अध्याय 7 हाशियाकरण की समझ
Table of Contents
हाशियाई का मतलब होता है कि जिसे किनारे या हाशिये पर ढकेल किया गया हो। ऐसे में वह व्यक्ति चीजों के केंद्र में नहीं रहता। समाज में भी कुछ ऐसे समूह या समुदाय होते हैं जिन्हें बेदखली का अहसास रहता है। उनके हाशियाकरण की वजह यह हो सकती है कि वे एक अलग भाषा बोलते या समझ रखते हैं, अलग रीति-रिवाज अपनाते हैं या बहुसंख्यक समुदाय के मुकाबले किसी दुसरे धर्म के है।
आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक सभी दायरे समाज के कुछ तबकों को हाशियाई महसूस करने के लिए विवश करते हैं।
आदिवासी कौन लोग है?
आदिवासी शब्द का अर्थ होता है ‘मूल निवासी’।
ये ऐसे समुदाय हैं जो जंगलों के साथ जीते आए हैं और आज भी उसी तरह जी रहे हैं।
भारत की लगभग 8 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है।
आदिवासियों को जनजाति भी कहा जाता है।
भारत में लगभग 500 से ज्यादा तरह के आदिवासी समूह हैं।
अकेले उड़ीसा में ही 60 से ज्यादा अलग-अलग जनजातीय समूह रहते हैं।
आदिवासी समाज औरों से बिल्कुल अलग दिखाई देते हैं क्योंकि उनके भीतर ऊँच-नीच का फर्क बहुत कम होता है।
उनके धर्म हिन्दू, ईसाई, मुस्लिम आदि धर्मों से बिल्कुल अलग हैं।
वे अकसर अपने पुरखों की, गाँव और प्रकृति की उपासना करते हैं।
प्रकृति से जुड़ी आत्माओं में पर्वत, नदी, पशु आदि की आत्माएँ हैं।
ग्राम आत्माओं की अकसर गाँव की सीमा के भीतर निर्धारित पवित्र लता-कुंजों में पूजा की जाती है
जबकि पुरखों की उपासना घर में ही की जाती है।
उन्नीसवीं सदी में बहुत सारे आदिवासीयों ने ईसाई धर्म अपनाया जो आधुनिक आदिवासी इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण धर्म बन गया है।
आदिवासियों की अपनी भाषाएँ रही है। इनमें संथाली बोलने वालों की संख्या सबसे ज्यादा है।
सरकारी दस्तावेजों में आदिवासियों के लिए अनुसूचित जनजाति शब्द का इस्तेमाल किया जाता है।
आदिवासी समुदायों की एक सरकारी सूची भी बनाई गई है।
आदिवासी और प्रचलित छवियाँ
स्कूल के उत्सवों, सरकारी कार्यक्रमों या किताबों व फिल्मों में रंग-बिरंगे कपड़े पहने, सिर पर मुकुट लगाए और हमेशा नाचते-गाते दिखाई देते हैं। बहुत सारे लोग इस ग़लतफ़हमी का शिकार हो जाते हैं कि उनका जीवन बहुत आकर्षक, पुराने किस्म का और पिछड़ा हुआ है।
खास समुदायों को बनी-बनाई छवियों में देखते चले जाने की वजह से इस तरह के समुदायों के साथ अक्सर भेदभाव होने लगता है।
आदिवासी और विकास
उन्नीसवीं सदी के आखिर तक हमारे देश का बड़ा हिस्सा जंगलों से ढका हुआ था।
और कम से कम उन्नीसवीं सदी के मध्य तक तो इन विशाल भूखंडों का आदिवासीयों के पास जबरदस्त ज्ञान था।
उनका जंगलों पर पूरा नियन्त्रण भी था।
आज उन्हें हाशियाई और शक्तिहीन समुदाय के रूप में देखा जाता है।
औपनिवेशिक शासन से पहले आदिवासी समुदाय शिकार और चीजें बीनकर आजीविका चलाते थे।
