राजस्थान की लोक गायन शैलियाँ
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राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में यहाँ की लोक गायन की विशेष शैलियाँ विकसित हुई हैं। जो निम्नानुसार हैं-
माँड गायिकी –
प्राचीन काल में जैसलमेर क्षेत्र ‘मांढ’ कहलाता था जिसके कारण इस क्षेत्र में गाई जाने वाली राग ‘माँड’ राग कहलाई। माँड गायिकी शास्त्रीय गायन की लोक शैली है। यहाँ की जैसलमेरी माँड, बीकानेरी माँड, जोधपुरी माँड, जयपुर की माँड आदि प्रमुख हैं।
राज्य की प्रमुख माँड गायिकाएँ स्व. गवरी देवी (बीकानेर), स्व. हाजन अल्लाह जिलाह बाई (बीकानेर), गवरी देवी (पाली), माँगी बाई (उदयपुर), श्रीमती जमीला बानो (जोधपुर), श्रीमती बन्नो बेगम (जयपुर) आदि हैं।
मांगणियार गायिकी –
राज्य के पश्चिमी मरुस्थलीय सीमावर्ती क्षेत्रों बाड़मेर, जैसलमेर, जोधपुर आदि में मांगणियार जाति के लोगों द्वारा अपने यजमानों के यहाँ मांगलिक अवसरों पर गायी जाने वाली लोक शाली, जिसमें मुख्य रूप से 6 राग एवं 36 रागनियाँ होती हैं।
मांगणियार मूलतः सिंध प्रांत के हैं। इनके प्रमुख वाद्य यंत्र कमायचा, खड़ताल आदि हैं। वर्तमान में यह गायिकी विश्व स्तर पर प्रसिद्ध हो चुकी है।
प्रमुख कलाकार- साफर खां, रमजान खां, सद्दीक खां, साकर खां, रुकमादेवी।
लंगा गायिकी –
यह राज्य के बीकानेर, बाड़मेर, जोधपुर एवं जैसलमेर आदि जिलों में मांगलिक अवसरों एवं उत्सवों पर लंगा जाति के गायकों द्वारा गायी जाने वाली गायन शैली है। लंगाओं की आजीविका इसी पर निर्भर रहती है। मूलतः राजपूत इनके यजमान होते है।
इनके प्रमुख वाद्य यंत्र सारंगी व कमायचा हैं। प्रमुख लंगा कलाकार – फूसे खां, महरदीन लंगा, अल्लादीन लंगा, करीम लंगा।
तालबंदी गायिकी –
यह राज्य के पूर्वी अंचल भरतपुर, धौलपुर, करौली एवं सवाई माधोपुर आदि में लोक गायक की शास्त्रीय परम्परा है, जिसमें राग-रागनियों से निबद्ध प्राचीन कवियों की पदावलियाँ सामूहिक रूप से गायी जाती हैं। इसे ही ‘तालबंदी’ गायिकी कहते हैं।
औरंगजेब के शासनकाल में संगीत पर पाबंदी लगा देने पर संगीत की रक्षार्थ ब्रज के कुछ साधु-महात्माओं ने सवाई माधोपुर क्षेत्र में आकर यह तालबंदी गायिकी प्रारम्भ की थी।