हिंदी साहित्य का द्विवेदी युग
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यदि आधुनिक काल का प्रवेश द्वार भारतेंदु युग है तो द्विवेदी युग उसका विस्तृत प्रांगण जहाँ उन प्रवृत्तियों को विकसित एवं पल्लवित होने का अवसर प्राप्त हुआ। जो भारतेंदु युग में प्रारंभ हुई थी। उन्नीसवीं शती का अंत होते-होते भारतेन्दुकालीन समस्या पूर्ति एवं नीरस तुकबंदियों से सहृदय विमुख होने लगे तथा लम्बे समय से काव्य भाषा के रूप में व्यवहृत ब्रजभाषा का आकर्षण भी अब लुप्त होने लगा और उसका स्थान खडी बोली हिंदी ने ले लिया।
महावीरप्रसाद द्विवेदी और उनका युग
द्विवेदी युग का नामकरण आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के व्यक्तित्व को ध्यान में रखकर किया गया। उन्होंने ‘सरस्वती’ नामक पत्रिका के सम्पादक के रूप में हिंदी जगत की महान सेवा की और हिंदी साहित्य की दिशा एवं दशा को बदलने में अभूतपूर्व योगदान किया। महावीरप्रसाद द्विवेदी सन 1903 में सरस्वती पत्रिका के सम्पादक बने। इससे पहले वे रेल विभाग में नौकरी करते थे। उन्होंने इस पत्रिका के माध्यम से कवियों को नायिका भेद जैसे विषय छोड़कर विविध विषयों पर कविता लिखने की प्रेरणा दी, काव्यभाषा के रूप में ब्रजभाषा को त्यागकर खड़ी बोली का प्रयोग करने का सुझाव दिया। जिससे गद्य और पद्य को भाषा एक हो सके।
द्विवेदी जी ने ‘कवि कर्त्तव्य’ जैसे निबंधों द्वारा कवियों को उनके कर्तव्य का बोध कराते हुए अनेक दिशा निर्देश दिए। जिससे विषय-वस्तु, भाषा-शैली, छंद योजना आदि अनेक दृष्टियों से काव्य में नवीनता का समावेश हुआ। द्विवेदी जी ने भाषा संस्कार, व्याकरण शुद्धि, विराम चिह्नों के प्रयोग द्वारा हिंदी को परिनिष्ठित रूप प्रदान करने का प्रशंसनीय कार्य किया।
हिंदी नवजागरण और सरस्वती पत्रिका
हिंदी साहित्य के इतिहास में आधुनिक काल वस्तुतः जागरण का सन्देश लेकर आया। सन 1857 ई. में हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम ने नवजागरण का बिगुल बजा दिया और भारतीय जनमानस में देशभक्ति, स्वतंत्रता, राष्ट्र उत्थान, स्वदेशाभिमान की भावनाएं जाग्रत होने लगीं। इसीलिए हिंदी नवजागरण को हिन्दू जाति का जागरण माना है। सरस्वती पत्रिका का प्रकाशन सन 1900 ई. से प्रारम्भ हुआ तथा सन 1903 ई. में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसका सम्पादन भर संभाला। द्विवेदी जी इस पत्रिका में ऐसे लेखों को प्रकाशित किया जिन्होंने नवजागरण की लहर को प्रसारित करने में महत्वपूर्ण योगदान किया।
आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी से प्रेरणा लेकर तथा उनके आदर्शों को लेकर आगे बढने वाले अनेक कवि सामने आए जिसमें प्रमुख हैं- मैथिलीशरण गुप्त, गोपालशरण सिंह, गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ और लोचनप्रसाद पाण्डेय आदि। इसके अलावा बहुत सारे ऐसे कवि जो पहले ब्रजभाषा में कविता लिख रहे थे तथा उनकी विषय वस्तु एवं शैली प्राचीन पद्धति पर थी, अब द्विवेदी जी एवं ‘सरस्वती’ से प्रेरित होकर काव्य के चिर-परिचित उपादानों को छोड़कर नए विषयों पर खडी बोली में कविता लिखने लगे। ऐसे कवियों में प्रमुख हैं- अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, श्रीधर पाठक, नाथूराम शर्मा ‘शंकर’ तथा राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’। इन सभी कवियों की कविताएं नवजागरण, राष्ट्रीयता, स्वदेशानुराग एवं स्वदेशी भावना से परिपूर्ण हैं।