आधुनिक काल
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नामकरण एवं समय सीमा- आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य के इतिहास के चौथे काल खंड को गद्य की प्रमुखता के कारण गद्यकाल नाम दिया है और इसकी समय सीमा संवत् 1900 वि. से 1980 वि. अर्थात् सन 1843 ई. से 1923 ई. स्वीकार की है। आधुनिक काल के लिए जो विभिन्न नाम दिए गए हैं वे इस प्रकार हैं-
- गद्य काल- आचार्य रामचंद्र शुक्ल
- वर्तमान काल- मिश्रबंधु
- आधुनिक काल- डॉ. रामकुमार वर्मा
- आधुनिक काल- डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त
हिंदी गद्य का उद्भव और विकास
आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मत है कि बल्लभाचार्य जी के पुत्र गोसांई विट्ठलनाथ जी ने शृंगार रस मंडन नामक एक ग्रन्थ ब्रजभाषा में लिखा था जिसकी भाषा अपरिमार्जित एवं अव्यवस्थित है। इसके उपरान्त ‘वार्ता साहित्य’ की रचना गद्य में हुई।नाभादास द्वारा रचित ‘अष्टयाम’ (1603 ई.) पुस्तक ब्रजभाषा गद्य में है जिसमें भगवान राम की दिनचर्या का वर्णन है। जानकीदास द्वारा रचित रामचंद्रिका की टीका (1817 ई.) की भाषा भी अशक्त एवं अव्यवस्थित है।
खड़ी बोली गद्य की महत्वपूर्ण पुस्तक गंग कवि द्वारा रचित ‘चन्द छन्द बरनन की महिमा’ है। इसकी रचना सम्राट अकबर के समय में हुई थी। 1741 ई. में रामप्रसाद निरंजनी ने ‘भाषा योगवशिष्ट’ नामक गद्य रचना साफ सुथरी खड़ी बोली में लिखा। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रामप्रसाद निरंजनी को ही प्रथम प्रौढ़ गद्य लेखक माना है।
लल्लूलाल जी आगरा के गुजराती ब्राह्मण थे। फोर्ट विलियम कॉलेज के हिंदी-उर्दू अध्यापक जान गिलक्राइस्ट के आदेश से इन्होंने खड़ी बोली गद्य में प्रेमसागर की रचना की जिसमें भागवत के दशम स्कंध की कथा वर्णित है।
सदल मिश्र भी फोर्ट विलियम कॉलेज कलकत्ता में काम करते थे। इन्होंने भी कॉलेज अधिकारीयों की प्रेरणा से खड़ी बोली गद्य की पुस्तक ‘नासिकेतोपाख्यान’ तैयार की।
मुंशी सदासुखलाल ‘नियाज’ दिल्ली के रहने वाले थे। इन्होंने विष्णुपुराण से उपदेशात्मक प्रसंग लेकर एक पुस्तक का निर्माण किया और हिंदी में श्रीमद्भागवत पुराण का अनुवाद ‘सुखसागर’ नाम से किया। उन्होंने हिन्दुओं की बोलचाल की शिष्टभाषा में अपनी रचनाए लिखी।
इंशा अल्ला खां उर्दू के प्रसिद्ध शायर थे जो दिल्ली के उजड़ने पर लखनऊ चले आए थे। इंशा अल्ला खां ने ‘रानी केतकी की कहानी’ या ‘उदयभान चरित’ की रचना 1800 ई. के आसपास की। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इन चारों लेखकों में मुंशी सदासुखलाल को विशेष महत्त्व दिया है।
राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद:
हिंदी-उर्दू के इस संघर्षकाल में राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द और राजा लक्ष्मणसिंह हिंदी के पक्षपाती बनकर सामने आए। शिक्षा विभाग में इंसपेक्टर होने से पूर्व राजा शिवप्रसाद ने काशी से ‘बनारस अखबार’ निकलना प्रारम्भ किया। जिसकी भाषा में उर्दू का पुट था। राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद की प्रमुख पुस्तकें है- आलसियों का कीड़ा, राजा भोज का सपना, इतिहास तिमिरनाशक, मानव धर्म का सार, मानव धर्म का सार, उपनिषद् सार, भूगोल हस्तामलक ।
