राजस्थान के ऐतिहासिक दुर्ग
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राजस्थान के ऐतिहासिक दुर्ग – राजस्थान की इस धरा को वीरों की भूमि कहने के साथ-साथ यदि हम दुर्गों की भूमि कहें, तो इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने भी यह लिखा कि राजपूताना की भूमि पर पग-पग पर हमें ऐतिहासिक दुर्ग देखने को मिल जाते हैं।
राजपूताने में प्राचीन काल से ही इन ऐतिहासिक किलों का महत्त्व रहा है, राजस्थान में दुर्ग निर्माण के प्रमाण हमें प्राचीन ग्रंथों व शिलालेखों से ज्ञात होते हैं।
मेवाड़ के शासक राणा कुम्भा के शासनकाल को दुर्गों (किलों) का स्वर्णकाल कहा जाता है, क्योंकि प्राचीन समय में भी मनु, शुक्र व कौटिल्य ने भी दुर्गों की अनेक श्रेणियाँ बताई, उन्हीं श्रेणियों के अनुसार राजस्थान में दुर्गों का निर्माण हुआ।
दुर्गों के प्रकार –
एरण दुर्ग – खाई, काँटों, पत्थरों का दुर्गम मार्ग
पारिख दुर्ग – चारों तरफ खाई होती है।
पारिध दुर्ग – चारों तरफ दीवार
जल/औदक दुर्ग – जलीय सीमा में बना दुर्ग
धन्व दुर्ग – चारों तरफ मरुभूमि हो
गिरि दुर्ग – एकान्त पहाड़ी पर
सैन्य दुर्ग – अभेद्य दुर्ग
सहाय दुर्ग – जिसमें शूरवीर व सदैव युद्ध के अनुकूल रहने वाले मित्र बन्धु सहित निवास करते हों
कौटिल्य ने भी चार प्रकार के दुर्गों का उल्लेख किया है –
- औदक दुर्ग – औदक अर्थात् जल, जल से घिरे टापू की तरह के दुर्ग को इस श्रेणी में रखा जाता है। जैसे – गागरोण दुर्ग
- पार्वत दुर्ग – किसी पहाड़ी पर स्थित एवं चारों ओर से पर्वत श्रेणियों द्वारा घिरे किले (गढ़) को पार्वत दुर्ग कहते है। राजस्थान के अधिकतर दुर्ग इसी प्रकार के हैं। जैसे –चित्तौड़ दुर्ग
- धान्वन दुर्ग – संस्कृत में इसका अर्थ मरुस्थल होता है। ऐसा दुर्ग जिसके चारों तरफ मरुस्थल हो धान्वन दुर्ग कहलाता है। जैसे – सोनारगढ़ का किला।
- वन दुर्ग – बीहड़ वन से चारों ओर से घिरे दुर्ग को वन दुर्ग कहते हैं। इन्हें मेवास दुर्ग भी कहा जाता है। जैसे – रणथम्भौर दुर्ग।
राजस्थान के प्रमुख ऐतिहासिक दुर्ग इस प्रकार हैं –
चित्तौड़ का दुर्ग –
- राजस्थान के दुर्गों में यह दुर्ग स्वतंत्रता एवं स्वाभिमान का प्रतिक था, इस दुर्ग के साथ अनेक वीर गाथाएँ जुड़ी हैं।
- इस दुर्ग के संदर्भ में एक उक्ति प्रसिद्ध है “गढ़ तो चित्तौड़गढ़, बाकि सब गढ़ैया” ।
- यह दुर्ग राजस्थान का गौरव, दुर्गों का सिरमौर, दक्षिण पूर्वी प्रवेश द्वार, खिज्राबाद तथा विचित्रकूट के नाम से जाना जाता है।
- इस दुर्ग की आकृति ह्वेल मछली के समान दिखाई देती है।
- यह दुर्ग क्षेत्रफल के अनुसार राज्य का सबसे बड़ा दुर्ग हैं।
- चितौड़ दुर्ग गम्भीरी व बेड़च नदियों के संगम पर अरावली पर्वतमाला में स्थित एक मजबूत गिरि दुर्ग है।
- इस दुर्ग का महत्त्व दिल्ली से मालवा और गुजरात जाने वाले मार्ग पर स्थित होने के कारण था।
- श्यामलदास द्वारा रचित वीर विनोद नामक ग्रन्थ के अनुसार, इस दुर्ग का निर्माण 7वीं शताब्दी में चित्रांगद मौर्य ने कराया जब इसका नाम चित्रकोट था। अपभ्रंश में यह नाम चित्तौड़ हो गया।
- मेवाड़ के गुहिल वंशीय संस्थापक बप्पा रावल ने राजा मान मौर्य को 734 ई. में हराकर यह दुर्ग जीता।
- राणा कुम्भा ने भी इस दुर्ग का अधिकांश भाग बनवाया, यह दुर्ग राजस्थान के इतिहास में तीन शाकों के लिए प्रसिद्ध है।
प्रथम शाका –
1303 ई. में दिल्ली के शासक अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ के रावल रतनसिंह के शासनकाल में चित्तौड़ पर आक्रमण किया।
इस युद्ध में गोरा-बादल वीरगति को प्राप्त हुए तथा रतनसिंह की रानी पद्मनी ने हजारों वीरांगनाओं के साथ जौहर किया।
कर्नल टॉड ने लिखा था कि यह जौहर इतना वीभत्स था कि इसकी आग की राख अब तक गर्म रहती है।
अलाउद्दीन ने इस युद्ध को जीतकर अपने पुत्र खिज्र खां को गवर्नर के रूप में सौंप दिया। तब इसका नाम खिज्राबाद हुआ।
द्वितीय शाका –
1534 ई. में विक्रमादित्य के शासनकाल में गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने आक्रमण किया, इस युद्ध से पूर्व चित्तौड़ की राजमाता रानी कर्मावती ने हुमायूँ को राखी भेजकर सहायता की माँग की।
लेकिन हुमायूँ ने सहायता नहीं की, रानी कर्मावती के साथ देवलिया के रावत बाघसिंह ने भी इस युद्ध में भाग दिया, लेकिन बाघसिंह मारा गया और कर्मावती ने अनेक क्षत्राणियों के साथ जौहर किया।
तृतीय शाका –
1567 ई. में मुगल बादशाह अकबर व राणा उदयसिंह के मध्य चित्तौड़ का तीसरा शाका हुआ, इस संघर्ष में उदयसिंह के वीर सेनानायक जयमल-फत्ता ने बड़ी वीरता के साथ मुगल सेना से मुकाबला किया, लेकिन ये वीरगति को प्राप्त हुए।
फत्ता की रानी फुलकंवर ने अनेक महिलाओं के साथ चित्तौड़ के दुर्ग में जौहर किया,
अकबर ने जयमल-फत्ता की वीरता पर प्रसन्न होकर आगरा के किले के प्रवेश द्वार पर इन दोनों वीरों की हाथी पर सवार प्रतिमाएं स्थापित करवाई।
चित्तौड़ के किले में राज्य का सबसे बड़ा लिविंग फोर्ट स्थित है जिसे प्रथम लिविंग फोर्ट कहा जाता है।
इस किले में बनवीर द्वारा बनाया गया तुलजा भवानी का मन्दिर स्थित है।
यह मन्दिर बनवीर ने तुला दान के धन से बनवाया था।
महाराणा रायमल के शासनकाल में निर्मित अद्भुतजी का शिव मन्दिर इसी दुर्ग में स्थित है।
राणा कुम्भा ने इस दुर्ग में विजय स्तम्भ/कीर्ति स्तम्भ का निर्माण कराया तथा विष्णु का वराह अवतार का कुम्भ स्वामी मन्दिर, मीराबाई मन्दिर, कालका मन्दिर तथा श्रृंगार चंवरी का निर्माण कराया।
चित्तौड़ दुर्ग में मीराबाई के गुरु संत रैदास की छतरी स्थित है।