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है- “खड़ी बोली के पद्य विधान पर द्विवेदी जी का पूरा-पूरा असर पड़ा। बहुत से कवियों की भाषा शिथिल और अव्यवस्थित होती थी। द्विवेदी जी ऐसे कवियों की भेजी हुई कविताओं की भाषा आदि दुरुस्त करके ‘सरस्वती’ में छापा करते थे। इस प्रकार कवियों की भाषा साफ होती गई और द्विवेदी जी के अनुकरण में अन्य लेखक भी शुद्ध भाषा लिखने लगे।” वस्तुतः ‘सरस्वती’ पत्रिका ने भाषा और साहित्य दोनों ही क्षेत्रों में परिष्कार किया।
मैथिलीशरण गुप्त एवं राष्ट्रीय काव्यधारा
‘भारत-भारती’ एवं ‘साकेत’ जैसी यशस्वी कृतियों के रचयिता राष्ट्रकवी मैथिलीशरण गुप्त का जन्म चिरगांव (झाँसी) में 1886 ई. में तथा निधन 1964 ई. में हुआ। ‘भारत-भारती’ का प्रकाशन सन 1912 ई. में हुआ जिसमें भारत के अतीत गौरव का गान है। गुप्त जी की राष्ट्रीय चेतना इस कृति में पूर्णतः मुखरित हुई है। गुप्त जी ने लगभग 40 कृतियां लिखीं हैं। मैथिलीशरण गुप्त रामभक्त कवि थे। ‘साकेत’ रामकथा पर आधारित महाकाव्य है जिसके 9वें सर्ग में उर्मिला का विरह-वर्णन विशद रूप से किया गया है। ‘यशोधरा’ गौतम बुद्ध के गृह त्याग की घटना पर आधारित काव्य ग्रन्थ है जिसमें नारी की वेदना मुखरित हुई है।
राष्ट्रीय काव्यधारा के प्रमुख कवि
द्विवेदी युग में मैथिलीशरण गुप्त के साथ-साथ नाथूराम शर्मा ‘शंकर’, गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’, रामनरेश त्रिपाठी, राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’, रामचरित उपाध्याय आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन कवियों की रचनाओं में राष्ट्रीयता, स्वदेश प्रेम एवं भारत के अतीत गौरव का गान किया गया है। राष्ट्रीय काव्यधारा के कवियों व उनकी रचनाओं का विवरण निम्नानुसार है-
कवि का नाम | जीवन काल | रचनाएं | विशेष विवरण |
अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ | 1865-1947 ई. | प्रिय प्रवास (1914 ई.), पद्य प्रसून (1925 ई.), चुभते चौपदे (1932 ई.), रस कलश (1940 ई,) वैदेही वनवास (1940 ई.) | प्रिय प्रवास खड़ी बोली में रचित महाकाव्य है। रस कलश एक रीति ग्रन्थ है। वैदेही वनवास रामकथा पर आधारित काव्य ग्रन्थ है। |
राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’ | 1868-1915 ई. | स्वदेशी कुण्डल (1910 ई.), मृत्युंजय (1904 ई.), राम रावण विरोध (1906 ई.), वसन्त वियोग (1912 ई.) | देशभक्ति पूर्ण 52 कुण्डलियों की रचना की है। |
