विजयनगर साम्राज्य (Vijayanagar samrajy)
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भारत के दक्षिण पश्चिमी तट पर 1336 ई. में विजयनगर साम्राज्य (वर्तमान नाम हम्पी) की स्थपाना हरिहर और बुक्का नामक दो भाईयों ने की थी।
मुहम्मद तुगलक ने जब कम्पिली को विजय किया, तब हरिहर एवं बुक्का को पकड़कर दिल्ली लाया गया और उन्हें मुसलमान बना दिया, लेकिन जब कम्पिली में विद्रोह हुआ, तो हरिहर एवं बुक्का को दक्षिण की सुरक्षा के लिए दक्षिण भेजा गया।
वहाँ पर संत विद्यारण्य के प्रभाव में आकर वे पुनः हिन्दू बन गए। 1336 ई. में हरिहर ने हम्पी हस्तिनावती राज्य की नींव डाली। उसी वर्ष तुंगभद्रा के तट पर विजयनगर बसाया।
संगम वंश –
हरिहर प्रथम (1336-56 ई. ) –
यह संगम वंश का प्रथम शासक था। इसकी पहली राजधानी अनेगोंडी थी। सात वर्ष बाद उसने विजयनगर को अपनी राजधानी बनाया। उसने होयसल को जीतकर विजयनगर में मिलाया तथा मुदरा के मुसलमानी राज्य को पराजित किया।
बुक्का प्रथम (1356-77 ई.) –
उसने मदुरा के अस्तित्व को मिटाकर विजयनगर साम्राज्य में मिला लिया। उसने वेद मार्ग प्रतिष्ठापक की उपाधि ग्रहण की थी। बुक्का प्रथम ने चीन में एक दूत मण्डल भेजा। उसने तेलुगु साहित्य को प्रोत्साहित किया।
उसने विद्यानगर का नाम विजयनगर रखा और कृष्णा नदी को विजयनगर एवं बहमनी राज्य की सीमा माना।
हरिहर द्वितीय (1377-1404 ई.) –
इसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की। यह शिव के विरूपाक्ष रूप का उपासक था।
देवराय प्रथम (1404-22 ई.) –
उसने हरविलास तथा प्रसिद्ध तेलुगु कवि श्रीनाथ को संरक्षण प्रदान किया। इसके काल में इटली यात्री निकोली कोंटी (1420 ई.) ने विजयनगर की यात्रा की। इसने तुर्की तीरंदाजों को सेना में शामिल किया।
इसी के शासनकाल में बहमनी शासक फिरोज बहमनी ने विजयनगर पर आक्रमण किया। यह संगम वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था। इसने कोंडाबिंदु पर विजय प्राप्त करके अपने साम्राज्य में मिलाया।
देवराय (द्वितीय) साहित्य का महान संरक्षक और स्वयं संस्कृत का विद्वान् था। उसने दो संस्कृत ग्रंथों महानाटक सुधा निधि और वादरायण के ब्रह्मसूत्र पर टीका की रचना की। उसके समय में फारसी यात्री अब्दुर्रज्जाक ने विजयनगर की यात्रा की।
संगम वंश का अंतिम शासक विरूपाक्ष द्वितीय था, जिसे सलुव नरसिंह ने मारकर सलुव वंश की स्थापना की।
साल्लुव वंश –
नरसिंह साल्लुव अपने वंश का एकमात्र शासक हुआ।
तुलुव वंश –
तुलुव वंश का संस्थापक वीर नरसिंह तुलुव था।
कृष्णदेव राय (1509-1529 ई.) –
कृष्णदेव तुलुव वंश का सबसे महान शासक था। बाबरनामा में विजयनगर के शासक कृष्णदेव राय का उल्लेख किया गया है। उसने अपने प्रसिद्ध तेलुगु ग्रन्थ आमुक्तामाल्याद में अपनी प्रशासनिक नीतियों की विवेचना की है।
उसने विजयनगर के निकट नागल्ल्पुर नाम का नया शहर बसाया। उसके समय में पुर्तगाली यात्री डोंमिगो पायस, डुआर्ट, बारवोसा ने विजयनगर की यात्रा की।
वह महान विद्वान्, विद्या प्रेमी था, जिसके कारण वह अभिनव भोज, आंध्र भोज के नाम से प्रसिद्ध था। उसके दरबार में अष्टदिग्गज रहते थे।
अत्युतदेव राय (1529-42 ई.) –
उसने महामंडलेश्वर नामक नए अधिकारी की नियुक्ति की थी। उसके समय में पुर्तगाली यात्री नूनिज ने विजयनगर की यात्रा की थी। इसी के शासनकाल में पुर्तगालियों ने तूतीकोरन के मोती क्षेत्र पर विजय प्राप्त कर ली।
सदाशिव राय (1542-1572 ई.) –
यह विजयनगर का नाममात्र का शासक था।
वास्तविक शक्ति अराविडू वंशीय मंत्री रामराय के हाथों में थी।
तालीकोटा के युद्ध के समय विजयनगर का शासक सदाशिव राय था,
लेकिन युद्ध का नेतृत्वकर्ता रामराय था।
विजयनगर विरोधी महासंघ में अहमदनगर, बीजापुर, गोलकोंडा और बीदर शामिल हैं (इसमें बरार शामिल नहीं था)
इसका संचालक अली आदिलशाह था।
23 जनवरी, 1565 ई. को संयुक्त सेनाओं ने तालीकोटा के युद्ध (बन्नी राक्षण तगड़ी का युद्ध) में विजयनगर की सेना को पराजित किया और विजयनगर साम्राज्य की अंत हुआ।
इस युद्ध के बाद भाई ने वैनुगोंडा को अपनी राजधानी बनाकर विजयनगर के अस्तित्व को बनाए रखा।
अराविडू वंश –
तिरुमल ने 1570 ई. में सदाशिव को हटाकर अराविडू वंश की स्थापना की।
इस वंश का अंतिम शासक श्रीरंग द्वितीय था।
धीरे-धीरे विजयनगर साम्राज्य नष्ट हो गया।
विजयनगर की शासन व्यवस्था –
नायकार व्यवस्था –
इसके अनुसार राजा अपने जागीरदारों को निश्चित भूमि जिसे अमरन कहते थे, देता था।
इन भूमियों के स्वामियों को अमर-नायक पुकारते थे, देता था।
वे राजा को प्रतिवर्ष एक निश्चित राशी देते थे और युद्ध में राजा की मदद करते थे।
आयगार व्यवस्था –
इस व्यवस्था के अंतर्गत कुछ गाँवों को एक स्वतंत्र इकाई के रूप में संगठित किया गया और
इसके प्रशासन के लिए 12 व्यक्तियों को नियुक्त किया गया।
इन्हें आयगार कहा जाता था।
इनका मुख्य कार्य अपने शासन क्षेत्र में शांति और व्यवस्था स्थापित करना था।
सेना के लिए पृथक विभाग था, जिसका अधिकारी दण्डनायक या सेनापति कहलाता था।
विजयनगर का सर्वाधिक प्रसिद्ध सिक्का स्वर्ण का वराह था,
जिसे विदेशी यात्रियों ने हूण, परदास या पगोड़ा के रूप में उल्लेखित किया है।
चाँदी के छोटे सिक्के तार कहलाते थे।
विट्ठलस्वामी का मंदिर एवं कृष्णदेव राय द्वारा बनवाया गया हजार स्तंभों वाला मंदिर हिन्दू स्थापत्य कला के अद्वितीय नमूने हैं।