इसी दुर्ग में रावत बाघसिंह का स्मारक, जयमल-फत्ता की छतरियाँ तथा वीर कल्ला जी राठौड़ की छतरी भी स्थित है।
चित्तौड़ दुर्ग में पद्मनी महल, गोरा बादल महल, नवलखा भण्डार, महासती स्थान दर्शनीय स्थल स्थित है,
इसी दुर्ग में खातण रानी का महल, लाखोटा की वारी तथा हरामियों का बाड़ा स्थित है।
इस दुर्ग में रामपुरा की हवेली, सलूम्बर की हवेली तथा कंवरपदा के खण्डहर देखे जाते हैं।
चित्तौड़ दुर्ग में 7 प्रवेश द्वार हैं जिसमें पाटन, भैरवपोल, हनुमान पोल, गणेश पोल, लक्ष्मण पोल, जोड़लापोल तथा रामपोल प्रमुख हैं।
रणथम्भौर दुर्ग –
इतिहासकार अबुल फजल ने अपने ग्रन्थ आईने अकबरी में यह लिखा था कि “राजपूताना के सभी दुर्ग नंगे हैं, परन्तु यह दुर्ग बख्तरबंद हैं” इस दुर्ग का निर्माण चौहान राजा रणथम्बदेव ने 8वीं शताब्दी में गिरी दुर्ग के रूप में कराया था,
लेकिन यह दुर्ग अरावली पर्वत मालाओं में बीहड़ वन व दुर्गम घाटियों के मध्य स्थित है, यह सात पर्वत श्रेणियों से घिरा हुआ है, यह दुर्ग पास आने पर ही दिखाई देता है। दूर से शून्य की स्थिति नजर आती है।
वर्तमान में यह दुर्ग सवाई माधोपुर में स्थित है।
रणथम्भौर का युद्ध –
1301 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने इस दुर्ग पर आक्रमण किया, क्योंकि अलाउद्दीन से पूर्व जलालुद्दीन खिलजी इस दुर्ग को जीत नहीं सका और यह कहकर दिल्ली लौट गया कि “मैं इस दुर्ग को मुस्लिम भाइयों के एक बाल के बराबर भी नहीं समझता।”
1301 ई. में रणथम्भौर के शासक हम्मीर देव चौहान के साथ अलाउद्दीन का युद्ध हुआ।
लेकिन इस युद्ध में हम्मीरदेव पराजित हुए तथा हम्मीर की रानी रंगदेवी ने जौहर किया। यह जौहर राजपूताने का प्रथम जौहर था, लेकिन इस जौहर को जल जौहर कहा जाता है।
इस युद्ध का वर्णन हम्मीर महाकाव्य (नयन चन्द्र सूरी), हम्मीर हठ (चन्द्रशेखर), हम्मीर रासो (जोधराज/सारंगधर) तथा हम्मीरायण (गौडऊ व्यास) नामक ग्रंथों में किया गया है।
रणथम्भौर दुर्ग में एक महल ऐसा है जिसमें तीन साम्प्रदायिक संस्कृतियों का समन्वय देखने को मिलता है। एक ही स्थान पर मन्दिर, मस्जिद और गिरजाघर स्थित है। इस महल को सुपारी महल कहा जाता हैं।
इसी दुर्ग में हम्मीर महल, हम्मीर की कचहरी, जोगी महल, बादल महल देखे जाते हैं।
हम्मीर ने अपने पिता जयसिंह के 32 वर्षों के शासनकाल की स्मृति में इस दुर्ग में 32 खम्बों की छतरी का निर्माण कराया।
इस दुर्ग में जौंरा-भौंरा भव्य गोदाम, लक्ष्मीनारायण मन्दिर, पीर सदरुद्दीन की दरगाह, रनिहाड़ तालाब तथा पद्मला तालाब दर्शनीय योग्य है।
इस दुर्ग में भारतवर्ष का प्रसिद्ध त्रिनेत्र गणेश मन्दिर स्थित है, इस मन्दिर में गणपति महाराज के मुख की पूजा होती है तथा राजस्थान का प्रसिद्ध गणेश मेला भी यहीं भरता है।
जैसलमेर दुर्ग –
राजस्थान की भूमि पर बना हुआ यह ऐतिहासिक दुर्ग थार के मरुस्थल का स्वर्ग दुर्ग कहलाता है।
यह दुर्ग जैसलमेर के भाटी राजपूत राजाओं के शौर्य का प्रतीक था। इस दुर्ग को “उत्तर भड़ किवाड़” के रूप में भी जाना जाता है हालाँकि यह उपमा हनुमानगढ़ में स्थित भटनेर दुर्ग को भी प्राप्त है।
महारावल जैसल ने 12 जुलाई, 1155 ई. को त्रिकूट पहाड़ी पर इस धान्वन दुर्ग की नींव रखी।
इस दुर्ग का पूर्ण निर्माण जैसल के पुत्र शालीवाहन द्वितीय ने 1187 ई. में करवाया।
यह दुर्ग पीले पत्थरों से तथा बिना चूने के प्रयोग से निर्मित हुआ। इस दुर्ग में सबसे अधिक 99 बुर्ज हैं।
जो इस दुर्ग की सुदृढ़ता को प्रदर्शित करता है। इस दुर्ग पर जब सूर्य की किरणें चमकती हैं। तब यह दुर्ग सोने के समान चमकता है। इस कारण इस दुर्ग को सोनारगढ़ व स्वर्णगिरी दुर्ग भी कहते हैं।
इस दुर्ग को दूर से देखने पर ऐसा लगता है कि मानो एक विशालकाय जहाज ने लंगर डाल रखा हो यह दुर्ग सोते हुए सिंह के समान भी दिखता है।
कर्नल टॉड ने इस दुर्ग को दोहरे परकोटे के कारण इसे कमरकोट कहा।
जैसलमेर दुर्ग में बादल महल, विसाल महल, शीश महल तथा लक्ष्मीनाथजी का मन्दिर स्थित है तथा दुर्ग के तहखाने में जिनभद्र सूरी ज्ञान भण्डार बना हुआ है जिसमें हजारों साल पुरानी हस्तलिखित पांडुलिपि सुरक्षित है।
मरुस्थल में स्थित होने के कारण इस दुर्ग के बारे में कहा जाता है कि केवल पत्थर की टांगे ही इस दुर्ग पर ले जा सकती हैं।
जैसलमेर दुर्ग में राज्य का दूसरा सबसे बड़ा लिविंग फोर्ट स्थित है, जबकि राज्य का प्रथम लिविंग फोर्ट चित्तौड़ दुर्ग में स्थित है।
सोनारगढ़ के इस दुर्ग को यूनेस्को ने अपनी विश्व धरोहर सूची में शामिल किया है।
प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक सत्यजीत रे ने सोनार किला नामक फिल्म का निर्माण इसी दुर्ग में किया।
जैसलमेर का किला अपने ढाई साके के लिए प्रसिद्ध है। जो इस प्रकार हैं –
प्रथम शाका –
जैसलमेर का पहला शाका दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी तथा भाटी शासक मूलराज के बीच युद्ध के कारण हुआ।
यह युद्ध 8 वर्ष तक चला जिसके कारण इस दुर्ग का पतन हुआ तथा अनेक योद्धाओं ने केसरिया धारण किया व वीरांगनाओं ने जौहर किया।
द्वितीय शाका –
फिरोजशाह तुगलक व रावल दूदा के मध्य युद्ध के कारण दूसरा शाका हुआ।
तृतीय अर्द्ध शाका –
तीसरा अर्द्ध शाका कंधार के शासक अमीर अली व राव लूणकरण के बीच युद्ध के कारण हुआ इस युद्ध में वीरों ने केसरिया तो किया, किन्तु महिलाओं द्वार जौहर नहीं हुआ जिसके कारण इसे अर्द्ध शाका कहते हैं।
कुम्भलगढ़ (मेवाड़ की तीसरी आँख) –
राजपूताना के समस्त गिरी दुर्गों में सबसे महत्वपूर्ण गिरी दुर्ग कुम्भलगढ़ को माना जाता है।