रामचरित उपाध्याय | 1872-1938 ई. | राष्ट्रभारती, देवदूत, देवसभा, विचित्र विवाह, रामचरित चिंतामणि, सूक्ति मुक्तावली | रामचरित चिंतामणि प्रबंध काव्य है। सूक्ति मुक्तावली नीतिपरक काव्य है। द्विवेदी जी के प्रभाव से खड़ी बोली को अपनाया। |
गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ | 1883-1972 ई. | कृषण कुन्दन, प्रेम पचीसी, राष्ट्रीय वीणा, त्रिशूल तरंग, करुणा कादम्बिनी | राष्ट्र प्रेम की कविताएं ‘त्रिशूल’ उपनाम से लिखी हैं। ‘सुकवि’ नामक पत्रिका का सम्पादन किया। |
रामनरेश त्रिपाठी | 1889-1962 ई. | मिलन, पथिक, मानसी, स्वप्न | प्रबंध रचना की प्रवृति, देशभक्ति पूर्ण रचनाएं, मानसी में देशभक्ति की रचनाएं हैं। |
माखनलाल चतुर्वेदी | 1889-1968 ई. | हिम किरीटिनी, हिम तरंगिनी, युग चारण, समर्पण, माता | ‘पुष्प की अभिलाषा’ नामक प्रसिद्ध कविता इन्होंने ही लिखी थी। इनका उपनाम था- एक भारतीय आत्मा। प्रभा, प्रताप, कर्मवीर का सम्पादन किया। |
सियाराम शरण गुप्त | 1895-1963 ई. | मौर्य विजय, अनाथ, दूर्वादल, विषाद, आर्द्रा, पाथेय, मृण्मयी, बापू | गांधीवाद में अटूट आस्था। मैथिलीशरण गुप्त के छोटे भाई थे। राष्ट्र प्रेम, अहिंसा, सत्य एवं करुणा जैसे मूल्य इनकी रचनाओं में है। |
बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ | 1897-1960 ई. | कुंकुम, उर्म्मिला, अपलक, रश्मि रेखा, क्वासि, हम विषपायी जनम के, बिनोबा स्तवन | राष्ट्र प्रेम एवं प्रणय को भावनाओं से ओतप्रोत काव्य लिखा है। प्रभा, प्रताप का सम्पादन किया। भारत के अतीत गौरव का गान किया। |
सुभद्राकुमारी चौहान | 1905-1948 ई. | त्रिधारा, मुकुल | ‘झाँसी की रानी’ कविता जनता में बहुत लोकप्रिय हुई। राष्ट्र प्रेम की कविताओं में असहयोग आन्दोलन के वीरों का चित्रण है। |
जगन्नाथ प्रसाद ‘मिलिन्द’ | 1907-1986 ई. | जीवन संगीत | भारत के सांस्कृतिक गौरव व राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति की। |
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ | 1908-1974 ई. | रेणुका, प्रणभंग, हुंकार, रसवंती, कुरुक्षेत्र, परशुराम की प्रतीक्षा, रश्मिरथी, उर्वशी, नील कुसुम, कोयला और कवित्व, मृत्ति तिलक, हारे को हरिनाम, गद्य रचनाएं- संस्कृति के चार अध्याय, शुद्ध कविता की खोज, विवाह की समस्याएं, दिनकर की डायरी | उर्वशी गीति नाट्य पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ। कुरुक्षेत्र में युद्ध और शांति की समस्या पर विचार किया गयाहै। दिनकर की कविताओं में ओज, औदात्य एवं वीर रस की प्रधानता है। |
सोहनलाल द्विवेदी | 1906-1988 ई. | भैरवी, वासवदत्ता, कुणाल, चित्रा, प्रभाती, युगधारा, पूजागीत | इन्होंने प्रबंध काव्य एवं गीतकाव्य दोनों की रचना की। इनके काव्य में राष्ट्रीय चेतना विद्यमान है। भाषा में सरलता है। |
श्यामनारायण पाण्डेय | 1907-1991 ई. | हल्दीघाटी, जौहर | महाराणा प्रताप के जीवन पर आधारित प्रबंध काव्य लिखा। रष्ट्रीय चेतना एवं वीर रस के प्रसिद्ध कवि। |
स्वछंदतावादी कवि
