कक्षा 8 अध्याय 6 हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली
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वास्तविक जीवन या फिल्मों में आपने देखा होगा कि पुलिस अफसर रिपोर्ट दर्ज करते हैं और अपराधियों को गिरफ्तार करते हैं। हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली में अपराधियों को गिरफ्तार करने में पुलिस की जो भूमिका होती है उसके आधार पर कई बार ऐसा लगता है मानो पुलिस ही तय करती है कि कोई अपराधी है या नहीं।
जब किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है तो अदालत ही तय करती है कि आरोपी वाकई दोषी है या नहीं।
अपराध की जाँच करने में पुलिस की क्या भूमिका होती है?
पुलिस का मुख्या कार्य किसी अपराध के बारे में मिली शिकायत की जाँच करना। जाँच के लिए गवाहों के बयान दर्ज किए जाते हैं और सबूत इकट्ठा किए जाते है।
अगर पुलिस को ऐसा लगता है कि सबूतों से आरोपी का दोष साबित हो रहा है तो पुलिस अदालत में आरोपपत्र/चार्टशीट दाखिल कर देती है। किसी छोटे से छोटे अपराध के लिए भी पुलिस किसी को कोई सज़ा नहीं दे सकती।
संविधान के अनुच्छेद 22 और फौजदारी कानून में प्रत्येक गिरफ्तार व्यक्ति को निम्नलिखित मौलिक अधिकार दिए गए हैं –
- गिरफ़्तारी के समय उसे यह जानने का अधिकार है कि गिरफ़्तारी किस कारण से की जा रही है।
- गिरफ्तार करने के 24 घंटों के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने का अधिकार।
- गिरफ़्तारी के दौरान या हिरासत में किसी भी तरह के दुर्व्यवहार या यातना से बचने का अधिकार।
- पुलिस हिरासत में दिए गए इकबालिया बयान को आरोपी के खिलाफ सबूत के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।
- 15 साल से कम उम्र के बालक और किसी भी महिला को केवल सवाल पूछने के लिए थाने में नहीं बुलाया जा सकता।
सर्वोच्च न्यायालय ने किसी भी व्यक्ति की गिरफ़्तारी, हिरासत और पूछताछ के बारे में पुलिस एवं अन्य संस्थाओं के लिए कुछ खास शर्त और प्रक्रियाएँ तय की हुई हैं। इन नियमों को डी.के. बसु दिशानिर्देश कहा जाता है।
कुछ दिशानिर्देश इस प्रकार हैं –
- गिरफ़्तारी या जाँच करने वाले पुलिस अधिकारी को पोशाक पर उसकी पहचान, नामपट्टी तथा पद स्पष्ट व सटीक रूप से अंकित होना चाहिए।
- गिरफ़्तारी के समय अरेस्ट मेमो के रूप में गिरफ़्तारी संबंधी पूरी जानकारी का कागज तैयार किया जाए। उसमें गिरफ़्तारी के समय व तारीख का उल्लेख होना चाहिए। उसके सत्यापन के लिए कम से कम एक गवाह होना चाहिए। वह गिरफ्तार व्यक्ति के परिवार का सदस्य भी हो सकता है। अरेस्ट मेमो पर गिरफ्तार व्यक्ति के हस्ताक्षर नोने चाहिए।
- गिरफ्तार किए गए, हिरासत में रखे गए या जिससे पूछताछ की जा रही है, ऐसे व्यक्ति को अपने किसी संबंधी या दोस्त या शुभचिंतक को जानकारी देने का अधिकार होता है।
- जब गिरफ्तार व्यक्ति का दोस्त या संबंधी उस जिले से बाहर रहता हो तो गिरफ़्तारी के 8-12 घंटे के भीतर उसे गिरफ़्तारी के समय, स्थान व हिरासत की जगह के बारे में जानकारी भेज दी जानी चाहिए।
प्रथम सूचना रिपोर्ट/प्राथमिकी (एफ.आई.आर.)
कानून में कहा गया है कि किसी संज्ञेय अपराध की सूचना मिलने पर थाने के प्रभारी अधिकारी को फ़ौरन एफ.आई.आर. दर्ज करनी चाहिए। पुलिस को यह सूचना मौखिक या लिखित, किसी भी प्रारूप में मिल सकती है। एफ.आई.आर. में आमतौर पर वारदात की तारीख, समय और स्थान का उल्लेख किया जाता है।
उसमें वारदात के मूल तथ्यों और घटनाओं का विवरण भी लिखा जाता है। अगर अपराधियों का पता हो तो उनके नाम तथा गवाहों का भी उल्लेख किया जाता है। एफ.आई.आर. में शिकायत दर्ज कराने वाले का नाम और पता लिखा होता है।
एफ.आई.आर. के लिए पुलिस के पास एक खास फॉर्म होता है। इस पर शिकायत करने वाले के हस्ताक्षर कराए जाते हैं। शिकायत करने वाले को पुलिस से एफ.आई.आर. की एक नक़ल मुफ्त पाने का क़ानूनी अधिकार होता है।
सरकारी वकील की क्या भूमिका होती है?
अदालत में सरकारी वकील राज्य का पक्ष प्रस्तुत करता है। सरकारी वकील की भूमिका तब शुरू होती है जब पुलिस जाँच पूरी करके अदालत में आरोपपत्र दाखिल कर देती है। उसे राज्य की ओर से अभियोजन प्रस्तुत करना होता है।
न्यायालय के पदाधिकारी के रूप में उसकी जिम्मेदारी है कि वह निष्पक्ष रूप से अपना काम करे और अदालत के सामने सारे ठोस तथ्य, गवाह और सबूत पेश करे। तभी अदालत सही फैसला दे सकती है।
न्यायाधीश की क्या भूमिका होती है?
न्यायाधीश निष्पक्ष भाव से और खुली अदालत में मुकदमे का संचालन करते हैं। न्यायाधीश सारे गवाहों के बयान सुनते हैं और अभियोजन पक्ष तथा बचाव पक्ष की तरफ से पेश किए गए सबूतों की जाँच करते हैं।
अपने सामने मौजूद बयानों व सबूतों के आधार पर कानून के अनुसार न्यायाधीश ही तय करते हैं कि आरोपी सचमुच दोषी है या नहीं। अगर आरोपी दोषी पाया जाता है तो न्यायाधीश उसे सजा सुनाते हैं।
वह कानून में दिए गए प्रावधानों के हिसाब से दोषी व्यक्ति को जेल भेज सकते हैं या उस पर जुर्माना लगा सकते हैं या एक साथ दोनों तरह की सजा दे सकते हैं।
निष्पक्ष सुनवाई (Fair Trial) क्या होती है?
संविधान के अनुच्छेद 21 में जीवन के अधिकार का आश्वासन दिया गया है। इसका अर्थ यह है कि किसी भी व्यक्ति के जीवन या स्वतंत्रता को केवल एक तर्कसंगत और न्यायपूर्ण कानूनी प्रक्रिया के जरिए या स्वतंत्रता को केवल एक तर्कसंगत और न्यायपूर्ण क़ानूनी प्रक्रिया के जरिए ही छिना जा सकता है।
मुकदमा जनता एक सामने खुली अदालत में चलाया जाता है। मुकदमा आरोपी की उपस्थिति में चलाया जाता है। आरोपी की तरफ से वकील पेश किए गए सारे गवाहों से जिरह करता है और आरोपी की तरफ से भी गवाह पेश कर सकता है।
न्यायाधीश अदालत के सामने पेश किए गए साक्ष्यों के आधार पर ही मुकदमे का फैसला सुनाता है।