गुप्त वंश (320 ई.पू. से 480 ई.)–
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मौर्य साम्राज्य के विघटन के बाद करीब पाँच सौ वर्षो तक उत्तर भारत में किसी शक्तिशाली राज्य का उदय नहीं हो सका। हालांकि इस काल में अनेक राजवंशों ने शासन किया, लेकिन इनके बीच कोई साम्राज्यिक प्रतिस्पर्धा देखने को नहीं मिलती। इस प्रकार आतंरिक शांतिमय वातावरण के बीच गुप्त वंश ने अपने विशाल साम्राज्य की स्थापना की जो दो सौ वर्षों से अधिक समय तक अपनी सत्ता बनाए रखने में समर्थ रहे।
गुप्त वंश के इतिहास की जानकारी के प्रमुख स्रोत
(1) साहित्यिक स्रोत –
पुराण- विष्णु पुराण, वायु पुराण तथा ब्राह्मण पुराण प्रमुख हैं।
देवीचन्द्र गुप्तं – विशाखदत्त कृत नाटक।
कालिदास की रचनाएँ – मेघदूत, कुमारसंभव।
मृच्छकटिकम – शूद्रक कृत रचना।
कामसूत्र – वात्स्यायन कृत रचना।
चीनी यात्री फाह्यान तथा ह्वेनसांग का यात्रा वृतान्त आदि उल्लेखनीय हैं।
(2) पुरातात्विक स्रोत –
प्रयाग प्रशस्ति, उदयगिरि के शैव गुहा, लेख, जूनागढ़ अभिलेख, एरण अभिलेख, सोने, चाँदी व ताँबे की बनी मुद्राएँ तथा स्मारक उल्लेखनीय हैं।
गुप्त वंश के शासक
श्रीगुप्त –
श्रीगुप्त गुप्त वंश का संस्थापक था। उसने 240-280 ई. तक शासन किया। उसने महाराज की उपाधि धारण की। ऐसा प्रतीत होता है कि वह भारशिवों के अधीन छोटे से राज्य प्रयाग का शासक था।
घटोत्कच –
श्रीगुप्त के पुत्र घटोत्कच ने 280-320 ई. तक शासन किया। महाराज की उपाधि धारण की। संभवतः घटोत्कच के साम्राज्य में पाटलिपुत्र तथा उसके निकटवर्ती प्रदेश आते थे।
चन्द्रगुप्त प्रथम (320-335 ई.) –
चन्द्रगुप्त प्रथम इस वंश का प्रमुख शासक था। उसने मगध, कौशल व कौशाम्बी को जीतकर अपने साम्राज्य में मिलाया। उसने सर्वप्रथम महाराजाधिराज की उपाधि धारण की तथा लिच्छवी वंश की राजकुमारी कुमारी देवी से विवाह किया। चन्द्रगुप्त प्रथम को गुप्त संवत् का संस्थापक माना जाता है।
इनके शासन काल की स्वर्ण मुद्राएँ अयोध्या, मथुरा, लखनऊ, टांडा, गाजीपुर और बनारस से प्राप्त हुई हैं। इन स्वर्ण मुद्राओं के मुखभाग पर चन्द्रगुप्त और उसकी रानी के स्थानक चित्र हैं और चन्द्र और कुमारदेवी शब्द उत्कीर्ण हैं। पृष्ठ भाग पर सिंहवाहिनी देवी और उसके नीचे लिच्छवयः अंकित है।
समुद्रगुप्त (335-375 ई.) –
चन्द्रगुप्त का उत्तराधिकारी उसका पुत्र समुद्रगुप्त था, जो काच नामक अपने वंश के एक राजकुमार को पराजित कर शासक बना। उसमें महान सैनिक प्रतिभा थी। उसे भारत का नेपोलियन भी कहा जाता है, हालांकि नेपोलियन की तरह वह कभी पराजित नहीं हुआ। वह विद्वान्, काव्यकला व संगीत में प्रवीण था।
