भारतेंदु युग
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डॉ. नगेन्द्र ने पुनर्जागरण काल या भारतेंदु युग का समय 1857 ई. से 1900 ई. माना है। आधुनिक काल के इस प्रथम चरण को भारतेंदु युग कहना इसलिए उपयुक्त है क्योंकि यह नामकरण भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र के महिमामंडित व्यक्तित्व को ध्यान में रखकर किया गया। भारतेंदु जी सही अर्थों में हिंदी गद्य के जनक कहे जा सकते है। उनकी भाषा में न तो मुंशी सदासुखलाल की भाषा का पंडिताऊपन है, न लल्लूलाल का ब्रजभाषापन और न सदल मिश्र का पूरबीपन। भारतेंदु जी ने भाषा संस्कार करते हुए इन सभी दोषों से यथासंभव अपनी भाषा को मुक्त रखा।
भारतेंदु जी का सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने हिंदी साहित्य को नवीन मार्ग दिखलाया। देश हित एवं समाज हित की भावना का समावेश सर्वप्रथम भारतेंदु जी की साहित्यिक रचनाओं में हुआ है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल इनके योगदान पर लिखा है- “हमारे जीवन और साहित्य के बीच जो विच्छेद बढ़ रहा था, उसे उन्होंने दूर किया। हमारे साहित्य को नए-नए विषयों की ओर प्रवृत्त करने वाले हरीशचंद्र ही हुए।” भारतेंदु जी मंजी हुई परिष्कृत भाषा को सामने लाए जो हिंदी भाषा जनता को बोली थी, अतः भाषा को जो विवाद उनसे पहले चल रहा था वह बहुत कुछ सुलझ गया।
भारतेंदु मंडल के साहित्यकार
भारतेंदु जी ने 35 वर्ष के जीवन काल में ही लेखकों का एक अच्छा खासा मंडल तैयार कर लिया था जिसमें पं. प्रतापनारायण मिश्र, बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’, ठाकुर जगमोहन सिंह और पं. बालकृष्ण भट्ट के नाम प्रमुख है। भारतेंदु जी की शैली के दो रूप है- 1. भावावेश शैली, 2. तथ्य निरूपण शैली। इनमें से प्रथम शैली में लिखे गए वाक्य छोटे-छोटे हैं। भाषा सरल एवं बोलचाल की है। तथ्य निरूपण शैली के अंतर्गत संस्कृत शब्दों का अधिक प्रयोग हुआ है।
पं. प्रतापनारायण मिश्र विनोदी प्रकृति के थे, अतः उनकी भाषा में स्वच्छंदता एवं बोलचाल की चपलता एवं भावभंगिमा दिखाई पड़ती है।
बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ के लेखों में गद्य काव्य के पुराने ढंग की झलक दिखाई देती है।
पं. बालकृष्ण भट्ट की भाषा वैसी है जैसी खरी-खरी कहने वालों की होती है।
ठाकुर जगमोहन सिंह की भाषा शैली शब्द शोधन और आनुप्रासिकता से युक्त है।
भारतेंदु युग में गद्य का प्रारंभ भी नाटकों से हुआ। भारतेंदु जी ने बंगला के नाटक ‘विद्यासुंदर’ का हिंदी में अनुवाद किया। नाटकों को रंगमंच पर प्रस्तुत करने का उद्योग भी पहले पहल भारतेंदु मंडल के लेखकों ने किया। यही नहीं ये लोग स्वयं भी नाटकों में अभिनय करते थे। पं. शीतला प्रसाद त्रिपाठी कृत ‘जानकी मंगल नाटक’ में भारतेंदु जी ने स्वयं अभिनय किया था और इसे देखने स्वयं काशीनरेश महाराज ईश्वरी नारायण सिंह आये थे। पं. प्रतापनारायण मिश्र ने एक नाटक में अभिनय करने के लिए मूंछ मुड़वा लेने की आज्ञा अपने पिता से मांगी थी।