कुम्भलगढ़ दुर्ग को मेवाड़ की तीसरी आँख, मेवाड़ की संकटकालीन राजधानी, मत्स्येन्द्र दुर्ग तथा कुम्भलमेर दुर्ग के उपनामों से जाना जाता है।
मेवाड़ तथा मारवाड़ की सीमा पर स्थित यह दुर्ग नाथद्वारा (राजसमंद) से 25 मील दूर ऊत्तर में अरावली के शिखर पर स्थित है।
वीर विनोद (श्यामलदास द्वारा रचित ग्रन्थ) के अनुसार, इसका निर्माण मेवाड़ के राणा कुम्भा द्वारा मौर्य शासक सम्प्रति द्वारा निर्मित एक प्राचीन दुर्ग के ध्वसावशेषों पर शिल्पी मंडन की देखरेख में करवाया गया था।
कुम्भा ने 1448 ई. में इस दुर्ग की आधारशिला रखी और 1458 ई. में यह दुर्ग पूर्ण हुआ।
समुद्र तल से लगभग 3568 फीट की ऊँचाई पर स्थित होने के कारण अबुल फजल ने लिखा था कि – “यह दुर्ग इतनी बुलंदी पर बना हुआ है कि नीचे से ऊपर की ओर देखने पर देखने वाले की सिर की पगड़ी जमीन पर गिर जाती है।”
इसी प्रकार इतिहासकार कर्नल टॉड ने सुदृढ़ प्राचीरों, बुर्जों एवं कंगूरों के कारण इसकी तुलना ‘एस्ट्रूकन’ दुर्ग से की है।
इसी दुर्ग में सबसे ऊँचाई पर स्थित कटारगढ़ अन्तःदुर्ग को मेवाड़ की आँख कहा जाता है। इसी कटारगढ़ में राणा प्रताप का जन्म 1540 ई. में हुआ था तथा राणा सांगा का बचपन बीता।
महाराणा प्रताप –
महाराणा रायमल का पुत्र व राणा सांगा का भाई पृथ्वीराज एक अच्छा धावक था इसलिए पृथ्वीराज को उड़ता राजकुमार कहा जाता है जिसकी हत्या उसके बहनोई जगमाल ने धोखे से जहर देकर कर दी थी।
कुम्भलगढ़ में ही कुँवर पृथ्वीराज की छतरी स्थित है।
कटारगढ़ के उत्तर में मामादेव का कुण्ड है जहाँ राजकुमार ऊदा ने अपने पिता राणा कुम्भा की हत्या की थी इस कुण्ड के पास ही कुम्भ स्वामी नामक विष्णु मन्दिर स्थित है।
पन्नाधाय का बलिदान भी इसी दुर्ग से जुड़ा है पन्नाधाय ने अपने पुत्र की बलि देकर (चन्दन) राजकुमार उदयसिंह को बनवीर के कोप से बचाया था।
रानी झाली का वास्तविक नाम सुमति झाली था। यह राणा कुम्भा की रानी थी, जो झालावाड़ से संबंधित थी। इस दुर्ग में झाली रानी का मालिया महल प्रमुख है।
राणा प्रताप ने चावण्ड से पहले कुम्भलगढ़ को ही अपनी राजधानी बनाया था।
इस दुर्ग की प्राचीर 36 मील लम्बी तथा इतनी ही चौड़ी है जिस पर एक साथ सात घोड़े दौड़ सकते है। इसलिए इस दीवार को चीन की दीवार के समान भारत की महान दीवार माना जाता है।
इस दुर्ग में टूट्या का होडा, दाणीवटा तथा टीड़ावारी स्थित है। इसी दुर्ग में राजकुमार उदयसिंह का मेवाड़ के महाराणा के रूप में राज्याभिषेक हुआ।
मैग्नीज का दुर्ग (अजमेर) –
- अजमेर में स्थित इस दुर्ग का निर्माण 1571-72 में मुग़ल सम्राट अकबर ने स्थल दुर्ग के रूप में कराया था। इसलिए इसको अकबर का किला भी कहा जाता है।
- यह दुर्ग अकबर का दौलतखाना (सैन्य विभाग) के रूप में प्रसिद्ध था।
- राजस्थान का यह एकमात्र दुर्ग था जिस के निर्माण में मुस्लिम पद्धति अपनाई, इस दुर्ग का ऐतिहासिक यह थी कि अकबर ने हल्दीघाटी के युद्ध की योजना व युद्ध की रणनीति इसी दुर्ग में तैयार की।
- मुगल सम्राट जहाँगीर 1613 ई. में मेवाड़ के महाराणा अमर सिंह को हराने के लिए 3 वर्ष तक शरणार्थी की तरह रहा।
- जहाँगीर इस किले के झरोखे में बैठकर न्याय करता था।
- 10 जनवरी, 1616 ई. को इंग्लैंड के सम्राट जेम्स प्रथम का राजदूत सर टॉमस रो भारत में व्यापार की अनुमति लेने के लिए जहाँगीर से मिलने इसी किले में आया।
- सन 1801 में अंग्रेजों ने इस किले का उपयोग कम्पनी के शस्रागर के लिए किया। वर्तमान में यह राजकीय संग्रहालय के रूप में क्रियान्वित है जो 1908 में राजपूताना का अजायबघर के रूप में प्रसिद्ध था।
नागौर का दुर्ग –
नागौर किले के स्थापत्य की उल्लेखनीय बात यह थी कि किले के बाहर से शत्रुओं द्वारा चलाए गे तोप के गोले महलों को क्षति पहुँचाए बिना ही ऊपर से निकल जाते थे।
नागौर का यह दुर्ग जोधपुर महाराजा गजसिंह प्रथम के पुत्र अमरसिंह राठौड़ की शौर्य गाथाओं का प्रतीक है इसी दुर्ग में अमरसिंह राठौड़ की छतरी स्थित है, जो 16 खम्भों वाली छतरी कहलाती है।
अमरसिंह राठौड़ ने शाहजहाँ के दरबार में बख्शी सलावत खां का वध कर दिया था क्योंकि सलावत खां ने इसे गंवार कह दिया था।
1570 ई . में ख्वाजा साहब की जियारत के बाद मुगल शासक अकबर नागौर आए, नागौर में इन्होंने एक तालाब खुदवाया जिसे शुक्र तालाब कहा गया।
मुगल शासक अकबर के नवरत्नों में शामिल फैजी व अबुल फजल की यह जन्म स्थली है।
ब्रिटेन के प्रिन्स चार्ल्स ने नागौर के इस दुर्ग की यात्रा की तथा यहाँ के जीर्णोद्धार को प्रोत्साहित किया।
कुचामन का किला –
नागौर जिले के कुचामन में स्थित यह दुर्ग राजपूताना के सभी दुर्गों में जागीरी दुर्गों का सिरमौर माना जाता है।
इस दुर्ग को अणखला दुर्ग भी कहते हैं, क्योंकि इस किले का कभी शत्रु सेना के सामने पतन नहीं हुआ।
इस किले के निर्माता के बारे में प्रमाणित जानकारी का अभाव है।
लोक मान्यता के अनुसार मेड़तिया शासक जालिम सिंह ने वनखंडी नामक महात्मा के आशीर्वाद से कुचामन किले की नींव रखी, दूसरे मत के अनुसार इसका निर्माण गौड़ छत्रियों ने कराया।
अचलघढ़ दुर्ग (सिरोही) –
यह दुर्ग आबू से लगभग 13 किमी. दूर अरावली पर्वतमालाओं के एक उच्च शिखर पर स्थित है।
मूलतः इस दुर्ग का निर्माण परमार राजाओं ने कराया,
लेकिन राणा कुम्भा ने इस दुर्ग के भग्नावशेषों पर 1452 ई. में इसका पुनर्निर्माण कराया।
यहाँ के तोपखाने व गढ़ी की बुर्ज पर आज भी राणा कुम्भा का नाम मौजूद है।
भँवराथल – कहा जाता है कि गुजरात का शासक मेहमूद बेगड़ा जब अचलेश्वर मन्दिर को तथा
अन्य देवी देवताओं की प्रतिमाओं को खण्डित कर वापस लौट रहा था।
तब देवी प्रकोप से मधुमक्खियों का डल आक्रमणकारियों पर टूट पड़ा इस कारण इसका नाम भँवराथल पड़ा।
यह परमारों की राजधानी थी।
चरण कवि दुरसा जी आड़ा की पीतल की मूर्ति लगी हुई है, जिसको स्वयं इन्होंने ही लगवाया था।
इस दुर्ग के समीप अचलेश्वर महादेव का मन्दिर स्थित है।
इस मन्दिर में शिवलिंग न होकर केवल शिव के पैर का अंगूठा प्रतीकात्मक रूप में विद्यमान है।
इस कारण इसे ब्रह्मखण्ड कहा जाता है इसी मन्दिर के समीप मन्दाकिनी कुण्ड स्थित है।
अचलगढ़ दुर्ग में कफूर सागर जलाशय स्थित है जिससे पानी की आपूर्ति होती है।
इस दुर्ग में ओखा रानी महल, सावन-भादों झील तथा देवरानी-जेठानी के कोठे स्थित हैं।
नोट – शावन-भादों महल डीग भरतपुर में स्थित है तथा सावन-भादों परियोजना कोटा में स्थित है।
तारागढ़ का किला (अजमेर) –
अजमेर में स्थित अजयमेरु नामक गिरि दुर्ग का निर्माण 1113 ई. में चौहान शासक अजयराज ने कराया, इस दुर्ग को गढ़बिठली दुर्ग भी कहा जाता हैं।
माना जाता है कि मेवाड़ के राणा रायमल के पुत्र तथा राणा सांगा के भाई पृथ्वीराज ने इस दुर्ग के कुछ भागों का निर्माण कराया और अपनी पत्नी रानी तारा के नाम पर इसका नाम तारागढ़ रखा गया।
मुगल शासक शाहजहाँ के शासनकाल में दुर्गाध्यक्ष बिठ्ठलदास गौड़ ने इस दुर्ग का जीर्णोद्धार कराया और इसे बीठली दुर्ग भी कहा जाता है।
जोधपुर के मालदेव ने इस दुर्ग की अभेद्यता से प्रभावित होकर इसे पूर्व का जिब्राल्टर कहा।
मुस्लिम संत मीरान साहब की दरगाह भी इसी किले में स्थित है। यह दरगाह तारागढ़ के प्रथम गवर्नर मीर सैयद हुसैन खिंगसबार की है जिन्होंने 1202 ई. में किले की रक्षार्थ अपने प्राणों को न्योछावर कर दिया।
इसी मजार के निकट मीरान साहब के प्रसिद्ध घोड़े की मजार स्थित है।
सम्पूर्ण भारत में एकमात्र घोड़े की मजार इसी दुर्ग में देखने को मिलती है।
मुगल उत्तराधिकारी धरमत के युद्ध में औरंगजेब की सेना से पराजित होने के बाद शहजादा द्वारा शिकोह ने इस दुर्ग में शरण ली।
इसी दुर्ग में पेयजल सुविधा के लिए चश्मा-ए-नूर नामक जलाशय स्थित है।
जालौर का दुर्ग –
यह दुर्ग मारवाड़ में जोधपुर से 75 मील दूर सूकड़ी नदी के किनारे स्वर्णगिरी (कनकाचल) पहाड़ी पर स्थित है।
इस किले को सोनगढ़ भी कहा जाता है। इस दुर्ग का निर्माण प्रतिहार वंश के राजा नागभट्ट प्रथम ने कराया।
नाडौल के चौहान राजा कीर्तिपाल ने प्रतिहारों का वर्चस्व समाप्त किया और जालौर में नाडौल के चौहान शाखा की स्थापना की।
इस प्रकार कीर्तिपाल के वंशज जालौर में सोनगरा के चौहान कहलाए।
अलाउद्दीन खिलजी ने 1311-12 ई. में जालौर पर आक्रमण किया तथा यहाँ के शासक वीर कान्हड़देव एवं उसके पुत्र विरमदेव को युद्ध में परास्त किया और विजय के बाद जालौर दुर्ग का नाम बदलकर जलालाबाद किया।
लेखक पद्मनाभ द्वारा रचित ग्रन्थ ‘कान्हड़दे प्रबन्ध’ तथा ‘विरमदेव सोनगरा री बात’ में इस युद्ध का वर्णन किया गया है।
जालौर दुर्ग में सूफी संत मलिक शाह की दरगाह तथा परमारकालीन कीर्ति स्तम्भ दर्शनीय इमारत है।
सिवाना का किला (बाड़मेर) –
मारवाड़ में जोधपुर से लगभग 60 मील दूर स्थित इस किले का निर्माण परमार राजा भोज के पुत्र वीरनारायण पंवार ने दसवीं शताब्दी में करवाया।
वर्तमान में यह दुर्ग बाड़मेर जिले में स्थित है।
1305 ई. में सिवाना पर अलाउद्दीन खिलजी ने आक्रमण किया, तब यहाँ का शासक सातलदेव था जो कान्हड़दे का भतीजा था।
इस युद्ध में खिलजी को असफलता मिली, लेकिन 1310 ई. में पुनः अलाउद्दीन खिलजी ने इस दुर्ग पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की, विजय के उपरान्त सिवाना का नाम बदलकर खैराबाद दुर्ग रखा गया।
दुर्ग की रक्षा का कोई उपाय न देखकर वीर सातल व सोम सहित समस्त राजपूत योद्धाओं ने केसरिया धारण कर शत्रु सेना पर टूट पड़े और वीर गति को प्राप्त हुए।
जोधपुर के शासक राव मालदेव ने सिवाना की व्यवस्था को सुदृढ़ किया तथा परकोटे (शहरपनाह) का निर्माण कराया।
सिवाना दुर्ग के साथ ही राठौड़ वीर कल्ला, रायमलोत की वीर गाथाएँ जुड़ी हुई हैं।
बूँदी का किला –
इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने बूँदी के दुर्ग को राजपूताना के समस्त रजवाड़ो में सर्वश्रेष्ठ दुर्ग बताया।
प्रख्यात ब्रिटिश साहित्यकार रूडयार्ड किपलींग ने अपनी पुस्तक ‘जंगल बुक’ में लिखा था कि बूँदी के दुर्ग का निर्माण भूत-प्रेतों द्वारा कराया गया।
हाडा शासक देवासिंह (राव देवा) ने बुन्दू घाटी के अधिपति जैता मीणा को पराजित कर बूँदी में अपनी राजधानी स्थापित की।
बूँदी दुर्ग का निर्माण राव देवा के वंशज राव बरसिंह ने 1354 ई. में कराया।
पर्वत की ऊँची चोटी पर स्थित होने के कारण धरती से आकाश के तारे के समान दिखलाई पड़ता है।
जिसके कारण इसे तारागढ़ दुर्ग भी कहा जाता है।
अकबर के शासनकाल में बूँदी के राव सुर्जन हाडा ने रणथम्भौर दुर्ग मुगलों को सौंपकर
अकबर की अधीनता स्वीकार की तथा शाही मनसबदार का पद धारण किया।
मेवाड़ के राणा लाखा के अथक प्रयासों के बावजूद वह बूँदी पर अधिकार न कर सका। तब राणा लाखा ने मिट्टी का नकली बूँदी दुर्ग बनवाकर इसे ध्वस्त किया तथा अपने मन की इच्छा पूरी की।
बूँदी दुर्ग का आकार आमेर दुर्ग के समान दिखाई देता है पर्वतीय ढलान पर बने बूँदी के राजमहल अपने शिल्प व सौन्दर्य के कारण प्रसिद्ध है विशेषकर महाराव उम्मेद सिंह के शासनकाल में निर्मित “चित्रशाला (रंग विलास)” चित्रशैली का उत्कृष्ट उदाहरण है।
बूँदी दुर्ग में जीवरक्खा महल, दूध महल तथा गर्भ गुंजन तोप प्रसिद्ध है।
बूँदी दुर्ग में 84 खम्भों की छतरी स्थित है।
बूँदी दुर्ग में पेयजल के स्रोतों में फूलसागर व जैतसागर प्रमुख थे।
इस दुर्ग में सबसे अधिक छोटे-बड़े महलों की संख्या अधिक होने के कारण इसे महलों का परिसर कहते हैं।
भटनेर दुर्ग (हनुमानगढ़) –
हनुमानगढ़ में स्थित घग्घर नदी के मुहाने पर बसा यह धान्वन दुर्ग उत्तरी सीमा का प्रहरी कहा जाता है।
जनश्रुति के अनुसार, इस दुर्ग का निर्माण तीसरी शताब्दी में भाटी राजा भूपत ने कराया।
तैमूर ने अपनी आत्मकथा तुजुक-ए-तैमूरी में लिखा है कि मैंने इतना मजबूत व सुरक्षित दुर्ग राजपूताना में कहीं नहीं देखा।
तैमूरलंग ने 1398 ई. में यहाँ के शासक दुलचंद भाटी को पराजित किया तथा दुर्ग पर अधिकार किया।
इसी आक्रमण के समय मुस्लिम महिलाओं ने भी राजपूत महिलाओं के साथ जौहर किया।
1805 ई. में बीकानेर महाराज सूरतसिंह ने दुर्ग पर अधिकार कर लिया, महाराज सूरतसिंह ने मंगलवार के दिन इस दुर्ग को जीत जाने के फलस्वरूप भटनेर का नाम हनुमानगढ़ रख दिया व किले में हनुमान मन्दिर का निर्माण कराया।
बलबन के चचेरे भाई शेरखां की कब्र भी किले के भीतर मौजूद है।
भटनेर दुर्ग ऐसा दुर्ग था जिस पर सबसे ज्यादा मंगोल, मध्य एशियाई तथा मुगलों के आक्रमण हुए।
लोहागढ़ दुर्ग (भरतपुर) –
महाराजा सूरजमल द्वारा इस पारिख दुर्ग का निर्माण कराया गया।
दुर्ग के निर्माण से पहले खेमकरण जाट की यहाँ एक कच्ची कुटिया थी जिस पर यह दुर्ग निर्मित हुआ।
यह दुर्ग अपनी अजेयता के लिए भारतवर्ष में प्रसिद्ध है। इस दुर्ग को हिन्दुस्तान का अजेय दुर्ग भी कहते हैं।
इस दुर्ग के चारों ओर 700 फीट चौड़ी तथा 60 फीट गहरी खाई स्थित है एवं
इसके चारों ओर सुजान गंगा नहर बहती है, सुजान गंगा में मोती झील द्वारा पानी लाया जाता है।
मोती झील रूपारेल और बाणगंगा नदियों के संगम पर बाँध बनाकर बनाई गई है।
महाराजा जवाहरसिंह ने दिल्ली विजय के उपलक्ष्य में 1764 ई. में इस दुर्ग में जवाहर बुर्ज का निर्माण कराया
तथा अंग्रेजों पर विजय का प्रतीक फतेह बुर्ज भी स्थित है।
भरतपुर दुर्ग में दो विशाल दरवाजे हैं इनमें से उत्तरी कलात्मक द्वार अष्ठधातु दरवाजा तथा दक्षिणी द्वार लोहिया दरवाजा कहलाता है।
अष्ठधातु दरवाजे को महाराजा जवाहर सिंह मुगलों के शाही खजाने की लूट के साथ दिल्ली के लाल किले से 1765 ई. में उतारकर लाए थे।
सन 1805 ई. में लार्ड लेक ने महाराजा रणजीत सिंह के समय भरतपुर पर आक्रमण किया।
लगभग एक माह में चार बार इस दुर्ग पर विजय पताका नहीं फहरा सका,
तब से इसे लोहागढ़ दुर्ग कहा गया।
इस दुर्ग में दीवाने खास नामक सुन्दर इमारत स्थित है जिसे कचहरी किला के नाम से जाना जाता है,
इसी दुर्ग में नूर महल भी दर्शनीय है।
शेरगढ़ किला (बारां) –
यह दुर्ग बारां की अटरू तहसील के समीप परवन नदी के किनारे पर स्थित है।
यह दुर्ग जल दुर्ग की श्रेणी में आता है।
इस दुर्ग का निर्माण नागवंशीय शासकों ने 791 ई. में कराया,
शेरशाह सूरी ने 1542 ई. में मालवा अभियान के समय इस दुर्ग पर अधिकार किया तथा
इसका जीर्णोद्धार कराया इस कारण इसे शेरगढ़ दुर्ग कहा गया।
देवदत्त नागवंशी ने इस दुर्ग में अनेक प्राचीन विहार व बौद्ध मठों का निर्माण करवाया,
अटल शिलालेख के अनुसार यह दुर्ग पहले परमारों के पास और फिर मालवा के सुल्तानों के पास रहा।
मुगल शासक फर्रुखशियर ने इस दुर्ग को कोटा महाराव भीमसिंह को प्रदान कर दिया, कोटा शासकों के दीवान जालिमसिंह झाला ने इसका जीर्णोद्धार करवाकर ‘झालाओं की हवेलियाँ’ का निर्माण करवाया।
अमीर खां पिण्डारी ने अंग्रेजों के कोप से बचने के लिए अपनी बेगमों व अनेक महिलाओं को इसी दुर्ग में आश्रय दिया।
शेरगढ़ दुर्ग को कोशवर्द्धन दुर्ग के नाम से भी जाना जाता है।
बाला दुर्ग (अलवर) –
यह गिरी दुर्ग अलवर शहर में अरावली पर्वत शिखर पर स्थित है।
माना जाता है कि इस दुर्ग का निर्माण आमेर नरेश कोकिलदेव के पुत्र अलधुराय ने एक छोटे दुर्ग के रूप में कराया।
दुर्ग के नीचे एक छोटा अलपुर नामक नगर बसाया।
इस प्राचीन नगर के ध्वंसावशेष रावण-देहरा के नाम से आज भी देखे जाते हैं।
अलावल खां मेवाती ने दुर्ग का विशाल प्रवेश द्वार व परकोटे का निर्माण करवाया,
इसके पुत्र हसन खां मेवाती ने खानवा के युद्ध में राणा सांगा का पक्ष लिया और युद्ध में वीरगति प्राप्त की, तब से इस दुर्ग पर मुगलों का अधिकार हुआ।
औरंगजेब की मृत्यु के बाद भरतपुर के शासक सूरजमल ने इस दुर्ग को मुगलों से छीनकर अधिकार कर लिया तथा यहाँ सूरजकुण्ड नामक जलाशय का निर्माण करवाया।
मांडलगढ़ किला (भीलवाड़ा) –
यह गिरी दुर्ग बनास, बेडच व मेनाल नदियों के त्रिवेणी संगम के समीप बीजासन पहाड़ी पर स्थित है।
इस दुर्ग की आकृति कटोरेनुमा व मण्डलाकृति होने के कारण इसे मांडलगढ़ कहा गया।
वर्तमान में यह दुर्ग भीलवाड़ा जिले में स्थित हैं।
इस दुर्ग के निर्माण की प्रामाणिक जानकारी न होने के कारण माना जाता है कि इस दुर्ग का निर्माण चानणा गूजर द्वारा करवाया गया।
इतिहासकार श्यामलदास द्वारा रचित ग्रन्थ वीर विनोद के अनुसार इस दुर्ग का निर्माण अजमेर के चौहानों ने कराया था।
मुगल शासकों ने मांडलगढ़ दुर्ग के सामरिक महत्त्व को देखते हुए मेवाड़ के प्रवेश द्वार के रूप में अपने सैनिक अभियानों का मुख्य केंद्र बनाया तथा हल्दीघाटी युद्ध से पहले अकबर के सेनापति जयपुर के राजा मानसिंह ने एक माह तक इस दुर्ग में रहकर अपनी शाही सेना को युद्ध के लिए तैयार किया।
दुर्ग के भवनों में ऋषभदेव जैन मन्दिर, उन्डेश्वर व जलेश्वर नामक दो प्राचीन शिव मन्दिर तथा सागर व सागरी तालाब स्थित है।
बनाया दुर्ग (भरतपुर) –
भरतपुर जिला मुख्यालय से 48 किमी दूर मानी पहाड़ी पर यह गिरी व वन दुर्ग स्थित है।
