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आजादी का संग्राम (1857)

आजादी का संग्राम (1857)

आजादी का संग्राम (1857)

विद्रोह के कारण –

आजादी का संग्राम (1857 के विद्रोह) के कारण, सौ वर्षों के इतिहास में निहित थे। विद्रोह के मुख्य कारण निम्नलिखित थे –

राजनीतिक कारण –

अंग्रेजों की साम्राज्य विस्तार की नीति राजनैतिक आचार और नैतिकता की सभी सीमाएँ पार कर गई थी।

सिन्ध और पंजाब के महत्त्व को देखते हुए अपनी कूटनीतिक चालों द्वारा दोनों का अंग्रेजी राज्य में विलय कर दिया।

अवध के रेजिडेंट कर्नल आउट्रम की झूठी सच्ची रिपोर्ट के आधार पर साम्राज्यवादी नीति में विश्वास करने वाले डलहौजी ने अवध पर कुशासन का आरोप लगाकर 1856 में इसे अंग्रेजी राज्य, का अंग बना लिया।

कर्नाटक और तंजौर के राजाओं की उपाधियाँ छीन ली।

सतारा, संबलपुर, झाँसी, नागपुर, बरार, बधात, जैतपुर, उदयपुर, उड़ीसा आदि रियासतों को गोद-प्रथा निषेध के द्वारा कम्पनी राज्य में मिला लिया।

मुगल बादशाह बहादुरशाह के प्रति अंग्रेजों का निंदनीय व्यवहार विद्रोह का एक कारण बना।

लार्ड कैनिंग ने धमकी देते हुए कहा कि “बहादुरशाह की मृत्यु के उपरांत, उसके वंशजों से लाल किला खाली करवा दिया जाएगा। उन्हें कुतुबमीनार के पास रहना पड़ेगा।“

अजेय समझी जाने वाली ब्रिटिश सेना की अफगानिस्तान में पराजय और क्रीमिया में दुर्दशा ने, भारतीयों के इस भ्रम को दूर कर दिया।

प्रशासनिक कारण –

न्याय के क्षेत्र में दोनों का एक दूसरे के प्रति अविश्वास, आजादी का संग्राम 1857 का एक कारण था।

सभी उच्च प्रशासनिक पद अंग्रेजों के लिए आरक्षित कर दिए गए थे।

भारतीयों को सेना में मिलने वाला सबसे बड़ा पद सूबेदार का था।

इसका मासिक वेतन 60-70 रु. तक होता था। असैनिक पद सदर अमीन का होता था, इसे 500 रु. मासिक वेतन मिलता था।

शिक्षित भारतीयों से निम्न स्तर के कार्य करवाये जाते थे। पदोन्नति के अवसर न के बराबर थे।

अतः शासन और शासितों के बीच बढ़ती हुई दूरी भारतीय असंतोष का कारण बनी।

आर्थिक कारण –

अंग्रेजों के लिए भारत एक उपनिवेश मात्र था। यहाँ अंग्रेजों के आगमन के साथ ही कुटीर उद्योगों का पतन प्रारम्भ हो गया था।

कम्पनी ने राजनीतिक सत्ता प्राप्त करते ही भारतीय तैयार माल पर भारी निर्यात कर और कच्चे माल पर कम निर्यात कर का आदेश देकर अधिक लाभ अर्जित किया।

1831 के चार्टर एक्ट के द्वारा ब्रिटिश व्यापारियों को मुक्त व्यापार की छूट देकर, भारत के आर्थिक शोषण की गति को और तीव्र कर दिया गया।

भू-राजस्व सम्बन्धी नियम और अकाल के समय सरकार की लगान वसूली की कठोर नीति से किसानों की स्थिति भी बदतर होती जा रही थी।

कम्पनी ने देशी राज्यों के विलय के बाद, इन राज्यों की सेना की संख्या कम कर दी थी। आर्थिक दृष्टि से असहाय और बेरोजगार ये सैनिक विद्रोह का कारण बन गए।

सामाजिक कारण –

जातीय उच्चता की भावना से प्रेरित अंग्रेज, भारतीयों का अपमान करने का कोई अवसर नहीं चूकते थे।

अंग्रेजों ने भारतीय समाज में स्थापित विभिन्न कुरीतियों को दूर करने हेतु अनेक कानून बनाए।

सती प्रथा, कन्यावध, बाल-विवाह का निषेध किया। विधवा-विवाह को कानून संगत बताया।

अंग्रेजों द्वारा की गई इस छेड़-छाड़ को समाज ने अनुचित बताया।

जब अंग्रेजों द्वारा आधुनिकीकरण के नाम पर रेल, तार आदि के वैज्ञानिक प्रयोगों का भारत में विस्तार किया गया तो अशिक्षित और रूढ़िवादी भारतीयों ने इसे शंका की दृष्टि से देखा।

