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हर्षवर्धन का साम्राज्य

हर्षवर्धन का साम्राज्य

हर्षवर्धन का साम्राज्य

गुप्त साम्राज्य के पतन के साथ ही अनेक स्वतंत्र राज्यों का उदय हुआ। इन राज्यों में वर्धन वंश के थानेश्वर राज्य के शासकों का वर्णन मधुबन प्रशस्ति में प्राप्त होता है। हर्षवर्धन के अभिलेखों में उसके केवल चार पूर्वजों- नरवर्धन, राज्यवर्धन, आदित्यवर्धन तथा प्रभाकरवर्धन का उल्लेख मिलता है। थानेश्वर के चतुर्थ शासक प्रभाकरवर्धन के पुत्र  हर्षवर्धन वर्धन वंश के प्रमुख शक्तिशाली एवं प्रसिद्ध शासक थे।

हर्षवर्धन का सिंहासनारोहण

हर्ष का जन्म 590 ई. के लगभग हुआ। 16 वर्ष की उम्र में 606 ई. में हर्षवर्धन सिंहासनारूढ़ हुआ। हर्ष का उदय उन परिस्थितियों में हुआ जब उत्तरी भारत की दशा शोचनीय थी। हर्षवर्धन की विधवा बहन राज्य श्री कन्नौज के मौखरी वंश की रानी का सरंक्षक होने के नाते हर्ष ने कन्नौज पर भी अधिकार कर लिया। थानेश्वर के बाद हर्षवर्धन ने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया।

हर्षवर्धन का साम्राज्य विस्तार –

हर्ष का पहला अभियान वल्लभी नरेश ध्रुवसेन द्वितीय के विरुद्ध था। संघर्ष में ध्रुवसेन पराजित हो गुर्जर नरेश की शरण में चला गया और कुछ समय पश्चात् उसकी सहायता से पुनः अपने राज्य पर अधिकार कर लिया। हर्षवर्धन ने अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर मैत्री-सम्बन्ध स्थापित कर लिए।

उसके बाद अपने भाई की हत्या का बदला लेने के लिए हर्ष ने बंगाल के शासक शशांक पर आक्रमण किया किन्तु हर्ष को 619 ई. तक सफलता नहीं मिली। संभवतः हर्षवर्धन ने 619 ई. के पश्चात् बंगाल पर आक्रमण कर उसे अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया।

हर्ष का दक्षिण के सर्वाधिक प्रभावशाली सम्राट पुलकेशिन द्वितीय के साथ भी संघर्ष हुआ, क्योंकि मालवा व गुजरात में हर्षवर्धन व पुलकेशिन द्वितीय की साम्राज्य विस्तार की योजनाएं टकराती  थी। इस अभियान में हर्षवर्धन ने स्वयं सेना का संचालन किया, किन्तु अपार क्षति उठाते हुए उसे पीछे हटना पड़ा।

हर्षवर्धन के अन्य अभियान मालवा, सिंध और उड़ीसा के विरुद्ध थे। मालवा के शासक देवगुप्त ने पराजित होने के पश्चात् हर्ष की अधीनता स्वीकार कर ली। कामरूप आसाम के शासक भास्कर वर्मन ने हर्ष की अधीनता स्वीकार कर ली थी और इसी प्रकार से गंजाम उड़ीसा के शासक ने भी हर्ष की अधीनता मान ली थी।

हर्ष के अभियानों का परिज्ञान ह्वेनसांग के वृत्तान्त, अभिलेखों, हर्षचरित व विभिन्न ग्रंथों से मिलता है।

हर्षवर्धन का शासन प्रबंध –

हर्षवर्धन ने गुप्तकालीन शासन-व्यवस्था को आधार मानकर उस शासन प्रणाली में परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन करके अपनी शासन प्रणाली का निर्माण किया। हर्षकालीन शासन व्यवस्था को हम निम्नलिखित भागों में विभक्त कर जानकरी प्राप्त करते हैं –

(1) केन्द्रीय शासन –

राज्य का सर्वोच्च पदाधिकारी राजा स्वयं था। राजा के दैवीय सिद्धान्तों को मान्यता थी, लेकिन इसका तात्पर्य राजा का निरंकुश होना न था। बड़े-बड़े अधिकारीयों की नियुक्ति, आज्ञा-पत्र व घोषणा-पत्र का प्रवर्तन तथा आय-व्यय की देख-रेख वह स्वयं करता था। राजा स्वयं सर्वोच्च नयायाधीश होता था।

(2) मंत्रिपरिषद या अमात्य –

यद्यपि राजा राज्य का प्रमुख होता था, परन्तु वैधानिक दृष्टि से निरंकुश नहीं था।

राजा को राजकीय कार्य में सहायता प्रदान करने के लिए मंत्रिपरिषद होती थी।

हर्षवर्धन ने नाटकों में अनेक बार प्रधानामात्य अमात्य शब्दों का प्रयोग किया है।

(3) प्रान्तीय शासन –

प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से सम्पूर्ण देश भुक्ति, विषय, ग्रामों में विभक्त था।