इलाहाबाद का स्तम्भ और एक मुद्रा इसे प्रमाणिक करते हैं। उसने कलाकारों व विद्वानों जैसे हरिषेण, बसुबंधु आदि को अपने दरबार में सरंक्षण दिया। चक्रवर्ती बनने के लिए उसने अन्य राज्यों पर अपना नियंत्रण रखा।
चन्द्रगुप्त द्वितीय (375-414 ई.) –
समुद्रगुप्त का उत्तराधिकारी उसका पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय बना, जिसका उपनाम विक्रमादित्य था। वह गुप्त राजवंश का महानतम शासक था। वह महान विजेता और प्रशासक था। उसने अपने पिता के साम्राज्य में मालवा तथा गुजरात जैसे समृद्धतम प्रदेशों को शामिल किया।
उसका प्रशासन अत्यंत कल्याणकारी व साम्प्रदायिक नहीं था। कला और साहित्य को उसने काफी प्रश्रय दिया। प्राचीन भारत की श्रेष्ठतम साहित्य प्रतिभा कालिदास उसकी राज्यसभा का रत्न थे। लोग समृद्ध और सुखी थे। इसके अतिरिक्त आर्यभट्ट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त जो गणिताचार्य तथा नक्षत्र वैज्ञानिक भी नवरत्नों में शामिल थे। धन्वन्तरि जो प्रसिद्ध चिकित्सक थे, इसकी के शासनकाल में हुए थे। चीनी यात्री फाह्यान इसी के शासनकाल में भारत आया था।
कुमार गुप्त (414-455 ई.) –
यह गुप्तवंश का अंतिम शासक था। इसके शासनकाल में हूण जाति के लोगों ने अपने आक्रमण गुप्त राज्य पर आरंभ कर दिए थे। स्कंदगुप्त ने उन सबका मुकाबला किया और बुद्धिमानी से शासन किया। उसने अपने आपको चक्रवर्ती राजा घोषित किया। हूणों के आक्रमण से गुप्त साम्राज्य क्षत-विक्षत अवश्य हो गया था। तत्पश्चात गुप्त साम्राज्य समाप्त हो गया।
स्कन्दगुप्त (455-467 ई.) –
कुमारगुप्त प्रथम की मृत्यु के बाद उसका पुत्र स्कंदगुप्त गद्दी पर बैठा। एक मत यह है कि उत्तराधिकार के लिए स्कंदगुप्त व उसके सौतेले भाई पुरागुप्त के मध्य संघर्ष हुआ था। उल्लेखनीय है कि चन्द्रगुप्त प्रथम के समय से ही गुप्त राज्याधिकार का निर्णय ज्येष्ठता की अपेक्षा योग्यता एवं क्षमता पर निर्धारित होने लगा था।
भारत का स्वर्ग युग –
गुप्त वंश 320-480 ई. तक रहा। इस अवधि में शांति, समृद्धि व चतुर्मुखी विकास हुआ, जिसके फलस्वरूप इस काल को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग के नाम से जाना जाता है। इस युग में कला, विज्ञान, साहित्य, वास्तुकला आदि के क्षेत्र में आशातीत विकास हुआ। उच्च कोटि की शासन व्यवस्था स्थापित हुई।शासन, उद्योग, कृषि की उन्नति हुई।
गुप्त वंश का पतन –
योग्य गुप्त सम्राटों में स्कंदगुप्त अंतिम नरेश था। लगभग दो शताब्दियों तक पल्लवन व सम्वर्द्धन के पश्चात् गुप्त वंश की अवसान प्रक्रिया आरम्भ हो गई। गुप्त साम्राज्य के पतन हेतु हूण आक्रमण, सामन्त संघीय संघटन, अयोग्य उत्तराधिकारी, उत्तराधिकार युद्ध, दोषपूर्ण प्रशासनिक व्यवस्था, यशोधर्मन का अभ्युदय आदि प्रमुख उत्तरदायी कारण थे।