स्पष्ट है संदेह के इस वातावरण में अंग्रेजों द्वारा किए गए, समस्त कार्य हिन्दुओं की सामाजिक अवस्था और परंपरागत मूल्यों पर प्रहार थे।

धार्मिक कारण –

भारत में कम्पनी राज्य की स्थापना के पश्चात्, अंग्रेजों का प्रमुख उद्देश्य धन प्राप्ति के साथ-साथ यहाँ की जनता को ईसाई धर्म में दीक्षित करना भी था।

भारत में 1813 के चार्टर एक्ट के द्वारा ईसाई मिशनरियों को धर्म के प्रचार की छूट दी गई।

स्कूलों में बाइबिल की शिक्षा अनिवार्य थी।

सर सैय्यद अहमद खां ने विद्या के कार्यालयों को शैतानी दफ्तर की संज्ञा दी।

ईसाई धर्म स्वीकार करने पर अनेक सुविधाएँ दी जाती तथा पदोन्नति का लालच भी दिया जाता था।

कम्पनी सरकार की ये नीतियाँ भारतीयों के लिए असहनीय थी।

सैनिक कारण –

आजादी का संग्राम (1857) का प्रमुख कारण सैनिकों की कुण्ठा और असंतोष था।

भारतीय सैनिकों को सूबेदार से ऊँचा पद नहीं दिया जाता था।

वेतन, भत्ते, पदोन्नति में भी इनके उपेक्षापूर्ण व्यवहार किया था।

सैनिकों की धार्मिक भावनाओं पर ठेस पहुंचाई जाती थी।

दाढ़ी, सफा, टीका आदि जातीय चिह्नों पर प्रतिबन्ध लगाए गए।

सैनिकों को जूतों, पैरों और बंदूकों की नोंक से मार कर अपमानित किया जाता था।

स्पष्ट है जो सैनिक अन्ग्रेनी राज्य के विस्तार में सहायक बने, अब वे ही उसके विनाश के लिए विद्रोह का प्रमुख कारण बन गए थे।

तात्कालीन कारण –

1857 में सैनिकों का असंतोष चरम सीमा पर था। सामाजिक और धार्मिक पहलुओं ने स्थिति को और विस्फोटक बना दिया था।

यद्यपि विद्रोह की क्रियान्वित एक साथ सम्पूर्ण भारत में 31 मई को होनी निश्चित की गई थी, किन्तु एनफिल्ड राइफल में चर्बी लगे कारतूसों के प्रयोग को लेकर विद्रोह समय से पूर्व ही फूट पड़ा।

कारतूस को प्रयोग करने से पूर्व इसके ऊपर लगे चिकने कागज को मुँह से काटना पड़ता था।

इस कागज पर गाय व सुअर की चर्बी का लेप था इससे हिन्दू और मुसलमान सैनिकों की धार्मिक भावनाएं आहत होती थी।

अतः सैनिकों ने इसके प्रयोग से इन्कार कर दिया।

घटनाएँ और प्रसार

26 फरवरी, 1857 को बुरहानपुर के सैनिकों ने कारतूसों के प्रयोग से इन्कार कर दिया।

उन्हें अनुशासनहीनता के जुर्म में दण्ड दिया गया।

29 मार्च को बैरकपुर की 34वीं रेजिमेन्ट के मंगल पाण्डे ने एक अंग्रेज अधिकारी को गोली मर कर और दो अन्य को घायल कर विद्रोह की शुरुआत की।

मंगल पाण्डे को फांसी की सजा सुनाई गई तथा सेना में भय पैदा करने के लिए इसकी सूचना सभी छावनियों में भी पहुंचा दी गई।

24 अप्रेल को मेरठ की घुड़सवार सेना ने भी इन कारतूसों के प्रयोग से मना कर दिया।

अतः इस रेजिडेन्ट के 90 सैनिकों को बर्खास्त कर दिया और 9 मई को इनमें से 85 सैनिकों को 10 साल की सजा दी गई।

जिसके कारण 10 मई को मेरठ की सम्पूर्ण सेना ने विद्रोह कर दिया।

12 मई को दिल्ली पर विद्रोहियों का अधिकार हो गया।

विद्रोहियों ने मुगल बादशाह के नेतृत्त्व में ब्रिटिश नियंत्रण से मुक्ति का संघर्ष जारी रखा।

दिल्ली के दक्षिण पश्चिम स्थित उप नगरों में हिंसात्मक घटनाएँ घटित हुई।

अलीगढ़, इटावा, बुलंदशहर, नसीराबाद, नीमच, बरेली, मुरादाबाद, शाहजहांपुर, आदि अनेक स्थानों में भी विद्रोह फूट पड़ा।

