रांसिसियों का झगडा चलता रहा किन्तु अब फ्रांसीसी कर्नाटक में हारे हुए युद्ध के लिए लड़ रहे थे।
पाण्डिचेरी की संधि (1755 ई.)और युद्ध की समाप्ति –
समझौता वार्ता के तहत फ्रांसीसी सरकार ने 1754 ई. में अंग्रेजों की यह माँग मान ली कि डूप्ले को भारत से वापस बुला लिया जाए। डूप्ले के उत्तराधिकारी के रूप में गोडह्रू को भारत में फ्रांसीसी प्रदेशों का गर्वनर जनरल नियुक्त किया।
1755 में गोडह्रू ने अंग्रेजों के साथ पाण्डिचेरी की संधि कर ली। इसके साथ ही कर्नाटक का दूसरा युद्ध भी समाप्त हो गया। इस संधि के परिणाम स्वरूप अंग्रेजों की स्थिति बहुत सुरक्षित हो गई।
तृतीय युद्ध (1756 – 63 ई.)
1756 ई. में फ्रांस और ब्रिटेन के मध्य यूरोप में सप्तवर्षीय युद्ध के आरम्भ होते ही भारत में भी दोनों कम्पनियों के बीच की शान्ति समाप्त हो गई। युद्ध के एकदम आरम्भ में ही अंग्रेज बंगाल पर नियंत्रण करने में सफल रहे।
फ्रांसीसी सरकार ने काउन्त लैली ने 1758 ई. में ही फोर्ट सेंट डेविड जीत लिया तथा इसके बाद उसने तंजौर पर आक्रमण करने की आज्ञा दे दी क्योंकि उस पर लाखों राशि बकाया थी किन्तु इसमें उसे सफलता नहीं मिली।
लैली 1760 ई. में वांडिवाश नामक स्थान पर अंग्रेज सेनापति सर आयर कूट से पराजित हो गया और उसे गिरफ्तार कर पाण्डिचेरी लाया गया। जहाँ उसे आत्मसमर्पण हेतु बाध्य किया गया।
इस प्रकार 1761 ई. में फ्रांसीसियों के मुख्य केंद्र पाण्डिचेरी पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया और शीघ्र ही कारिकल, माही, जिंजी आदि स्थान भी फ्रांसीसी के हाथ से निकल गए।
पेरिस की संधि (1763 ई.) और तृतीय कर्नाटक युद्ध का अन्त –
भारत में फ्रांसीसियों के हाथों से सब कुछ जाता रहा किन्तु युद्ध का विधिवत अन्त तब हुआ जब यूरोप में होने वाले आंग्ल फ़्रांसिसी युद्ध का अन्त पेरिस की संधि के अनुसार हो गया।
इस संधि के अनुसार, फ्रांसीसियों को चंद्रनगर के अतिरिक्त उनकी भारत स्थित समस्त फैक्ट्रियाँ लौटा दी गई, किन्तु अब वे उनकी किलेबन्दी नहीं कर सकते थे और ना ही वे सैनिक रख सकते थे।