हर्षवर्धन के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उसका शासन अनेक भुक्तियों में विभाजित था।

भुक्तियों का शासन प्रबंध प्रान्तीय गर्वनरों  को सौंप दिया गया था, जो प्रत्यक्ष रूप से शासक के प्रति उत्तरदायी थे।

भुक्तियों को विषय में विभक्त कर दिया था। सामान्यतः भुक्ति का अर्थ जिला बतलाया है।

शासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी।

ग्राम अपने क्षेत्र में स्वतंत्र था। ग्रामीण सभा के कार्य अलग थे।

ग्राम का प्रमुख ग्रामिक कहलाता था।

(4) न्याय व्यवस्था –

हर्ष के समय में दण्ड अत्यन्त कठोर था फिर भी अनेक अपराध यत्र-तत्र हुआ करते थे। दण्ड की कठोरता के कारण ह्वेनसांग लिखता है कि ‘शासन कार्य सत्यतापूर्वक सम्पन्न किया जाता है तथा लोग प्रेम-भाव से रहते हैं। अतः अपराधियों की संख्या अल्प है।

जब कोई व्यक्ति अपराध के जुर्म में पकड़ा जाता था तो उसे आमरण कारावास का दण्ड प्रदान किया जाता था, उसे कोई शारीरिक यातना नहीं दी जाती थी, परन्तु उसे जीवन पर्यंत बंदीगृह में रहना पड़ता था एवं उसे समाज का सदस्य नहीं समझा जाता था।

ह्वेनसांग के अनुसार अपराध की सत्यता को ज्ञात करने के लिए चार प्रकार की कठिन दिव्य परीक्षाएं काम में लाई जाती थी – (1) जल द्वारा, (2) अग्नि द्वारा, (3) तुला द्वारा, (4) विष द्वारा।

(5) राजस्व विभाग –

राज्य की आय का मुख्य साधन कर थे।

विभिन्न प्रकार के करों में-

(1) उदंग – एक प्रकार का भूमि कर,

(2) उपरिक – उन किसानों से जिनका भूमि पर स्वामित्व नहीं होता था,

(3) धान्य – कुछ विशेष अनाजों पर लगाया जाने वाला कर,

(4) हिरण्य – खनिज पदार्थों पर,

(5) शारीरिक श्रम – जो राजकीय कर नहीं दे पाते थे उनसे कर के बदले निश्चित ढंग से शारीरिक श्रम लिया जाता था तथा

(8) न्यायालय शुल्क (अर्थ दण्ड)।

(6) सैनिक व्यवस्था –

राजा सेना का सर्वोच्च पदाधिकारी होता था।

वह सेना को व्यवस्थित रखने में व्यक्तिगत रूचि लेता था।

ह्वेनसांग के वर्णन से ज्ञात होता है कि सेना निम्न भागों में विभक्त थी – पैदल, अश्वारोही, रथारोही एवं हस्तिआरोही।

(7) पुलिस गुप्तचर विभाग –

गुप्तचरों का कार्य छिपकर अपराधों का पता लगाना होता था।

पुलिस विभाग का गठन किया गया था।

जिनके नाम प्रायः गुप्त शासन के समय के ही थे जैसे- दण्डपारिक दण्डिक, चोरोद्वारणिक आदि।

बाण के हर्षचरित में यामचेटि का उल्लेख मिलता है, जो रात में पहरा देने वाली स्त्री होती थी।

शिक्षा एवं साहित्य का संरक्षक –

हर्षवर्धन स्वयं एक लेखक होने के साथ-साथ लेखकों को संरक्षण देने वाला शासक था।

हर्षवर्धन ने तीन नाटकों की रचना की।

ये नाटक है – प्रियदर्शिका, रत्नावली तथा नागानंद।

ह्वेनसांग के अनुसार राजकीय आय का चतुर्थांश प्रख्यात मेघावियों को पुरस्कृत करने में व्यय किया जाता था।

बाणभट्ट ने हर्षवर्धन के संरक्षण में हर्ष चरित, कादम्बरी और चंडी शतक की रचना की थी।

इनके दरबार में सूर्यशतक के प्रणेता मयूर और चारण मातंग दिवाकर को भी आश्रय प्राप्त था।

शिक्षा की उन्नति के लिए उसने युग के प्रसिद्ध बौद्ध शिक्षा केंद्र नालंदा को अनंत दान दिए जो इस समय तक शिक्षा का अन्तर्राष्ट्रीय केंद्र बन चुका था। नालन्दा में कई विद्वान् और सुयोग्य शिक्षक भी थे जैसे शीलभद्र, नागार्जुन, आर्यदेव, असंग, वसुबंधू तथा दिगनाग।

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