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आंग्ल-मैसूर युद्ध

आंग्ल-मैसूर युद्ध

आंग्ल-मैसूर युद्ध

मैसूर राज्य व अंग्रेजों के बीच हुए संघर्ष को आंग्ल-मैसूर युद्ध के नाम से जाना जाता है।

इनके मध्य 1767 से 1799 तक 4 युद्ध लड़े गए जो निम्नानुसार हैं –

प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध (1767-69 ई.)

प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध के कारण –

यह प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध मद्रास सरकार द्वारा दक्षिण की राजनीति में भाग लेने के कारण हुआ।

हैदराबाद के निजाम ने 1765 ई. में हैदरअली के विरुद्ध अंग्रेजों से सहायता माँगी और उत्तरी सरकार के इलाके को प्राप्त करने के बदले में अंग्रेज निजाम को सहायता देने के लिए तैयार हो गए।

1766 में मराठों ने मैसूर पर आक्रमण किया किन्तु हैदर अली ने बहुत चालाकी से काम लिया।

मराठों को 35 लाख रूपये देने का वादा कर आधा धन तुरंत दे दिया तथा

आधे धन के बदले में कोलार के जिले को रहन के रूप में मराठों को दे दिया।

युद्ध का आरम्भ (1767 ई.) और घटनाएँ

निजाम और अंगेजों ने अप्रैल 1767 ई. में हैदरअली पर आक्रमण किया लेकिन मई 1767 में निजाम हैदर की ओर मिल गया।

सितम्बर 1767 में ब्रिटिश सेनापति स्मिथ को हैदर अली तथा निमाज की सम्मिलित सेनाओं से युद्ध करना पड़ा तथा त्रिनोपली वापस लौटना पड़ा जहाँ कर्नल वुड की सेना भी उसके साथ हो गई।

त्रिनोपली के युद्ध में निजाम और हैदर अली की सेनाओं को असफलता मिली और

दिसम्बर 1767 में हैदर अली की एक अन्य स्थान पर भी हार हुई।

इन असफलताओं को देखकर और यह जानकर की अंग्रेज हैदराबाद पर भी आक्रमण करने के लिए सेना भेज रहे हैं,

निजाम का साहस टूट गया और मार्च 1768 में उसने पुनः अंग्रेजों से संधि कर ली।

निजाम के साथ मद्रास सरकार द्वारा की गई यह संधि अंग्रेजों और

मैसूर राज्य के बीच स्थाई झगड़े का कारण बनी

क्योंकि इस संधि के पश्चात् हैदर अली को अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ा।

मार्च 1768 ई. में अंग्रेजों ने मंगरोल के दुर्ग पर अधिकार कर लिया

लेकिन हैदर अली ने शीघ्र ही उस पर पुनः नियन्त्रण स्थापित कर लिया।

इससे हैदर की सैनिक प्रतिष्ठा बढ़ी तथा उसका अंग्रेजों के विरूद्ध लड़ने का निश्चय भी दृढ हुआ।

1768 ई. के अंत तक हैदर विभिन्न स्थानों पर पुनः नियन्त्रण स्थापित कर सका।

विजयी होकर हैदर ने अंग्रेजों से संधि वार्ता आरम्भ की।

यह वार्ता दिसम्बर 1768 ई. से अप्रैल 1769 ई. तक चलती रही।

डेढ़ वर्ष के अनिर्णायक युद्ध के पश्चात् हैदर अली ने अंग्रेजों के विरुद्ध बाजी उलट दी तथा मद्रास को घेर लिया।

मद्रास सरकार विवशता की स्थिति में थी अतः भयभीत अंग्रेजों को हैदर के साथ संधि करनी पड़ी।

मद्रास की संधि (अप्रैल 1769 ई.) और प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध का अंत-

4 अप्रैल, 1769 ई. को हैदर अली तथा अंग्रेजों के मध्य जो संधि हुई उसकी प्रमुख बातें-

  • दोनों पक्षों ने एक दूसरे के जीते हुए क्षेत्र लौटा दिए।
  • हैदर अली के पास करुर का क्षेत्र रहने दिया गया।
  • हैदर अली ने 205 अंग्रेज युद्धबंदियों को छोड़ दिया।
  • अंग्रेजों तथा हैदर अली ने एक दूसरे को किसी भी बाह्य आक्रमण के अक्सर पर परस्पर सहायता देने का वादा किया।
  • मद्रास सरकार को इस युद्ध से कोई लाभ नहीं हुआ।

1771 ई. में मराठा पेशवा माधवराव ने मैसूर पर आक्रमण किया और

हैदर द्वारा सहायता माँगने पर भी अंग्रेजों ने उसकी सहायता नहीं की।

हैदर को पराजित होकर मराठों को भारी धनराशि देनी पड़ी।

द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1780-84 ई.)