यह दुर्ग विजय मन्दिरगढ़, बादशाह दुर्ग, सुल्तानकोट दुर्ग तथा शोणितगिरी दुर्गों के नाम जाना जाता है।
इस दुर्ग का निर्माण यादव वंश के महाराजा विजयपाल ने 1040 ई. में बनवाया।
पुराणों में बयाना को ‘शोणितपुर तथा बाणासुर’ के नाम से जाना जाता था, जबकि बनाया का प्राचीन नाम श्रीपंथा है।
बयाना प्राचीनकाल में नील की खेती के लिए प्रसिद्ध था जिसका वर्णन डच यात्री पेलसर्ट ने अपनी यात्रा के समय किया।
इसी स्थान से गुप्तकालीन स्वर्ण सिक्के भी प्राप्त हुए हैं।
राजपूताना में बयाना वह राज्य था जिसपर गुप्त वंश के शासक समुन्द्रगुप्त ने अधिकार किया।
दुर्ग के भीतर विष्णुवर्धन द्वारा निर्मित लाल पत्थरों से बनी एक ऊँची लाट स्थित है जिसे ‘भीमलाट’ कहते हैं, विष्णुवर्धन समुन्द्रगुप्त का एक सामन्त था।
रानी चित्रलेखा द्वारा निर्मित ऊषा मन्दिर प्रसिद्ध है। यह मन्दिर लाल पत्थरों से बना हुआ है,
जो हिन्दू स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण है।
दिल्ली के शासक इल्तुतमिश ने इस मन्दिर को ध्वस्त कर मस्जिद का निर्माण करवाया तथा ऊषा की प्रतिमा को खण्डित किया।
लेकिन बाद में जाटों द्वारा इस मन्दिर का पुनः निर्माण करवाया गया।
इसी दुर्ग में लोदी मीनार, अकबरी छतरी व जहाँगीर दरवाजा है।
जूनागढ़ दुर्ग (बीकानेर) –
बीकाजी की टेकरी पर स्थित यह धान्वन दुर्ग बीकानेर जिले में स्थित है।
इस पुराने दुर्ग का निर्माण राव बीकाजी ने करवाया।
उसी नींव पर इस किले को नया रूप, आकार व सौन्दर्यता बीकनेर के शासक रायसिंह ने 1485 ई. में प्रदान की।
बीकानेर के शासकों की मित्रता मुगलों से थी जिसके कारण इस दुर्ग पर कोई आक्रमण नहीं हुआ।
नागौर के शासक बख्तसिंह ने इस किले को जितने के लिए दो बार असफल प्रयास किया।
जूनागढ़ किले के प्रवेश द्वार पर किले के मूल संस्थापक रायसिंह की प्रशस्ति लगी हुई है तथा चित्तौड़ के साके में वीरगति पाने वाले योद्धा जयमल-फत्ता की हाथियों पर सवार मूर्तियाँ स्थित हैं।
दुर्ग में भगवान गणेश का हेरम्ब गणपति का मन्दिर स्थित है।
इसकी मुख्य विशेषता यह है कि इस मन्दिर में भगवान गणेश को मूषक पर सवार न दिखाकर सिंह की सवारी करते हुए दिखाया गया है।
बीकानेर किले (जूनागढ़) के भवनों में फुल महल, चन्द्र महल, रतन निवास तथा अनूप महल दर्शनीय हैं।
अनूप महलों की दीवारों पर सोने की कलम से मीनाकारी व शिल्पकारी की गई है,
अनूप महल में बीकानेर के राजाओं का राज्याभिषेक होता था।
इस दुर्ग में लाल पत्थरों से बना हुआ गंगा निवास महल स्थित है जिसका निर्माण गंगासिंह ने करवाया।
गंगासिंह ने अपने पिता लालसिंह की याद में लालगढ़ महल का निर्माण करवाया।
यह महल यूरोपियन शैली में बना हुआ है।
जूनागढ़ के महलों की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें हिन्दू व मुस्लिम कला शैलियों का समन्वय देखा जाता है।
जूनागढ़ के प्रांगण में एक विशाल संग्रहालय स्थित है जिसमें दुर्लभ प्राचीन वस्तुएं, अस्र-शस्र, देव प्रतिमाएं तथा हिन्दी-फारसी के अनेक दुर्लभ हस्तलिखित ग्रन्थ सुरक्षित हैं।
बीकानेर के शासक महाराजा डूंगरसिंह ने किले के भीतर एक ऊँचा घंटाघर लगवाया जिसे ‘न्याय का घंटा’ कहा जाता था।
दुर्ग में पेयजल के लिए रामसर व रानीसर नामक कुएँ प्रसिद्ध थे।
दौसा का दुर्ग –
दौसा के इस किले की आकृति सूप छाजले के समान है।
यह दुर्ग देवगिरी पहाड़ी पर स्थित माना जाता है कि इसका निर्माण बड़गूजरों ने करवाया,
लेकिन कछवाह शासकों ने भी इस दुर्ग में अनेक भवनों का निर्माण करवाया था।
इस दुर्ग में राजस्थान के दादूपंथी संत सुन्दरदास का जन्म हुआ। इन्हें दूसरा शंकराचार्य कहा जाता है।
यह दुर्ग आमेर के कछवाह शासकों की प्रथम राजधानी भी रहा।
राजस्थान के इस दुर्ग का ऐतिहासिक महत्त्व भी है कि मिर्जा राजा जयसिंह का पालन-पोषण उनकी माँ दमयन्ती देवी ने इसी किले में किया था।
दौसा के किले के समीप चार मंजिल की प्रसिद्ध चाँद बावड़ी स्थित है।
सोजत का किला (पाली) –
यह दुर्ग मारवाड़ का सीमावर्ती दुर्ग था। वर्तमान में यह दुर्ग पाली जिले में स्थित है।
सोजत सुकड़ी नदी के मुहाने पर बसा है।
इस दुर्ग का निर्माण जोधपुर के राव जोधा के ज्येष्ठ पुत्र नीम्बा ने करवाया।
जोधपुर री ख्यात के अनुसार इसका निर्माण राव मालदेव ने करवाया तथा राव मालदेव ने ही सोजत दुर्ग के चारों ओर सुदृढ़ परकोटे का निर्माण करवाया था।
सोजत माता के नाम पर सोजत नगर बसा जिसे शुधदंती या त्रंबावती भी कहते थे।
आमेर का किला (जयपुर) –
आमेर का दुर्ग जयपुर मुख्यालय से 11 किमी. दूरी पर स्थित है।
आमेर कछवाह शासकों की प्राचीन व महत्त्वपूर्ण राजधानी थी।
इसका प्राचीन नाम अम्बावती था। माना जाता है कि इस दुर्ग का निर्माण राजा भारमल ने प्रारम्भ करवाया,
किन्तु पूर्ण निर्माण 1592 ई. में राजा मानसिंह प्रथम ने हिन्दू मुस्लिम शैली के समन्वय के रूप में करवाया।
आमेर दुर्ग के नीचे एक सुन्दर तालाब स्थित है जिसे मावठा झील कहा जाता है।
राजा मानसिंह प्रथम ने बंगाल से एक देवी की प्रतिमा को लाकर शीलादेवी की प्रतिमा को स्थापित करवाया,
बाद में राजा मानसिंह द्वितीय ने इसे वर्तमान मन्दिर का रूप प्रदान किया।
राजस्थान के इस दुर्ग की अन्य इमारतों में दीवान-ए-आम, दीवान-ए-खास, शीशमहल व सुहाग मन्दिर (सौभाग्य मन्दिर) ऐतिहासिक है।
राजा मानसिंह के पुत्र जगतसिंह की स्मृति में रानी कनकावती ने एक मन्दिर का निर्माण करवाया जिसे जगत शिरोमणि मन्दिर कहा जाता है।
इस मन्दिर में भगवान श्रीकृष्ण की काले पत्थर की वही मूर्ति स्थित है जिसकी पूजा भक्त मीराबाई किया कराती थी।