गुप्त कालीन प्रशासन –
गुप्त शासकों ने एक कुशल प्रशासनिक तंत्र की स्थापना की। गुप्तों की उत्तराधिकार-व्यवस्था भी इस बात का प्रमाण है कि गुप्त सम्राट राजपद को दैवप्रद नहीं वरन योग्यता आधारित समझते थे।
(1) केन्द्रीय शासन –
गुप्त साम्राज्य का प्रशासन सम्राट केन्द्रित था। सम्राट राज्य का सर्वोच्च पदाधिकारी होता था। राजा की सहायता के लिए मंत्रिपरिषद होती थी। गुप्त अभिलेखों में मंत्रियों के लिए अमात्य, सचिव आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है।
(2) प्रान्तीय शासन –
विशाल गुप्त साम्राज्य अनेक इकाइयों में विभक्त था।
शासन की सबसे बड़ी इकाई प्रान्त थी जिसे देश, भुक्ति या भोग कहा जाता था।
गुप्त सम्राट द्वारा नियुक्त प्रान्त के शासकों को गोप, उपरिक या उपरिक महाराज, भौगिक लोकपाल, राजस्थानिय कहते थे।
प्रान्तपति के मुख्य कार्य थे –
प्रान्त में शांति व सुव्यवस्था कायम रखना, कर वसूलना, नहर, बांध, पथ आदि का निर्माण कराना आदि।
प्रत्येक प्रान्त जिलों में विभाजित था जिसे विषय कहा जाता था।
विषयपति की नियुक्ति सामान्यतः उपरिक करता था ।
किन्तु कभी कभी विषय की राजनीतिक व सामरिक विशिष्टता के कारण स्वयं सम्राट भी विषयपति नियुक्त करता था।
(3) न्याय व्यवस्था –
राजा सर्वोच्च न्यायाधीश था।
राजा के न्यायालय को सभा, धर्मस्थान अथवा धर्माधिकरण कहा जाता था।
न्यायाधीश अधिकरणिक कहलाते थे और न्यायालय अधिकरण।
न्यायालय में मुकदमे के पूर्व शपथ ग्रहण की परमपरा थी।
अपराधी को निर्दोष सिद्ध करने के लिए चार प्रकार की परीक्षाएँ विष, जल, तुला और अग्नि देने का प्रावधान था।
(4) सैनिक प्रशासन –
सेना विभाग का मुख्य अधिकारी संधिविग्रहिक था।
उसके अधीन महासेनापति, बलाधिकृत, रणभाण्डागारिक, भटाश्वपति आदि अधिकारी होते थे।
सेना का कार्यालय बलाधिकरण कहलाता था।
सेना में परंपरागत चार अंग थे – हस्ति, अश्व, रथ, पदाति।
(5) राजस्व –
भूमि राज्य की आय का प्रमुख साधन थी।
भूमिकर को भाग, भोग, उद्रगं और उपरिकर कहा जाता था।
संभवतः उपज का छठा भाग कर के रूप में दिया जाता था।
कारीगरों से लिया जाने वाला कर कारुकर दो रूपों में लिया जाता था, विष्टि (बेगार) व द्रव्य।
व्यापारिक वस्तुओं पर चुंगी ली जाती थी।
न्याय शुल्क, अर्थदण्ड, माण्डलिक राजाओं से कर, उपहार, सिंचाई कर आदि आय के अन्य स्रोत थे।
(6) सामन्त प्रथा का उदय –
गुप्तकालीन प्रशासनिक व्यवस्था ने सामंतवाद के उद्भव की पृष्ठभूमि निर्मित की।
पराजित नरेशों के प्रति गुप्त नरेशों ने जो निति अपनाई उससे सामंतवाद की प्रवृत्ति विकसित हुई।