राजा शिवप्रसाद ने अपनी प्रारंभिक पुस्तकों- ‘राजा भोज का सपना’ आदि में सरल हिंदी का प्रयोग किया है। उसमें वह उर्दूपन नहीं है जो बाद की पुस्तकों ‘इतिहास तिमिरनाशक, में दिखाई पड़ता है। संभवतः शिक्षा विभाग में नौकरी करने के बाद अंग्रेज अधिकारीयों का रुख देखकर उन्होंने अपनी भाषा नीति बदली और अपनी बाद की पुस्तकों में उर्दू मिश्रित हिंदी का प्रयोग करने लगे।
राजा लक्ष्मण सिंह
राजा लक्ष्मण सिंह आगरा के रहने वाले थे। उन्होंने सन 1861 ई. में आगरा से ‘प्रजा हितैषी’ नामक पत्र निकाला और 1862 ई. में ‘अभिज्ञान शाकुन्तल’ का अनुवाद सरस एवं विशुद्ध हिंदी में प्रकाशित किया। उन्होंने अपनी भाषा नीति को स्पष्ट करते हुए कहा है- “हमारे मत में हिंदी और उर्दू दो बोली न्यारी-न्यारी हैं। हिंदी इस देश के हिन्दू बोलते हैं और उर्दू यहां के मुसलमानों और फारसी पढ़े हुए हिन्दुओं को बोलचाल है। हिंदी में संस्कृत पद बहुत आते हैं, उर्दू में अरबी, फारसी के।”
राजा लक्ष्मण सिंह के ‘शकुन्तला नाटक’ की भाषा देखकर अंग्रेज विद्वान ‘फ्रेडरिक पिन्काट’ बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने इस नाटक का परिचयात्मक विवरण देते हुए बहुत सुन्दर लेख लिखा। पिन्काट हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं के ज्ञाता थे और भारत का हित ह्रदय से चाहते थे। आचार्य शुक्ल का विचार है कि ‘उस समय के हिंदी लेखकों के घर में पिन्काट साहब के दो चार पत्र अवश्य मिलेंगे।’
हिंदी के रक्षकों में बाबू शिवप्रसाद सितारेहिंद के साथ-साथ पंजाब के बाबू नवीनचंद्र राय भी थे। उर्दू के पक्षपातियों से उन्होंने बराबर संघर्ष किया।
भारतीय सांस्कृतिक जागरण और हिंदी
अंग्रेजी शिक्षा पद्धति ने भारतीय बुद्धिजीवियों को भी सचेत किया और जनजागरण हेतु यहाँ कई संस्थाएं स्थापित की गईं। जैसे-
क्र.सं. | संस्था का नाम | संस्थापक | स्थापना वर्ष |
1. | ब्रह्मसमाज | राजा राममोहन राय | 1828 ई. |
2. | प्रार्थना समाज | केशवचंद्र सेन | 1867 ई. |
3. | रामकृष्ण मिशन | विवेकानंद | — |
4. | आर्यसमाज | स्वामी दयानंद सरस्वती | 1867 ई. बम्बई |
5. | थियोसोफिकल सोसाइटी | मैडम ब्लावत्सकी | 1875 ई. न्यूयार्क |
आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने यद्यपि हिन्दू धर्म एवं संस्कृति के उन्नयन हेतु इस संस्था की स्थापना की थी तथापि समूचे देश में राष्ट्रीय भावना का संचार करने एवं राष्ट्रभाषा का प्रचार करने का श्रेय भी उन्हें दिया जाना चाहिए। स्वामी जी ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की रचना हिंदी में की और आर्यसमाज का सारा कामकाज हिंदी में प्रारंभ कर दिया। ऐसा उन्होंने श्री केशवचन्द्र सेन के सुझाव पर किया। आर्य समाज ने निश्चय ही हिंदी गद्य साहित्य को समृद्ध कर उसे नवीन गति प्रदान की है।
आधुनिक काल को कई उपविभागों में विभक्त किया गया है। डॉ. नगेन्द्र के अनुसार ये उपविभाग निम्नवत हैं-
- पुनर्जागरण काल (भारतेन्दु युग)- 1857 ई.-1900 ई.
- जागरण-सुधार काल(द्विवेदी युग)- 1900 ई.-1918 ई.
- छायावादी युग- 1918 ई.-1938 ई.
- छायावादोत्तर काल- (अ) प्रगति-प्रयोग काल- (1938 ई.- 1953 ई.), (ब) नवलेखन काल- (1953 ई. से ………)