आमेर दुर्ग में सबसे प्राचीन कदमी महल स्थित है। इन्हीं महलों में आमेर के शासकों का राजतिलक होता था।
जयसिंह प्रथम द्वारा निर्मित सूख मन्दिर स्थित है इसे आराम मन्दिर भी कहा जाता था।
आमेर की भोजनशाला अपने प्राचीन भित्ति शिल्प चित्रों के लिए प्रसिद्ध है। इसका निर्माण सवाई जयसिंह ने करवाया, इस भोजनशाला में भारत के प्रमुख तीर्थस्थलों के चित्र हैं।
प्रसिद्ध इतिहासकार विशप हैपर ने आमेर के दुर्ग में बने हुए महलों के बारे में लिखा था कि “मैंने क्रेमलिन में जो देखा है और परम ब्रह्मा के बारे में सुना है उससे कहीं बढ़कर ये महल है।”
मुगल शासक बहादुर शाह प्रथम ने आमेर पर आक्रमण कर इसे कुछ समय के लिए अपने अधिकार में रखा तथा इसका नाम ‘मोमिनाबाद’ रखा।
नाहरगढ़ का किला –
राजस्थान की प्राचीन अरावली पर्वत माला के एक छोर पर नाहरगढ़ दुर्ग स्थित है।
इसका निर्माण महाराजा सवाई जयसिंह ने 1734 ई. में मराठों के खिलाफ सुरक्षा की दृष्टि से करवाया,
लेकिन इस दुर्ग का वर्तमान स्वरूप, आकार 1868 ई. में सवाई जयसिंह ने प्रदान किया।
यह दुर्ग भगवान श्रीकृष्ण के मुकुट आकृति के समान है जिसकी आकृति जयपुर नगर से भी मिलती है,
इस दुर्ग को सुदर्शनगढ़ व सुलक्षणगढ़ भी कहते हैं।
महाराजा सवाई माधोसिंह द्वारा निर्मित इस दुर्ग में एक जैसे नौ महलों का निर्माण हुआ।
ये महल सवाई माधोसिंह ने अपनी नौ प्रेयसियों (पासवानों) के लिए बनवाए गए।
नाहरगढ़ दुर्ग के राजप्रसादों का निर्माण जयपुर के महाराजा सवाई रामसिंह द्वितीय ने किया।
इन इमारतों में झुके हुए अलंकृत छज्जे व सजीव चित्रांकन प्रसिद्ध है।
इस दुर्ग की तलहटी में जयपुर के कछवाह शासकों की छतरियाँ स्थित हैं जिन्हें गैटोर की छतरियाँ कहा जाता है।
जयगढ़ का किला –
जयगढ़ दुर्ग का उपनाम चिल्ह का टीला है। राजा मानसिंह प्रथम ने 1600 ई. में इसका निर्माण कार्य प्रारम्भ किया।
लेकिन मिर्जा राजा जयसिंह एवं सवाई जयसिंह द्वारा इसका समय-समय पर निर्माण कार्य कराया गया,
मिर्जा राजा जयसिंह के नाम पर यह दुर्ग जयगढ़ कहलाया।
इस दुर्ग में एशिया की सबसे बड़ी तोप स्थित है जिसे जयबाण तोप कहा जाता है।
इसकी मारक क्षमता 22मील है और इसे मात्र एक बार परीक्षण के लिए चलाया गया
जिसका गोला जयपुर के निकट चाकसू में जाकर गिरा था, अन्य तोपों में रणचण्डी, भैरवी, कड़क बिजली आदि प्रमुख हैं।
जयपुर दुर्ग का प्रयोग जयपुर रियासत के शासक बंदीगृह के रूप में करते थे,
जयगढ़ दुर्ग के भीतर एक लघु दुर्ग स्थित है जिसे विजयगढ़ी के नाम से जाना जाता है।
जयगढ़ दुर्ग में राजपूताना के समस्त दुर्गों के बुर्जों में सबसे बड़ा बुर्ज स्थित है जिसे दीया बुर्ज कहते हैं।
यह सात मंजिला है।
इस दुर्ग में दीवाने-ए-आम (सुभट निवास) व दीवाने-ए-खास (खितबत निवास) स्थित है तथा
जालियों की बारीक कटाई के लिए प्रसिद्ध विलास मन्दिर एवं लक्ष्मी निवास देखने योग्य है।
सज्जनगढ़ दुर्ग (उदयपुर) –
उदयपुर के मुकुटमणि नाम से प्रसिद्ध महाराणा सज्जनसिंह ने बांसदरा पहाड़ी पर इस किले का निर्माण ज्योतिष गणनाओं के केंद्र के रूप में कराया।
राजपूताने में यहाँ के गुलाब बहुत प्रसिद्ध थे।
वर्तमान में यह पुलिस का वायरलेस केंद्र बना हुआ है।
गागरौन का किला –
राजस्थान का पूर्णतः एकमात्र जल दुर्ग गागरौन दुर्ग है,
जो झालावाड़ से चार किमी. दूर काली सिन्ध और साहू नदियों संगम स्थल पर स्थित है
यह दुर्ग मुकन्दरा की पहाड़ियों पर बना हुआ है।
इस दुर्ग का निर्माण डोड़ (परमार) राजपूतों द्वारा करवाया गया बाद में खींची नामक राजवंश के संस्थापक देवन सिंह ने बीजल देव को हराकर इसे जीता तथा इसका नाम गागरौण रखा।
खींची राजवंश के राजा जैतसिंह, संत पीपा तथा अचल दास खींची प्रमुख शासक हुए।
सन 1303 ई. में जैतसिंह ने अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण का सफलतापूर्वक सामना किया।
इसी के शासनकाल में खुरासान के प्रसिद्ध सूफी संत हमीमुद्दीन चिश्ती गागरौण आए
जिनकी समाधी/दरगाह का निर्माण औरंगजेब ने इसी दुर्ग में कराया।
इस दरगाह को मीठे शाह की दरगाह के नाम भी जाना जाता है।
प्राचीन पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यह भगवान श्रीकृष्ण के पुरोहित गर्गाचारी के नाम से इसे गर्गराटपुर दुर्ग कहा गया।
यह दुर्ग बिना किसी नींव के चट्टान पर सीधा खड़ा किया गया है।
इस दुर्ग के भीतर शत्रुओं पर पत्थरों की वर्षा करने वाला विशाल यंत्र (ढेकुली यंत्र) विद्यमान है।
किले के पीछे एक पहाड़ी है जिसे ‘गीध कराई’ कहते हैं प्राचीनकाल में राजबंदियों को यहाँ मृत्युदण्ड दिया जाता था।
आहू और कालीसिंध नदियों के पवित्र संगम स्थल को स्थानीय भाषा में ‘सामेल जी’ कहा जाता है
इसी के पास गागरौन के राजा संत पीपाजी की छतरी स्थित है।
इस दुर्ग में कोटा रियासत के सिक्के ढालने के लिए एक टकसाल स्थापित की गई,
जहाँ मुद्राओं को ढाला जाता था।
दुर्ग में नक्कार खाना, बारूद खाना तथा औरंगजेब द्वारा निर्मित बुलन्द दरवाजा दर्शनीय है।
कोटा के राव मुकन्द सिंह ने दुर्ग में अनेक महल बनवाए, राव दुर्जनसाल ने किले के भीतर भगवान मधुसूदन का भव्य मन्दिर बनवाया तत्कालीन कोटा रियासत के झाला जालिम सिंह ने गागरौन के किले के लिए एक विशाल परकोटे का निर्माण करवाया।
जैसे ‘जालिम कोट’ कहा जाता है।
खींची राजवंश में ही रामानंद के शिष्य संत पीपा (प्रताप सिंह) एक भक्ति परायण राजा हुए,
जो दिल्ली के शासक फिरोज शाह तुगलक के समकालीन थे।
तुगलक वंश –
संत पीपा अपने भाई अचलदास खींची को गागरौन की रियासत व सिंहासन देकर साधू हो गए।
गागरौन दुर्ग के दो प्रसिद्ध शाके हुए, 1423 ई. में मांडू के शासक होशंगशाह व अचलदास खींची के मध्य युद्ध हुआ।