द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध के कारण –
  • अंग्रेजों ने हैदर को ‘गंटूर सरकार’ के प्रश्न पर लड़ने के लिए बाध्य किया।
  • हैदर की अनुमति के बिना ही अंग्रेंजी सेनाओं को मद्रास सरकार ने मैसूर राज्य से जाने का आदेश दिया।
  • जब हैदर अली की सेना ने अंग्रेजी सेना का विरोध किया तो मद्रास सरकार ने इसे शत्रुता पूर्ण कार्य कहा।
  • युद्ध का एक अन्य कारण हेस्टिंग्स की साम्राज्यवादी महत्वकांक्षा थी।
  • उसने मद्रास सरकार के साथ हैदर के 1778 ई. में संधि स्थापना के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।
  • अंग्रेजी नीति ने दक्षिण भारतीय शक्तियों को संगठित होने का अवसर दिया।
  • हैदर अली अंग्रेजों से पहले ही असंतुष्ट था जबकि अंग्रेजों ने 1768 में निजाम के साथ की गई संधि के अनुसार उत्तरी सरकार के जिलों के बदले सात लाख रूपये वार्षिक देने के वादे को भी पूरा नहीं किया और बसालत जंग से गंटूर का जिला छीन लिया।
द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध का आरम्भ और घटनाएँ –

फरवरी 1780 में अंग्रेज विरोधी गुट में शामिल होने के बाद हैदर अली ने तय योजना के अनुसार जुलाई 1780 में 83000 सैनिकों तथा 100 तोपों के साथ कर्नाटक के मैदान में प्रवेश किया।

मद्रास सरकार ने एक सेना कर्नल बेली और दूसरी बक्सर युद्ध के विजेता हैक्टर मुनरो के नेतृत्त्व में हैदर अली को आगे बढ़ने से रोकने के लिए भेजी।

टीपू ने इन दोनों सेनाओं को मिलने से रोका।

कांजीवरम के निकट बेली के साथ हुए युद्ध में बेली मारा गया।

मुनरो, जो कांजीवरम में बेली का इन्तजार कर रहा था इतना घबराया की उसने मद्रास में जाकर शरण ली।

अक्टूबर 1780 में हैदर अली ने अकार्ट पर अधिकार कर लिया।

जुलाई 1781 ई. में अंग्रेजी सेनाध्यक्ष सर आयरकूट अवश्य हैदर अली को पोर्तोनोवा के स्थान पर हराया किन्तु कूट को इस सफालता से कोई लाभ प्राप्त नहीं हुआ।

सितम्बर 1781 में आयरकूट ने हैदर अली को सोलिंगपुर के युद्ध में परास्त किया और नवम्बर में अंग्रेजों ने निगापट्टम पर अधिकार कर लिया।

7 दिसम्बर, 1782 ई. को केन्सर से हैदर अली की मृत्यु हो गई।

हैदर की मृत्यु के बाद उसके बेटे टीपू सुल्तान ने युद्ध जरी रखा।

टीपू सुल्तान ने ब्रिगेडियर मैथ्यूज को मंगलोर और बदनौर पर आक्रमण करने से रोक कर बहुत से सैनिकों के साथ कैद कर लिया।

यूरोप में फ़्रांस तथा ब्रिटेन के मध्य पेरिस की संधि (1783) हो गई तथा फ़्रांसिसी इस संघर्ष से अलग हो गए।

अंग्रेजों ने पाल घाट तथा कोयंबटूर पर अधिकार कर लिया।

किन्तु जब कर्नल फुलर्टन मैसूर की राजधानी श्रीरंगपट्टम की ओर बढ़ रहा था तभी उसे मद्रास सरकार ने वासप बुला लिया। क्योंकि आर्थिक संसाधनों की अत्यधिक कमी के कारण मद्रास का गवर्नर मैकार्टने संधि के लिए उत्सुक था।