इस काल में उपन्यासों के अनुवाद की परम्परा भी चल रही थी। पं. प्रतापनारायण मिश्र एवं ठाकुर जगमोहन सिंह ने भी बंगला उपन्यासों के अनुवाद हिंदी में किए। यद्यपि इन अनूदित उपन्यासों की भाषा मंजी हुई नहीं थी तथापि हिंदी पाठकों को नए ढंग के सामाजिक एवं ऐतिहासिक उपन्यासों का परिचय प्राप्त हो रहा था।
19वीं शती के उत्तरार्द्ध की पत्र-पत्रिकाएं
इस काल के अधिकांश लेखक यशस्वी पत्रकार भी थे। इस काल की कुछ प्रमुख पत्र-पत्रिकाएं एवं उनके संपादकों के नाम इस प्रकार है-
क्र.सं. | पत्र-पत्रिका का नाम | सम्पादक | प्रकाशन स्थान |
1. | सदादर्श | लाला श्रीनिवासदास | दिल्ली |
2. | हिंदी दीप्ति प्रकाश | कार्तिकप्रसाद खत्री | कोलकाता |
3. | काशी पत्रिका | बालेश्वरप्रसाद | काशी |
4. | भारत बंधु | तोताराम | अलीगढ़ |
5. | भारत मित्र | रुद्रदत्त | कोलकाता |
6. | हिंदी प्रदीप | पं. बालकृष्ण भट्ट | प्रयाग |
7. | आर्यदर्पण | बख्तावर सिंह | – |
8. | सार सुधानिधि | सदानंद मिश्र | कोलकाता |
9. | भारत सुदशा प्रवर्तक | गणेश प्रसाद | फर्रुखाबाद |
10. | आनंद कादम्बिनी | बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ | मिर्जापुर |
11. | ब्राह्मण | पं. प्रतापनारायण मिश्र | कानपुर |
12. | सदाचार मार्तण्ड | लालचंद शास्री | जयपुर |
13. | भारत जीवन | रामकृष्ण वर्मा | काशी |
14. | भारतेंदु | राधाचरण गोस्वामी | वृन्दावन |
‘कविवचन सुधा’ नमक पत्रिका भारतेंदु जी ने सन 1868 ई. में निकली। इसके पांच वर्ष उपरान्त 1873 ई. में उन्होंने ‘हरीशचंद्र मैगजीन’ नामक पत्रिका निकली, जिसका नाम आठ अंकों के उपरान्त ‘हरीशचंद्र चंद्रिका’ कर दिया गया। सन 1874 ई. में भारतेंदु जी ने नारी शिक्षा के लिए ‘बाल बोधिनी’ पत्रिका निकली। इस प्रकार उन्होंने तीन पत्रिकाएं निकली।
भारतेंदु बाबू हरीशचंद्र
इनका जन्म 1850 ई. में तथा मृत्यु 35 वर्ष की अल्पायु में सन 1885 ई. में हुई। इस अल्पकाल में ही इस महान साधक ने माँ भारती के भण्डार में अभूतपूर्व वृद्धि की। उनके सम्पूर्ण कृतित्व का विवरण इस प्रकार है-
क्र.सं. | कृति का प्रकार | कृतियों का नाम |
1. | मौलिक नाटक | वैदिही हिंसा-हिंसा न भवति, चंद्रावली नाटिका, विषस्य विषमौषधम, भारत दुर्दशा, नीलदेवी, अंधेर नगरी, प्रेम जोगिनी, सती प्रताप(अधूरा) |
2. | अनूदित नाटक | विद्यासुन्दर, पाखण्ड बिडंबन, धनंजय विजय, कर्पूर मंजरी, मुद्राराक्षस, सत्य हरीशचंद्र, भारत जननी, दुर्लभ बन्धु, रत्नावली |
3. | काव्य कृति | प्रेमाश्रुवर्णन, प्रेम माधुरी, प्रेम तरंग, उत्तरार्द्ध भक्त माल, प्रेम प्रलाप, गीत गोविंदानंद, सतसई सिंगार, होली, मधुमुकुल, रागसंग्रह, वर्षा विनोद, विनय प्रेम पचासा, फूलों का गुच्छा, प्रेम फुलवारी, कृष्ण चरित, तन्मय लीला, दान लीला, प्रबोधिनी, प्रातसमीरन, बकरी विलाप, रामलीला |
4. | उपन्यास | हमीर हठ, रामलीला, सुलोचना, शीलवती, सावित्री चरित्र |
5. | निबंध | सबै जाति गोपाल की, मित्रता, सूर्योदय, कुछ आप बीती कुछ जग बीती, जयदेव, बंग भाषा की कविता |
6. | इतिहास ग्रन्थ | कश्मीर कुसुम, बादशाह दर्पण |