रोमानी भाव-बोध को अपने काव्य में अभिव्यक्ति देने वाले कवियों को स्वच्छंदतावादी कवि कहा जाता है। इन कवियों का विषय एवं शिल्प नया है तथा युगीन चेतना से अलग हटकर है। प्रकृति प्रेम, स्वच्छंद प्रेम एवं वैयक्तिक स्वातंत्र्य की चेतना को लेकर लिखी गई कविताएं स्वच्छंदतावादी वर्ग में आती हैं। द्विवेदी युग में इस प्रकार के प्रमुख कवि व उनकी रचनाएं निम्नानुसार हैं-
कवि का नाम | जीवन काल | रचनाएं | विशेष विवरण |
श्रीधर पाठक | 1859-1928 ई. | कश्मीर सुषमा, देहरा-दून, भारत गीत | इनकी कविता के विषय हैं- देशप्रेम, समाज सुधार, प्रकृति चित्रण। |
मुकुटधर पाण्डेय | 1895-1989 ई. | पूजा फूल, कानन कुसुम, प्रेम बंधन, आंसू | प्रगीत मुक्तककार, रहस्य भावना, प्रेम भावना, प्रकृति चित्रण, स्वच्छंदतावादी कवि। शुक्ल जी ने इन्हें छायावाद का प्रवर्तक माना है। |
जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ | 1866-1932 ई. | उद्धव शतक, गंगावत-रण, शृंगार लहरी, हिंडोला, हरिश्चंद्र | ‘जकी’ उपनाम से उर्दू में भी कविता करते थे। ब्रजभाषा मर्मज्ञ सर्वश्रेष्ठ कवि। |
सत्यनारायण ‘कविरत्न’ | 1880-1918 ई. | ‘हृदयतरंग’ की दो कविताओं ‘प्रेम कली’ एवं ‘भ्रमरदूत’ ने प्रसिद्धि पाई। | ब्रजभाषा के कवि, प्रकृति प्रेम, राष्ट्रप्रेम की अभिव्यक्ति। |
द्विवेदी युग की काव्य प्रवृतियां
- राष्ट्रीयता की भावना- देशप्रेम, अतीत गौरव, स्वदेशाभिमान की अभिव्यक्ति हुई है।
- इतिवृत्तात्मकता- प्रबन्ध रचना की प्रवृति है। खंडकाव्य एवं महाकाव्य अधिक लिखे गए, मुक्तक रचना की प्रवृति कम है। प्रियप्रवास एवं साकेत इस युग के प्रमुख महाकाव्य हैं।
- नैतिकता एवं आदर्शवाद- शृंगार भावना का विरोध हुआ। नैतिक मूल्यों पर बल दिया गया। द्विवेदी युग का काव्य आदर्शवाद से अनुप्राणित है।
- प्रकृति चित्रण- कवियों ने प्रकृति के रम्य रूप का चित्रण अपनी रचनाओं में किया।
- सामाजिक समस्याओं का चित्रण- छुआछूत, दहेज प्रथा, बाल विवाह, नारी की दयनीय स्थिति को काव्य का विषय बनाया।
- अनूदित रचनाएं- इस काल में मौलिक रचनाओं के साथ-साथ अनूदित रचनाएं भी लिखी गई। विशेषतः संस्कृत, बंगला एवं अंग्रेजी की श्रेष्ठ रचनाओं के अनुवाद कवियों ने प्रस्तुत किए।
- काव्य रूपों की विविधता- एक ओर जहाँ महाकाव्य लिखे गए वहीं दूसरी ओर खण्डकाव्य लिखकर प्रबन्ध रचना की प्रवृत्ति का परिचय दिया गया। प्रगीत मुक्तकों का प्रारम्भ भी इस कल में हो गया था।
- काव्य भाषा के रूप में खड़ी बोली का प्रयोग- द्विवेदी युग में खड़ी बोली हिंदी का प्रयोग ब्रजभाषा के स्थान पर काव्य भाषा के रूप में किया गया।
- छंदों को विविधता- काव्य में प्राचीन छंदों- दोहा, चौपाई, रोला, सवैया, कुण्डलिया के साथ-साथ संस्कृत वर्णवृतों, हरिगीतिका, उपेन्द्रवज्रा, इंद्रवज्रा, शार्दुल विक्रीडित, ताटंक आदि का प्रयोग भी किया गया।
- द्विवेदी युग का महत्व- काव्य भाषा के रूप में खड़ी बोली हिंदी को प्रतिष्ठित किया गया तथा गद्य क्षेत्र में भाषा का परिष्कार कर उसे व्याकरण सम्मत बनाया गया।