जब फ़्रांसिसी यूरोप में अंग्रेजों से समझौता कर चुके थे,

मराठों तथा अंग्रेजों में साल्बाई की संधि हो गई थी और निजाम भी अंग्रेजों की ओर जा मिला था।

अकेले संघर्षरत टीपू ने भी अंग्रेजों से संधि करना उचित समझा परिणामस्वरूप दोनों पक्षों में मंगलोर की संधि हो गई।

मंगलोर की संधि (मार्च 1784 ई.)और द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध की समाप्ति –
  • दोनों पक्षों ने एक दूसरे के जीते हुए प्रदेश लौटा दिए तथा टीपू ने अंग्रेज बंदियों को छोड़ दिया।
  • टीपू ने अपने राज्य में अंग्रेजों को कोई व्यापारिक अधिकार प्रदान नहीं किए।
  • वारेन हैस्टिंग्स संधि से संतुष्ट नहीं था और इंग्लेंड में बोर्ड ऑफ कंट्रोल ने युद्ध के पुनः आरम्भ होने के बुरे परिणाम को सोचकर संधि को स्वीकार कर लिया था।

तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1790-92 ई.)

तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध के कारण –
  • भारत में अंग्रेजों की प्रधानता स्थापित करने के लिए कार्नवालिस यह आवश्यक समझता था कि टीपू को पराजित किया जाए,  क्योंकि समकालीन भारतीय शासकों में टीपू सबसे अधिक योग्य, शक्तिशाली था व उसका राज्य भी संपन्न था।
  • टीपू ने भी अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध को अवश्यंभावी मानते हुए अपनी स्थिति को दृढ करने के लिए उसने जुलाई 1787 में फ़्रांस व टर्की में अपने राजदूत भेजे।यद्यपि दोनों स्थानों से केवल आश्वासन ही मिला। इसकी वजह से कार्नवालिस ने समझा की टीपू अंग्रेजो की शक्ति को नष्ट करने के लिए कृत संकल्प था।
  • ट्रावनकोर पर टीपू द्वारा किया गया आक्रमण भी दोनों पक्षों में झगड़े का कारण बना। टीपू के बढ़ते हुए प्रभुत्व को रोकने के लिए ट्रावनकोर के शासक ने कांगनूर व आइकोटा दुर्गो को डच गवर्नर से खरीद लिया जबकि टीपू स्वयं उन्हें खरीदना चाहता था।
  • टीपू ने ट्रावनकोर के शासक के इस कार्य को अपनी सत्ता में हस्तक्षेप मानते हुए उसने अप्रैल 1790 में ट्रावनकोर पर आक्रमण कर दिया।अंग्रेजों ने इस युद्ध में ट्रावनकोर के राजा का पक्ष लिया।
  • 1 जून, 1790 ई. को मराठों के साथ तथा 4जुलाई, 1790 ई. को निजाम के साथ अंग्रेजों ने मैत्री संधि कर ली जिनके अनुसार मराठा तथा निजाम दोनों ने टीपू के विरुद्ध युद्ध में अंग्रेजों की सैनिक टुकड़ियों के साथ सहायता करने का वादा किया।
तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध का आरम्भ तथा घटनाएँ –

अप्रैल 1790 ई. में टीपू द्वारा ट्रावनकोर पर आक्रमण के बाद कार्नवालिस ने एक बड़ी सेना की सहायता से मद्रास के गवर्नर मिडोज के नेतृत्त्व में मैसूर पर आक्रमण का निर्णय लिया किन्तु यह अभियान पूर्णतः विफल रहा।

कार्नवालिस ने टीपू को आशा से अधिक शक्तिशाली पाया और

इसलिए उसे स्वयं मद्रास पहुँचने और सेना का नेतृत्त्व सम्भालने के लिए विवश होना पड़ा।

कार्नवालिस ने वैलोर और अम्बर की ओर से बंगलौर की ओर बढ़ना शुरू किया और

मार्च 1791 ई. में बंगलौर पर अधिकार कर लिया।

मई तक अंग्रेजी सेनाएं श्रीरंगपट्टनम से एक मील दूर रह गई थी

परन्तु टीपू ने इस समय बहुत साहस और कुशल सेनापतित्व का परिचय दिया।

अंग्रेजी सेना में बीमारी फ़ैल जाने तथा खाद्य सामग्री के कम हो जाने से कार्नवालिस को पीछे हटना पड़ा।

