वीर दुर्गादास राठौड़
स्वामिभक्त वीर शिरोमणि दुर्गादास राठौड़ के पिता आसकरण महाराजा जसवंत सिंह के मंत्री थे।
इनका जन्म 13 अगस्त, 1638 को मारवाड़ के सालवा गाँव में हुआ।
ये जसवंत सिंह की सेना में रहे।
महाराजा की मृत्यु के बाद उनकी रानियों तथा खालसा हुए जोधपुर के उत्तराधिकारी अजीतसिंह की रक्षा के लिए मुगल सम्राट औरंगजेब से उसकी मृत्यु-पर्यन्त (1707 ई.) राठौड़-सिसौदिया संघ का निर्माण कर संघर्ष किया।
शहजादा अकबर को औरंगजेब के विरुद्ध सहायता दी।
उसके पुत्र-पुत्री (बुलन्द अख्तर व सफीयतुनिस्सा) को इस्लामोचित शिक्षा देकर धर्म निभाया एवं सहिष्णुता का परिचय दिया।
वीर दुर्गादास राठौड़ ने 1695-96 में ईश्वरदास नागर की मध्यस्थता से अकबर की पुत्री सफीयतुनिस्सा को तथा 1698 ई. में अकबर के पुत्र बुलंद अख्तर को औरंगजेब को सौंप दिया।
सफीयतुनिस्सा के यह बताने पर की दुर्गादास राठौड़ ने उनका बहुत ध्यान रखा व उनकी धार्मिक शिक्षा का भी पूरा प्रबंध किया था, प्रबल हिन्दू विरोधी औरंगजेब दुर्गादास से बहुत प्रसन्न हुआ और उसने दुर्गादास राठौड़ का 3000 जात व 2000 सवार का मनसब निर्धारित किया व माहवार तनख्वाह भी नियत की।
दुर्गादास राठौड़ को जैतारण, मेड़ता व सिवाणा के परगने दिए गए।
अंत में महाराजा अजीतसिंह से अनबन होने पर परिवार सहित मेवाड़ महाराणा अमरसिंह द्वितीय की सेवा में चले गए
ऐसा करके उन्होंने अपने स्वावलंबी होने का परिचय दिया।
बाद में उन्हें रामपुर के हाकिम नियुक्त किया गया।
वीर दुर्गादास राठौड़ की मृत्यु उज्जैन में 22 नवम्बर, 1718 में हुई।
उनका अंतिम संस्कार क्षिप्रा नदी के तट पर हुआ।
उनकी वीरता एवं साहस के गुणगान में मारवाड़ में यह उक्ति प्रचलित है-
‘मायड ऐसा पुत जण जैसा दुर्गादास’।
राजस्थान के इतिहास में मेवाड़ की पन्नाधाय के पश्चात् दुर्गादास दूसरे व्यक्ति हैं जिनकी स्वामिभक्ति अनुकरणीय है।
उन्होंने जीवन भर अपने स्वामी मारवाड़ के महाराजाओं की सेवा की।
ऐसे साहसी, वीर और कूटनीतिज्ञ के कारण ही मारवाड़ का राज्य स्थाई रूप से मुगल साम्राज्य का अंग नहीं बन सका।