आर्थिक बदलावों, वन नीतियों और राज्य व निजी उद्योगों के राजनीतिक दबाव की वजह से इन लोगों को बागानों, निर्माण स्थलों, उद्योगों और घरों में नौकरी करने के लिए ढकेला जा रहा है।
झारखंड और आसपास के इलाकों के आदिवासी 1830 के दशक से ही बहुत बड़ी संख्या में भारत और दुनिया के अन्य इलाकों- मोरिशस, कैरिबियन और यहाँ तक कि आस्ट्रेलिया में जाते रहे हैं।
भारत का चाय उद्योग असम में उनके श्रम के बूते ही अपने पैरों पर खड़ा हो पाया है।
आज अकेले असम में 70 लाख आदिवासी हैं।
संसाधनों का उपयोग
आदिवासियों के इलाकों में खनिज पदार्थों और अन्य प्राकृतिक संसाधनों की भी भरमार रही है।
जनजातीय भूमि पर कब्ज़ा करने के लिए ताकतवर गुटों ने हमेशा मिलकर काम किया है।
सरकारी आँकड़ों से पता चलता है कि खनन और खनन परियोजनाओं के कारण विस्थापित होने वालों में 50 प्रतिशत से ज्यादा केवल आदिवासी रहे हैं।
अपने परंपरागत निवास स्थानों के छिनते जाने की वजह से बहुत सारे आदिवासी काम की तलाश में शहरों का रुख कर रहे हैं।
वहाँ उन्हें छोटे-मोटे उद्योगों, इमारतों या निर्माण स्थलों पर बहुत कम वेतन वाली नौकरियाँ करनी पड़ती हैं।
ग्रामीण इलाकों में 45 प्रतिशत और शहरी इलाकों में 35 प्रतिशत आदिवासी समूह गरीबी की रेखा से नीचे गुजर बसर करते हैं।
उनके बहुत सारे बच्चे कुपोषण के शिकार रहते हैं।
आदिवासियों में साक्षरता दर भी कम है।
आदिवासी लगभग 10,000 तरह के पौधों का इस्तेमाल करते हैं।
उनमें से लगभग 8,000 प्रजातियाँ दवाइयों के तौर पर, 325 प्रजातियाँ कीटनाशकों के तौर पर,
425 प्रजातियाँ गोंद, रेजिन और डाई के तौर पर और 550 प्रजातियाँ रेशों के लिए इस्तेमाल की जाती हैं।
इनमें से 3500 प्रजातियाँ भोजन के रूप में इस्तेमाल होती हैं।
जब आदिवासी समुदाय वन भूमि पर अपना अधिकार खो देते हैं
तो यह सारी ज्ञान संपदा भी खत्म हो जाती है।
अल्पसंख्यक और हाशियाकरण
हमारा संविधान धार्मिक और भाषायी अल्पसंख्यकों को सुरक्षा प्रदान करता है।
अल्पसंख्यक शब्द आमतौर पर ऐसे समुदायों के लिए इस्तेमाल किया जाता है जो संख्या की दृष्टि से बाकी आबादी के मुकाबले बहुत कम हैं।
कुछ खास परिस्थितियों में छोटे समुदाय अपने जीवन, संपत्ति और कुशलक्षेम के बारे में असुरक्षित भी महसूस कर सकते हैं।
मुसलमान और हाशियाकरण
मुसलमानों के आर्थिक व सामाजिक हाशियाकरण के कई पहलू हैं।
दूसरे अल्पसंख्यकों की तरह मुसलमानों के भी कई रीति-रिवाज और व्यवहार मुख्यधारा के मुकाबले काफी अलग हैं।
कुछ मुसलमानों में बुर्का, लंबी दाढ़ी और फैज टोपी का चलन दिखाई देता है।
सच्चर समिति रिपोर्ट ने मुसलमानों के बारे में प्रचलित दूसरी गलतफहमियों को भी उजागर कर दिया है।
आमतौर पर माना जाता है कि मुसलमान अपने बच्चों को सिर्फ मदरसों में भेजना चाहते हैं।
आंकड़ों से पता चलता है कि केवल 4 प्रतिशत मुसलमान बच्चे मदरसों में जाते हैं।
66 प्रतिशत बच्चे सरकारी और 30 प्रतिशत बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं।