राजस्थान की प्रमुख जनजातियाँ
Table of Contents
राजस्थान की प्रमुख जनजातियाँ निम्नानुसार हैं –
मीणा जनजाति
यह राजस्थान की सबसे ज्यादा जनसंख्या वाली जनजाति है। मीणा जनजाति के लोग मुख्यतः उदयपुर, जयपुर, दौसा, प्रतापगढ़, सवाई माधोपुर, करौली, अलवर, बूँदी, टोंक व डूंगरपुर आदि जिलों में निवास करते हैं।
मीणा जनजाति के मुख्य रूप से दो वर्ग हैं-
(1) जमींदार मीणा –
इस वर्ग के लोग खेती तथा पशुपालन करते हैं।
(2) चौकीदार मीणा –
इस वर्ग के लोग राजाओं व जागीरदारों के महलों व कोषागारों की चौकीदारी करते थे।
आजीविका –
इन लोगों की आजीविका का मुख्य स्त्रोत कृषि व पशुपालन ही है। देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सभी जनजातियों में यह जाति सर्वाधिक संपन्न व शिक्षित हुई है। मीणा जनजाति मुख्य रूप से शक्ति की उपासक है।
सामाजिक जीवन –
मीणों में शरीर पर गोदने गुदवाने का रिवाज प्रचलित है। इनके समाज में नाता प्रथा भी विद्यमान है। जिसमें एक विवाहित स्त्री अन्य पुरुष के साथ रहने लग जाती है। परन्तु जिस दूसरे पुरुष से वह नाता करती है उसे उसके पूर्व पति को मुआवजे की रकम (झगड़ा रकम) देनी पड़ती है। मीणा समाज में अनाज के संग्रह हेतु मिट्टी की बनाई गई बड़ी-बड़ी कोठियाँ ओबरी कहलाती है।
भील जनजाति
यह जनजाति राज्य की दूसरी सर्वाधिक बड़ी जनजाति हैं। कर्नल जेम्स टॉड ने भीलों को वन पुत्र कहा है। भील राजस्थान की सबसे प्राचीन जनजाति है। दक्षिणी राजस्थान के बाँसवाड़ा, डूंगरपुर, उदयपुर, प्रतापगढ़ व सिरोही जिलों में भील जनजाति का बाहुल्य है।
भीलों के घर टापरा या कू कहलाते हैं। टापरा के बाहर बनाये जाने वाले बरामदे को ढालिया कहलाते हैं। इनके गाँवों के मुखिया पालवी या तदवी कहा जाता है भीलों के सभी गाँवों की पंचायत का मुखिया गमेती कहलाता है। इनमें रोगों के उपचार के लोए डाम देना प्रहलित है।
भील जनजाति से संबंधित प्रमुख शब्दावली –
फाइरे-फाइरे –
भीलों द्वारा शत्रु से निपटने के लिए सामूहिक रूप से किया जाने वाला रणघोष। इनमें जातिगत एकता अधिक होती है।
फला –
इनके घरों का एक मोहल्ला फला कहलाता है।
पाल –
भीलों के कई फला का समूह या बड़ा गाँव पाल कहलाता है।
हाथी मना –
विवाह के अवसर पर भील पुरुषों द्वारा घुटनों के बल बैठकर तलवार घुमाते हुए किया जाने वाला नृत्य।
सहरिया जनजाति
यह जनजाति बारां जिले की शाहबाद व किशनगंज तहसीलों में (राज्य की कुल सहरिया जनसंख्या का लगभग 97%) निवास करती है। बाकि संख्या कोटा व झालावाड़ में हैं। सर्वाधिक पिछड़ी जनजाति होने के कारण भारत सरकार ने राज्य में केवल इसी जनजाति को आदिम जनजाति समूह की सूचि में रखा है।
सहरिया लोगों की बस्ती को सहराना के नाम से तथा गाँव को सहरोल नाम से पुकारा जाता है। घने जंगलों में निवास करने वाले सहरिया परिवार पेड़ों पर या बल्लियों पर मचाननुमा छोटी झोपड़ी बनाते हैं जिसे गोपना/कोरुआ/टोपा कहते हैं। सहरिया परिवार की कुलदेवी कोडिया देवी है। इस समुदाय में नृत्य के कार्यक्रमों में महिला व पुरुष एक साथ मिलकर नहीं नाचते हैं।
गरासिया जनजाति
राजस्थान में मीणा व भील जनजाति के बाद यह जनजाति तीसरे स्थान पर है। इस जनजाति का बाहुल्य सिरोही जिले की आबूरोड़ व पिंडवाडा तहसील, बाली (पाली) व गोगुन्दा व कोटडा (उदयपुर) में है। आबूरोड़ का भाखर क्षेत्र गरासियों का मूल प्रदेश माना जाता है।
गरासिया के घर घेर कहलाते हैं। गांवों की सबसे छोटी इकाई फालिया कहलाती है। इस जनजाति की पंचायत के मुखिया को सहलोत या पालवी कहा जाता है। मोर को ये आदर्श पक्षी मानते हैं। गरासिया जनजाति में विधवा विवाह करने को आणा/नातरा करना कहा जाता है।
कथौड़ी जनजाति
ये महाराष्ट्र के मूल निवासी हैं। कत्था बनाने में दक्ष होने के कारण वर्षों पूर्व उदयपुर के कत्था व्यवसायियों ने इन्हें यहाँ लाकर बसाया। कथौड़ी लोग घास-फूस, पत्तों व बाँसों से बने झोपड़ों में रहते हैं जिन्हें खोलरा कहा जाता है। इस जनजाति में मावलिया नृत्य व होली नृत्य प्रमुख है। कथौड़ी समाज के मुखिया को नायक कहा जाता हैं।
डामोर जनजाति
सर्वाधिक डामोर जनजाति के लोग डूंगरपुर जिले में रहते हैं। डामोर पुरुष भी महिलाओं की तरह गहने पहनने के शौक़ीन होते हैं। इनका मुख्य व्यवसाय कृषि है। इस समाज की पंचायत के मुखिया को मुखी कहते हैं।