जिसमें अचलदास वीरगति को प्राप्त हुए तथा दुर्ग की महिलाओं ने जौहर किया।
प्रसिद्ध कवि शिवदास गाडण ने अपनी डिंगल काव्यकृति “अचलदास खींची री वचनिका” में इस युद्ध का वर्णन किया था।
इस दुर्ग का दूसरा शाका 1444 ई. में मांडू के शासक महमूद खिलजी प्रथम तथा अचलदास खींची के पुत्र पाल्हणसी के मध्य हुआ जिसमें महमूद खिलजी की विजय हुई और इस दुर्ग का नाम ‘मुस्तफावाद’ रखा।
इस दुर्ग के उपनामों में जल दुर्ग, डोड़गढ़ दुर्ग, धूसरगढ़, गर्गराटपुर दुर्ग व मुस्तफाबाद के नामों से जानते हैं।
मेहरानगढ़ दुर्ग –
प्रसिद्ध ब्रिटिश साहित्यकार रुडयार्ड किपलिंग ने इस दुर्ग के संदर्भ में यह कहा कि इस दुर्ग का निर्माण देवताओं, परियों और फरिश्तों द्वारा हुआ है।
यह दुर्ग मंडौर से लगभग 6 किमी. दक्षिण में पचेटिया पहाड़ पर स्थित है।
इस दुर्ग का निर्माण जोधपुर के संस्थापक राव जोधा ने 13 मई, 1459 ई. में करवाया था।
मारवाड़ के राठौड़ों की प्रारम्भिक राजधानी मंडौर थी।
मेहरानगढ़ किले को मयुराकृति होने के कारण मयूरध्वजगढ़, गढ़चिंतामणि, चिड़ियाटून्क एवं जोधाणा के नाम से जाना जाता हैं।
इस दुर्ग की वीर गाथाएँ वीर शिरोमणि दुर्गादास, कीरतसिंह सोढा तथा दो पराक्रमी योद्धा धन्ना एवं भींवा की गाथाएँ जुड़ी हुई हैं।
महाराजा सूरसिंह द्वारा निर्मित मोती महल अपने सुनहरी अलंकरण के लिए प्रसिद्ध है।
राजस्थान के इस दुर्ग में महाराजा अभय सिंह द्वारा निर्मित फूलमहल अपने पत्थर की बारीकी खुदाई के लिए ऐतिहासिक है।
इस दुर्ग की अन्य इमारतों में चौखेलाव महल, बिचला महल मानसिंह द्वारा निर्मित पुस्तक प्रकाश भण्डार भी स्थित है।
चौखेलाव महल की दीवारों में जिस शैली का प्रयोग हुआ, उसे मार्शल टाइप शैली के नाम से जाना जाता है।
दुर्ग के अंदर चामुण्डा माता मन्दिर तथा राठौड़ों की कुल देवी नागणेची माता का मन्दिर भी स्थित है।
इसी दुर्ग में भूरे खां की मजार भी दर्शनीय है।
इस दुर्ग में लम्बी दूरी तक मार करने वाली तोपों में किलकिला, शम्भूबाण, गजनी खां प्रसिद्ध हैं।
मेहरानगढ़ दुर्ग में जल आपूर्ति के लिए पदमसागर व राणीसर नामक तालाब प्रसिद्ध थे।
इस दुर्ग की तलहटी में जसवंत सिंह द्वितीय की स्मृति में महाराजा सरदार सिंह ने पूर्णतः सफेद संगमरमर से युक्त जसवन्त थड़ा नामक इमारत बनवाई।
दिल्ली के शासक शेरशाह सूरी ने 1544 ई. में राव मालदेव को पराजित कर कुछ समय के लिए इस दुर्ग पर अधिकार किया तथा इस विजय के उपलक्ष्य में एक मस्जिद का निर्माण करवाया।
कुछ अन्य किले –
मोरीजा किला | जयपुर |
करणसर किला | जयपुर |
बसंतगढ़ | सिरोही (राणा कुम्भा द्वारा निर्मित) |
नीमराना का किला | अलवर (पंचमहल नाम से विख्यात) |
खण्डार का किला | सवाई माधोपुर |
पचेवर किला | पचेवर (टोंक) |
खींवसर किला | नागौर |
केहरीगढ़ किला | किशनगढ़ –अजमेर में स्थित, इस किले के आतंरिक भाग को जीवरक्खा के नाम से जाना जाता है। |
मनोहर थाना का किला | झालावाड़ में मनोहर थाना में परवन नदी व कालीखोह नदी के संगम पर स्थित है। |
करणसर का किला | जयपुर |
हापाकोट किला | चौहटन (बाड़मेर) |
ऊँटगिरि का किला | करौली |
नवलखा किला | झालावाड़ – इस किले का निर्माण कभी भी पूर्ण नहीं हो पाया। अतः यह किला आज भी अपूर्ण है। |
टाडगढ़ किला | अजमेर – कर्नल टॉड द्वारा निर्मित पूर्व में यह स्थान बुराड़वाड़ाकहलाता था। |
तिमनगढ़ का किला | करौली – मांसलपुर के निकट, यह किला मूर्ति तस्करों के लिए प्रसिद्ध है। |
माधोराजपुरा का किला | जयपुर – महाराजा सवाई माधोसिंह ने मराठों पर विजय के उपलक्ष्य में बनवाया। |
बाड़ी का किला | धौलपुर – फिरोज तुगलक ने बनाया पर अधिकार करने से पूर्व बाड़ी में दो दुर्गों का निर्माण करवाया। दुर्गों के प्रवेश द्वार अफगानी शैली में निर्मित हैं। जो राजस्थान में एकमात्र है। 1518 ई. में राणा सांगा व दिल्ली के शासक इब्राहिम लोदी के बीच बाड़ी का युद्ध हुआ जिसमें राणा सांगा ने दुर्गों पर अधिकार किया। |
अन्य महत्वपूर्ण तथ्य –
- राजस्थान में सर्वाधिक दुर्ग जयपुर में स्थित हैं।
- चित्तौड़गढ़ में स्थित भैंसरोड़गढ़ दुर्ग राजस्थान का वेल्लौर कहलाता है।
- यह दुर्ग चम्बल और बामनी नदियों के संगम पर स्थित है।
- इसका निर्माण भैंसाशाह व रोड़ा चारण ने करवाया।
- बारां में स्थित शाहबाद दुर्ग जिसका निर्माण मुकुटमणिदेव ने करवाया।
- इस दुर्ग को सलिमाबाद दुर्ग के नाम से भी जाना जाता है।
- इस दुर्ग में 19 फुट लम्बी नवलवान तोप प्रसिद्ध है।
- चौमूं का किला जयपुर में स्थित है। इसका निर्माण कर्णसिंह ने करवाया।
- इस दुर्ग को चौमुंहागढ़, रघुनाथगढ़ व धाराधारगढ़ के नाम से भी जाना जाता है।
- धौलपुर में स्थित शेरगढ़ के किले का निर्माण जोधपुर के शासक राव मालदेव ने करवाया।
- यह किला धौलपुर के राजा कीरतसिंह सोढा की राजधानी रहा। इस किले में हुनहुँकार तोप स्थित है।
- चुरू के किले का निर्माण ठाकुर कुशाल सिंह द्वारा कराया गया
- इस दुर्ग पर बीकानेर के शासकों ने 1814 ई. में आक्रमण किया।
- उस समय इस दुर्ग के ठाकुर शिवसिंह ने अपना गोला बारूद समाप्त हो जाने के कारण चाँदी के गोले बनवाकर उनको तोपों से दागा गया।
- इस कारण यह दुर्ग चाँदी के गोलों के लिए प्रसिद्ध है।
- भुमगढ़/अमीरगढ का दुर्ग टोंक में स्थित है। इस दुर्ग को दक्खन की चाबी के नाम से जाना जाता है।
- राजस्थान में शेखावाटी के महत्वपूर्ण दुर्गों में सीकर में स्थित फतेहपुर दुर्ग ऐतिहासिक है।
- इस दुर्ग में प्रसिद्ध तेलिन का महल स्थित है।
- शारदा तोप खण्डार दुर्ग (सवाई माधोपुर) में स्थित है।