फरवरी 1792 में कार्नवालिस ने श्रीरंगपट्टनम पर घेरा डाला।

टीपू ने अत्यंत कुशल सैन्य संचालन का परिचय दिया किंतु अंग्रेजी सेनाएँ श्रीरंगपट्टनम के किले की दीवार तक आ पहुँची।

हताश होकर टीपू को संधि की बातचीत आरम्भ करनी पड़ी और मार्च 1792में संधि हो गई।

श्रीरंगपट्टनम की संधि (मार्च 1792 ई.) आंग्ल-मैसूर युद्ध की समाप्ति –
  • टीपू का लगभग आधा राज्य उससे छीन लिया गया।
  • अंग्रेजों को कुर्ग के राजा पर आधिपत्य प्राप्त हुआ।
  • टीपू को 4 करोड़ रूपये युद्ध के हरजाने के रूप में देने पड़े।
  • जब तक हरजाना न चूका किया जाए, टीपू के दो पुत्र अंग्रेजों के पास बंधक के रूप में रखे गए।

चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध (1799 ई.)

युद्ध के कारण –
  1. टीपू अपनी पराजय को स्वीकार नहीं कर पा रहा था इसलिए श्रीरंगपट्टनम की संधि के बाद वह पुनः अपनी स्थिति को मजबूत करने में लग गया।
  2. 1796 में मैसूर के नाममात्र के राजा की मृत्यु के बाद टीपू ने उसके अल्पवयस्क पुत्र को नाममात्र का शासक भी नहीं बनाया।
  3. भारत का नया गवर्नर जनरल लार्ड वेलेजली साम्राज्यवादी नीति का प्रबल पक्षधर था और उसकी आक्रामक नीति ही चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध के लिए मुख्यतः जिम्मेदार थी।
  4. टीपू द्वारा मैसूर में 99 फ्रांसीसियों के सार्वजनिक सम्मान किए जाने को वेलेजली ने जुलाई 1798 में ही युद्ध की घोषणा के समान माना था।
  5. वेलेजली ने दृढ निश्चय किया था की या तो टीपू को पूर्णतया समाप्त कर दिया जाए अथवा उसे पूर्णतया अंग्रेजों के अधीन कर लिया जाए।
चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध का आरम्भ और घटनाएँ –

जनरल हैरिस और आर्थर वेलेजली के नेतृत्त्व में एक सेना ने फरवरी 1799 में वैलोर से चलकर मार्च 1799 में मैसूर पर आक्रमण कर दिया।

पश्चिम से एक दूसरी सेना ने जनरल स्टुअर्ट के नेतृत्त्व में मैसूर पर आक्रमण किया।

जनरल स्टुअर्ट ने टीपू को सीदासीर और जनरल हैरिस ने टीपू को मालवेली के युद्ध में परास्त किया।

अब दीपू को श्रीरंगपट्टनम के किले में शरण लेने के लिए बाध्य होना पड़ा।

17अप्रैल, अप्रैल, 1799 को श्रीरंगपट्टनम का घेरा डाल दिया गया व

4 मई, 1799 को उस पर अधिकार कर लिया गया।

टीपू अपने किले पर युद्ध करते हुए मारा गया और उसके बेटों ने अंग्रेजों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया।

टीपू की राजधानी श्रीरंगपट्टनम अंग्रेजी सेना के नियन्त्रण में चली गई।

उसका समस्त राज्य क्षेत्र अंग्रेजों के नियन्त्रण में चला गया।

मैसूर का राजनीतिक निर्णय –

मैसूर का एक छोटा सा राज्य स्थापित किया गया जिसका शासक पुराने चले आ रहे वाडियारवंश के दो वर्षीय कृष्णराजा को बनाया गया।

निजाम को उत्तर पूर्व में अपनी सीमाओं के निकट का भूभाग प्राप्त हुआ

जिसमें गूटी, गुरूमकोंडा और उसके किले को छोड़कर चित्तलदुर्ग के किले सम्मिलित थे।

मराठा पेशवा द्वारा अंग्रेजों के साथ सहायक संधि कर लेने की शर्त पर मैसूर राज्य के कुछ क्षेत्र मराठों को भी देने का प्रस्ताव किया गया

किन्तु मराठों ने यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया अतः यह क्षेत्र भी कम्पनी व निजाम के मध्य बाँट लिया गया।

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