संत दादू दयाल (1544-1603)
संत दादू दयाल का जन्म अहमदाबाद में चैत्र शुक्ला अष्टमी वि.सं. 1601 (सन 1544 ई.) को हुआ लेकिन साधना भूमि व कर्मभूमि राजस्थान ही रही। इनका पालन-पोषण एक ब्राह्मण के हाथों हुआ।
इनके दो पुत्र गरीबदास जी व मिस्किनदासजी और दो पुत्रियाँ नानोबाई व मताबाई थी।
ग्यारह वर्ष की अवस्था में बुड्ढन (वृद्धानंद) नामक संत से इन्होंने दिक्षत्व ग्रहण किया। इन्होंने नागौर, सांभर, आमेर में अपने जीवन का अधिकांश समय व्यतीत किया एवं सिद्धांतों का प्रसार किया।
मारवाड़ में भ्रमण करते हुए फुलेरा के निकट नारायणा में उन्होंने अपने जीवन का अंतिम समय व्यतीत किया। यहीं पर 1603 ई. में उन्होंने इस जगत से महाप्रयाण किया।
इन्होंने दादू पंथ का प्रवर्तन किया तथा मूर्ति पूजा, भेदभाव एवं आडम्बरों का विरोध करते हुए निर्गुण-निरंजन ब्रह्म की उपासना तथा ज्ञान मार्ग के अनुसरण का उपदेश दिया।
दादू पंथी छः प्रकार के होते हैं –
1. खालसा – गरीबदास जी की आचार्य परम्परा से संबंद्ध साधु, जो मुख्य पीठ नरायणा में रहते हैं।
2. विरक्त – अकेले या मंडली में रमते-फिरते रहकर गृहस्थियों को दादू पंथ का उपदेश देने वाले साधु।
3. उत्तरादे व स्थानधारी – जो राजस्थान छोड़कर उत्तरी भारत में चले गए। ये मुख्यतः हरियाणा व पंजाब में हैं।
4. खाकी – जो शरीर पर भस्म लगाते हैं, जटा रखते हैं व खाकी वस्र पहनते हैं।
5. इनमें नागा साधु थे, जो वैरागी होते हैं,नग्न रहते हैं तथा शस्र रखते हैं।
6. निहंग – ये घुमन्तु साधु थे।
संत दादू दयाल के प्रमुख शिष्यों में दोनों पुत्रों के अलावा बखनाजी, रज्ज्बजी, सुन्दरदासजी, संतदासजी, जगन्नाथजी, माधोदासजी आदि थे।
इनके उपदेश दादूजी जी वाणी व दादूजी रा दूहा में संग्रहित हैं।
दादूजी के उपदेशों व लेखन की भाषा सरल हिंदी मिश्रित सधुक्कड़ी थी।
संत दादू को राजस्थान का कबीर कहा जाता है।
दादू पंथ की प्रमुख पीठ नरायणा (जयपुर) में स्थित है।
दादूपंथी साधु आपस में अभिवादन में सत्तराम कहते हैं।
इस पंथ के सत्संग अलख दरीबा कहलाते हैं। संत दादू दयाल ने ऐसे स्थान को चौगान भी कहा है।
दादू के प्रमुख 52 शिष्यों को दादू पंथ के बावन स्तम्भ कहा जाता है।
इस सम्प्रदाय के प्रमुख स्थल नरायणा में दादू के जन्म दिन पर प्रत्येक वर्ष फाल्गुन शुक्ला पंचमी से एकादशी तक विशाल मेला भरता है।