भारतेंदु जी के पिता गोपालचंद्र भी अच्छे कवि थे और ‘गिरधरदास’ नाम से कविता करते थे। भारतेंदु जी के काव्यगुरू पं. लोकनाथ थे।
भारतेन्दुयुगीन काव्य प्रवृतियाँ
भारतेंदु युग के कवियों ने अपने कर्तव्य का भलीभांति निर्वाह करने हेतु जनता के सामाजिक, आर्थिक, राजनितिक पहलुओं का उद्घाटन अपनी कविता में किया। प्रमुख काव्य प्रवृतियां निम्नानुसार है-
- राष्ट्रीयता की भावना- भारतीय जनमानस में राष्ट्रीयता की भावना का संचार करने का प्रयास भारतेन्दुकालीन कवियों ने किया है। राधाचरण गोस्वामी की कविता ‘हमारो उत्तम भारत देस’ राधाकृष्णदास की कविता ‘भारत बारहमासा’ और बदरी नारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ की कविता ‘धन्य भूमि भारत सब रतननि की उपजावनि’ इसी भावना से ओतप्रोत हैं।
- समाज की दुर्दसा का चित्रण- रीतिकाल के कवियों ने समाज की ओर से अपनी आंखे बंद कर ली थीं, किन्तु भारतेन्दुकालीन कवियों ने सामाजिक जीवन का यथातथ्य निरूपण करने में रूचि दिखाई है। सामाजिक रूढ़ियों को नकारते हुए बाल विवाह, विधवा विवाह, सती प्रथा, छुआछूत को काव्य विषय बनाया गया और सामाजिक कुरीतियों, छल-कपट एवं पाखंड का खण्डन करने में इन कवियों ने बढ़-चढ़कर योगदान किया।
- शृंगारिकता- इस युग के कवियों ने शृंगार की मर्यादित अभिव्यक्ति की है। रीतिकालीन पद्धति पर नख-शिख वर्णन एवं नायिका भेद का चित्रण तो इन कवियों ने किया ही है, साथ ही कृष्ण को नायक मानकर उनकी प्रेमलिलाओं का चित्रण भी किया है।
- भक्ति भावना- भारतेंदु को भक्ति भावना पैतृक विरासत में मिली थी। उनकी भक्तिपरक रचनाओं में प्रमुख हैं- भक्ति सर्वस्व, वैशाख माहात्म्य एवं कार्तिक स्नान। भारतेंदु जी पुष्टिमार्गीय भक्त थे और वल्लभ सम्प्रदाय में दीक्षित थे।
- प्रकृति चित्रण- इस काल के कवियों ने प्रकृति का स्वच्छंद रूप में चित्रण किया, यद्यपि कहीं-कहीं परम्परा निर्वाह करते हुए भी प्रकृति निरूपण किया गया है। एक ओर तो वसंत, वर्षा आदि ऋतुओं के मनोहारी चित्रांकित किए तो दूसरी ओर गंगा, यमुना, चांदनी आदि का सुन्दर चित्रण किया है।
- हास्य-व्यंग्य की प्रधानता- इस काल के कवियों ने हास्य-व्यंग्यपरक रचनाओं के महत्त्व को समझने हुए इनके माध्यम से अंग्रेजी शासन, पाश्चात्य सभ्यता, सामाजिक अंधविश्वास एवं रूढियों पर करारी चोट की। भारतेंदु जी ने अपने नाटकों एवं एकांकियों में व्यंग्योक्तियों के माध्यम से तत्कालीन परिस्थितियों का सुन्दर चित्रण किया है।
- समस्या पूर्ति- भारतेंदु कालीन कवि समस्या पूर्ति के रूप में भी काव्य रचना करते थे। कोई एक पंक्ति या पद्यांश ‘समस्या’ के रूप में दिया जाता था और कविजन विलक्षण कल्पनाएं करते हुए उस समस्या की पूर्ति हेतु काव्य रचना करते थे।
- ब्रजभाषा का प्रयोग- इस युग के अधिकांश कवियों ने ब्रजभाषा में ही काव्य रचना की। यद्यपि खड़ी बोली का प्रयोग इस काल में प्रारम्भ हो गया था। इन कवियों की भाषा पद्माकर एवं घनानंद जैसी परिष्कृत भाषा तो नहीं है, किन्तु उसमें प्रवाह एवं स्वाभाविकता है।