अध्याय 2. धर्मनिरपेक्षता की समझ (कक्षा 8)
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धर्मनिरपेक्षता की समझ– इतिहास में हमें धर्म के आधार पर भेदभाव, बेदखली और अत्याचार के अनेक उदाहरण मिलते हैं।
शायद आपने पढ़ा होगा कि हिटलर ने जर्मनी में यहूदियों पर किस तरह के अत्याचार किए?
वहाँ कई लाख लोगों को केवल धर्म के आधार पर मार दिया गया था।
लेकिन अब यहूदी धर्म को मानने वाले इजराइल में भी मुसलमान और ईसाई अल्पसंख्यकों के साथ अमानवीय व्यवहार किया जा रहा है।
भेदभाव की ऐसी घटनाएँ तब और ज्यादा बढ़ जाती हैं जब दूसरे धर्मों के स्थान पर राज्य किसी एक धर्म को अधिकृत मान्यता प्रदान कर देता है।
धर्मनिरपेक्षता क्या है?
भारतीय संविधान सभी को अपने धार्मिक विश्वासों और तौर-तरीकों को अपनाने की पूरी छूट देता है।
सबके लिए समान धार्मिक स्वतंत्रता के इस विचार को ध्यान में रखते हुए भारतीय राज्य ने धर्म और राज्य की शक्ति को एक-दूसरे से अलग रखने की रणनीति अपनाई है।
धर्म को राज्य से अलग रखने की इसी अवधारणा को धर्मनिरपेक्षता कहा जाता है।
धर्म को राज्य से अलग रखना महत्त्वपूर्ण क्यों है?
एक लोकतान्त्रिक देश में धर्म को राजसत्ता से अलग रखना बहुत ज़रूरी है।
दुनिया के लगभग सारे देशों में एक से ज्यादा धर्मों के लोग साथ-साथ रहते हैं और हर देश में किसी एक धर्म के लोगों की संख्या ज्यादा होगी।
अब अगर बहुमत वाले धर्म के लोग राज्य सत्ता में पहुँच जाते हैं तो उनका समूह दूसरे धर्मों के खिलाफ़ भेदभाव करने और उन्हें परेशान करने के लिए इस सत्ता और राज्य के आर्थिक संसाधनों का इस्तेमाल कर सकता है।
बहुमत की इस निरंकुशता के चलते धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव हो सकता है।
धर्म के आधार पर किसी भी तरह का भेदभाव उन अधिकारों का उल्लंघन है जो एक लोकतांत्रिक समाज किसी भी धर्म को मानने वाले अपने प्रत्येक नागरिक को प्रदान करता है।
लोकतांत्रिक समाजों में धर्म को राज्य से अलग रखने का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह है की हमें लोगों के धार्मिक चुनाव के अधिकार की रक्षा करनी है।
भारतीय धर्मनिरपेक्षता क्या है?
हमारे संविधान के अनुसार, केवल धर्मनिरपेक्ष राज्य ही अपने उद्देश्यों को साकार करते हुए निम्नलिखित बातों का खयाल रख सकता है कि –
- कोई एक धार्मिक समुदाय किसी दूसरे धार्मिक समुदाय को न दबाए।
- कुछ लोग अपने ही धर्म के अन्य सदस्यों को न दबाएँ।
- राज्य न तो किसी खास धर्म को थोपेगा और न ही लोगों की धार्मिक स्वतंत्रता छीनेगा।
धर्म से दूर
भारतीय राज्य खुद को धर्म से दूर रखता है।
भारतीय राज्य की बागडोर न तो किसी एक धार्मिक समूह के हाथों में है और न ही राज्य किसी एक धर्म को समर्थन देता है।
भारत में कचहरी, थाने, सरकारी विद्यालय और दफ्तर जैसे सरकारी संस्थानों में किसी खास धर्म को प्रोत्साहन देने या उसका प्रदर्शन करने की अपेक्षा नहीं की जाती है।
सरकारी स्कूल अपनी प्रातःकालीन प्रार्थनाओं या धार्मिक आयोजनों के जरिए किसी एक धर्म को बढ़ावा नहीं दे सकते।
यह नियम निजी विद्यालयों पर लागू नहीं है।
अहस्तक्षेप की नीति
धार्मिक वर्चस्व को रोकने के लिए भारतीय धर्मनिरपेक्षता का दूसरा तरीका है अहस्तक्षेप की नीति।
इसका मतलब है कि सभी धर्मों की भावनाओं का सम्मान करने और धार्मिक क्रियाकलापों में दखल न देने के लिए,
राज्य कुछ खास धार्मिक समुदायों को कुछ विशेष छुट देता है।
जैसे – सिख धर्म के लोगों के पगड़ी पहनने की प्रथा के कारण दुपहिया वाहन चलते समय हैलमेट पहनने से छुट।
हस्तक्षेप का तरीका
धार्मिक वर्चस्व को रोकने के लिए भारतीय धर्मनिरपेक्षता का तीसरा तरीका हस्तक्षेप का तरीका है।
धर्म के नाम पर अलग-थलक करने और भेदभाव को रोकने के लिए भारतीय संविधान ने छुआछूत पर पाबंदी लगाई है।
राज्य धर्म के नाम पर अलग-थलक करने और भेदभाव को बढ़ावा देने वाली उस प्रथा को खत्म करने के लिए धर्म में हस्तक्षेप कर रहा है जो निचली जातियों के लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन करता है क्योंकि वे भी इसी देश के नागरिक हैं।
इसी प्रकार माता-पिता की संपत्ति में बराबर हिस्से के अधिकार का सम्मान करने के लिए राज्य को
समुदायों के धर्म पर आधारित निजी कानूनों में भी हस्तक्षेप करना पड़ सकता है।
भारतीय संविधान अपने नागरिकों को मौलिक अधिकारों का आश्वासन देता है।
ये अधिकार इन धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों पर आधारित हैं।
लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि भारतीय समाज में इन अधिकारों का उल्लंघन बंद हो गया है।
बल्कि वास्तव में ऐसे उल्लंघनों की वजह से ही हमारे सामने संवैधानिक व्यवस्था की जरूरत बनी हुई है।
अन्य तथ्य –
संयुक्त राज्य अमेरिका में सरकारी स्कूलों के जयादातर बच्चे सुबह सबसे पहले ‘वफ़ादारी की शपथ’ (Pledge of allegiance) लेते हैं।
इस शपथ में ‘ईश्वर की छत्रछाया’ शब्द आते हैं।
अगर यह शपथ किसी बच्चे की धार्मिक आस्था को ठेस पहुँचाती है तो उसे इसको दोहराने की ज़रूरत नहीं है।
फरवरी 2004 में फ़्रांस में एक कानून बनाकर यह प्रावधान किया गया कि कोई भी विद्यार्थी इस्लामी बुरका, यहूदी टोपी या बड़े-बड़े ईसाई क्रोस जैसे धार्मिक अथवा राजनीतिक चिह्नों या प्रतीकों को धारण करके स्कूल में नहीं आएगा।
फ्रांस में रहने वाले उन आप्रवासियों ने इस कानून का काफ़ी विरोध किया।