जून के प्रारम्भ तक मेरठ और दिल्ली के अतिरिक्त सारे उत्तर पश्चिमी प्रान्त, ब्रिटिश नियंत्रण से मुक्त हो गए थे।

लखनऊ, कानपुर, झाँसी और ग्वालियर विद्रोह के प्रमुख केंद्र बन गए थे।

अवध के नवाब वाजिदअली शाह की बेगम हजरत महल भी मुगल सम्राट की अपील पर विद्रोह में शामिल हो गई।

30 मई को लखनऊ में विद्रोह की अग्नि भड़क उठी।

ब्रिटिश रेजिडेन्ट सर हेनरी लोरेंस ने सभी अंग्रेज अधिकारियों तथा कुछ भारतीय राजभक्त सैनिकों के साथ रेजीडेंसी में शरण ली।

विद्रोहियों ने रेजीडेंसी पर आक्रमण कर उसे घेर लिया। 

इस घेरे में विस्फोट से लोरेंस की मृत्यु हो गई, लखनऊ में विद्रोहियों को अपने प्रारंभिक प्रयासों में सफलता प्राप्त हुई।

लेकिन कॉलिन कैम्पबेल के आने पर यहाँ न केवल यूरोपियन्स की रक्षा हुई, अपितु मार्च, 1858 में लखनऊ पर पुनः ब्रिटिश अधिकार की भी स्थापना हुई।

बेगम हजरत महल नेपाल जाकर भूमिगत हो गई।

तांत्या टोपे की सहायता से कानपुर में नाना साहब ने स्वयं को पेशवा घोषित कर दिया।

ब्रिटिश शिविर पर अधिकार कर, अंग्रेज स्री, पुरुष और बच्चों को मौत के घाट उतार दिया गया, लेकिन कॉलिन कैम्पबेल ने कानपुर पर भी ब्रिटिश अधिकार की स्थापना की।

नाना साहब नेपाल चले गए और तांत्या झाँसी में रानी लक्ष्मी बाई से जा मिले।

झाँसी में भी विद्रोहियों ने छावनी में लूटपाट की।

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्त्व में झाँसी की सुरक्षा संभव न हो सकी, तो रानी कालपी होते हुए तांत्या के साथ ग्वालियर पहुँची।

ग्वालियर में रानी अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ते हुए वीर गति को प्राप्त हुई।

ग्वालियर में सिंधिया और उसके मंत्री दिनकर राव ने विद्रोह के दमन में अंग्रेजों का साथ दिया।

जुलाई, 1857 में इंदौर, मह सागर, जालंधर, अम्बाला आदि अनेक स्थानों में विद्रोह फैल गया।

राजस्थान में कोटा में भी विद्रोह तीव्रता लिए हुए था।

अप्रैल, 1858 में जगदीशपुर के जमींदार 70 वर्षीय कुंवर सिंह ने विद्रोहियों का नेतृत्त्व किया और ब्रिटिश सेना को शिकस्त थी, लेकिन शीघ्र ही अंग्रेजों ने जगदीशपुर पर विजय प्राप्त कर अपनी हार का बदला लेते हुए मंदिर और महल को तहस-नहस कर दिया

बनारस में भी विद्रोह और विद्रोहियों को कर्नल नील और उसकी सेना की कठोरता का सामना करना पड़ा।

विद्रोह की विफलता

आजादी का संग्राम (1857) के संचालन में निश्चित योजना और लक्ष्य की एकरुपता का आभाव था।

विद्रोही नेता एक दूसरे को सहयोग न दे सके।

विद्रोह देशव्यापी न बन सका।  विस्तार मुख्य रुप से उत्तरी भारत तक ही सीमित रहा।

बंगाल, दक्षिण भारत के साथ-साथ पूर्वी भारत भी विद्रोह से अछूता रहा।

राजा और जमींदार राजभक्त बने रहे।

उन्होंने विद्रोह के दमन में अंग्रेजों का साथ दिया।

विद्रोह के लिए योग्य नेतृत्त्व की क्षमता किसी में नहीं थी और साधन भी सीमित थे।

अस्र शस्र, गोला बारूद, रसद, राईफल, तोपखाने आदि के आभाव में विद्रोही एक दूसरे की सहायता करने में असमर्थ थे।

आवागमन और संचार के साधन भी विद्रोह को दबाने में अंग्रेजों के लिए महत्त्वपूर्ण साधन बने हुए थे।

विद्रोह की असफलता में सैनिकों की अनुशासनहीनता भी प्रमुख थी।

क्रांतिकारियों ने कैदियों को बंदीगृह से मुक्त कर समाज में भय फैला दिया।

अंग्रेजों की कूटनीतिज्ञता विद्रोह की असफलता का एक बहुत बड़ा कारण थी।

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