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मीरा बाई

मीरा बाई

मीरा बाई

जीवन परिचय –

मीरा बाई का जन्म सन 1498 ई. में मेड़ता के पास कुड़की गाँव (वर्तमान में पाली जिले में) में हुआ था। इनके पिता श्री रतनसिंह राठौड़ बाजोली के जागीरदार थे। बाल्यावस्था में माँ का निधन हो जाने के कारण मीरा बाई का पालन-पोषण अपने दादाजी (राव दूदा) के यहाँ मेड़ता में हुआ।

इनका बचपन (जन्म) का नाम पेमल था। मेवाड़ के महाराणा सांगा (संग्रामसिंह) के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज से उनका विवाह हुआ, लेकिन कुछ वर्ष बाद ही इनके पति की मृत्यु हो गई थी।

मीरा बाई ने अपने जीवनकाल में माता, पति, पिता और दादा के देहान्त के कष्ट सहे। मृत्यु को जीवन की हकीकत सिद्ध करने वाली विविध घटनाओं ने मीरा बाई को और अधिक ईश्वरोमुखी बना दिया और अधिकांश समय सत्संग व भजन-कीर्तन में व्यतीत करने लगी।

मीरा के देवर महाराणा विक्रमादित्य द्वारा वंश परम्परा के विरुद्ध राज परिवार की बहू के साधू-संतों के साथ सत्संग व भजन कीर्तन को नापसंद करते थे,

अतः वे इनकी साधना में अनेक बाधाएँ व विघ्न डालते रहते थे।

यथा विष पान, सर्पदंश, शिशूल के प्रयास।

कहा जाता है कि मीरा जी ने रविदास से दीक्षा ग्रहण की।

रैदास के गुरुत्व के अधीन ही मीरा की भक्ति साधना चरमोत्कर्ष पर पहुँची।

भक्त शिरोमणि मीरा कुछ समय के लिए वृंदावन भी गई थी।

मीरा सगुण साकार परमेश्वर की भक्त थी।

ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पित, शरणागत प्रेमायुक्त भगवद भजन, साधु संगीत उनकी भक्ति के प्रमुख अंग थे।

जात-पात, वर्ग भेद में उनका कोई विश्वास नहीं था। स्री की दशा के पराभव काल में

मीरा के जीवन की विभिन्न गतिविधियाँ क्रान्तिकारी संबोधित की जा सकती है।

मीरा बाई ने सगुण भक्ति का सरल मार्ग भजन, नृत्य एवं कृष्ण स्मरण को बताया।

मीरा की भक्ति में ज्ञान पर उतना बल नहीं है जितना भावना और श्रद्धा पर है।

इनकी भक्ति माधुर्य भाव की है।

इनको राजस्थान की राधा कहा जाता है।

मीरा जी अपने अंतिम समय में गुजरात के डाकोर स्थित रणछोड़ मंदिर में चली गई और

वहीँ अपने गिरधर गोपाल में विलीन हो गई।

मीरा बाई की पदावलियाँ प्रसिद्ध है।

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