राजस्थान की प्रमुख प्रथाएँ
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राजस्थान की प्रचलित प्रमुख प्रथाएँ निम्न हैं –
नाता प्रथा –
नाता प्रथा में पत्नी अपने पति को छोड़कर किसी अन्य पुरुष के साथ रहने लगती है। यह प्रथा विशेषतः आदिवासी जातियों में प्रचलित है।
डावरिया प्रथा –
डावरिया प्रथा में राजा-महाराजा व जागीरदारों द्वारा अपनी लड़की की शादी में दहेज के साथ कुछ कुँवारी कन्याएँ भी दी जाती थी। जिन्हें डावरिया कहा जाता था।
केसरिया करना –
राजपूत योद्धाओं द्वारा पराजय की स्थिति में पलायन करने या शत्रु के समक्ष आत्मसमर्पण करने की बजाय केसरिया वस्त्र धारण कर दुर्ग के द्वार पर भूखे शेर की भाँती शत्रु पर टूट पड़ना व उन्हें मौत के घाट उतारते हुए स्वयं भी प्राणोत्सर्ग करना केसरिया करना कहा जाता था।
जौहर प्रथा –
जब युद्ध में जीत की उम्मीद समाप्त हो जाती है तो शत्रु से अपने शील-सतीत्व की रक्षा करने हेतु वीरांगनाएं दुर्ग में प्रज्जवलित अग्नि कुण्ड में कूदकर सामूहिक आत्मदाह कर लेती थी। जिसे जौहर प्रथा कहा जाता था।
सती प्रथा –
जब पति की मृत्यु हो जाती तो पत्नी को उसके शव के साथ चिता में जलकर मृत्यु को वरण करना ही सती प्रथा कहलाती है। राजस्थान में इस प्रथा का प्रचलन राजपूत जाति में ज्यादा था। राज्य में सर्वप्रथम 1822 ई. में बूंदी में सतीप्रथा को गैर क़ानूनी घोषित किया गया। राजा राममोहन राय के प्रयासों से लार्ड विलियम बैंटिग ने 1829 ई. में सरकारी अध्यादेश से इस प्रथा पर रोक लगाई।
त्याग प्रथा –
राजस्थान में राजपूत जाति में विवाह के अवसर पर चारण, भाट, ढोली आदि लड़की वालों से मुँह माँगी दान-दक्षिणा प्राप्ति के लिए हठ करते थे, जिसे त्याग कहा जाता था। इस कुप्रथा के कारण भी प्रायः कन्या का वध कर दिया जाता था। सर्वप्रथम 1841 ई. में जोधपुर राज्य में ब्रिटिश अधिकारीयों के सहयोग से नियम बनाकर त्याग प्रथा को सीमित करने का प्रयास किया गया।
डाकन प्रथा –
राजस्थान की कई जातियों में विशेषकर भील और मीणा जातियों में स्त्रियों पर डाकन होने का आरोप लगा कर उन्हें मार डालने की कुप्रथा व्याप्त थी। सर्वप्रथम अप्रैल, 1853 ई. में मेवाड़ में महाराणा स्वरूप सिंह के समय में मेवाड़ भील कोर के कमान्डेंट जे.सी. ब्रुक ने खैरवाड़ा (उदयपुर) में इस प्रथा को गैर क़ानूनी घोषित किया।
बाल विवाह –
यह कम उम्र में ही विवाह कर देने की प्रथा है। प्रत्येक वर्ष राजस्थान में अक्षय तृतीया पर सैकड़ों बच्चों का विवाह कर दिया जाता हैं। अजमेर के श्री हरविलास शारदा ने 1929 ई. में बाल विवाह निरोधक अधिनियम प्रस्तावित किया। जिसे शारदा एक्ट के नाम से जाना जाता है। शारदा एक्ट में प्रावधान किया गया कि 15 साल से कम उम्र की लड़की व 18 साल से कम उम्र के लड़के का विवाह गैर कानूनी माना गया।
पर्दा प्रथा –
इस प्रथा में महिलाओं को पर्दे में रखा जाता है। राजपूत समाज में तो पर्दा प्रथा अत्यंत कठोर थी। मुस्लिम समाज में यह एक धार्मिक प्रथा है। 19वीं शताब्दी में कुछ समाज सुधारकों ने इस प्रथा का विरोध किया। जिनमें स्वामी दयानंद सरस्वती प्रमुख थे।
दहेज़ प्रथा –
विवाह के समय वधू पक्ष द्वारा वर पक्ष को दिया जाने वाला धन व सम्पति दहेज़ कहलाता हैं। वर्तमान में इस प्रथा ने विकराल रूप धारण कर लिया है। 1961 में भारत सरकार द्वारा दहेज निरोधक अधिनियम पारित कर लागू किया गया।
दास प्रथा –
यह प्रथा राजस्थान में प्राचीन काल से ही प्रचलित थी। दास-दासियों में प्रायः ऐसे लोग होते थे, जिन्हें युद्ध के समय बंदी बना लिया जाता था। सन 1832 ई. में विलियम बैंटिक ने दास प्रथा पर रोक लगाई।
बेगार प्रथा –
सामंतों, जागीरदारों व राजाओं द्वारा अपनी रैयत से मुफ्त सेवाएँ लेना ही बेगार प्रथा कहलाती थी। इसके बदले कोई मजदूरी नहीं दी जाती थी। गाँवों में परम्परागत रूप से दी जाने वाली बेगार प्रथा का अंत राजस्थान के एकीकरण और उसके बाद जागीरदारी प्रथा की समाप्ति के साथ ही हुआ।
बंधुआ मजदूर प्रथा या सागड़ी प्रथा –
पूंजीपति या महाजन आदि द्वारा साधनहीन लोगों को उधार दी गई राशि के बदले या ब्याज की राशि के बदले उस व्यक्ति या उसके परिवार के किसी सदस्य को अपने यहाँ घरेलु नौकर के रूप में रख लेना बंधुआ मजदूरी या सागड़ी प्रथा कहलाती है।