राजपूत युग (Rajaput Era)–
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हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात् उत्तरी-पश्चिमी भारत में छोटे-छोटे स्वतन्त्र राज्यों का उदय हुआ। इन विभिन्न छोटे-छोटे राज्यों के शासक राजपूत थे। इसलिए इस युग को राजपूत युग (Rajaput Era) कहा जाता है। इस युग का आरम्भ 648 ई. में हर्षवर्धन की मृत्यु से होता है और इसका अन्त 1206 ई. में भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना से होता है।
राजपूत शब्द की उत्पत्ति –
ऋग्वेद में राजपुत्र और राजन्य शब्दों का बहुधा उल्लेख हुआ है। राजपूत शब्द राजपुत्र शब्द का अपभ्रंश है। बाद में महाभारत में भी ये शब्द समानार्थक रूप में प्रयुक्त किए गए हैं लेकिन ऐसा लगता है कि बाद में राजन्य राजा या शासक के रूप में और राजपुत्र राजा के पुत्र या उसके संबंधियों के पुत्रों के रूप में प्रयुक्त किया जाने लगा।
राजपूतों की उत्पत्ति के विभिन्न मत –
राजपूतों की उत्पत्ति के संबंध में विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न मत प्रस्तुत किए हैं। कुछ विद्वान् इनकी विदेशी उत्पत्ति बताते हैं तो कुछ देशी और कुछ उन्हें देशी-विदेशी मिश्रित उत्पत्ति से संबंधित बताते हैं।
(1) अग्निकुण्ड का सिद्धान्त –
सर्वप्रथम 12वीं शताब्दी ई. के अन्त में रचित चंदबरदाई के ग्रन्थ पृथ्वीराज रासो में राजपूतों के चार वंश प्रतिहार, परमार, चालुक्य और चौहानों की उत्पत्ति महर्षि वशिष्ठ के यज्ञ के अग्नि कुण्ड से बताई गई है।
डॉ. दशरथ शर्मा के अनुसार परमार, ब्राह्मण थे जो धर्म की रक्षार्थ क्षत्रिय बने। आसोपा भी यही मानते है। नैणसी और सूर्यमल्ल ने इस मत का समर्थन किया।
डॉ. जी.एन.शर्मा ने अग्निकुण्ड सिद्धांत को कवियों की कल्पना मात्र माना है। डॉ. गोरीशंकर हीराचन्द ओझा ने इसे विद्वानों की हठधर्मिता कहा है तो दशरथ शर्मा ने इस विचार को भाटों की कल्पना मात्र बताया है।
(2) सूर्य और चन्द्र वंशीय उत्पत्ति –
डॉ. गौरीशंकर हिराचन्द ओझा राजपूतों की सूर्य और चंद्रवंशी उत्पत्ति में विश्वास रखते हैं। डॉ. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार सभी राजपूतों को सूर्य एवं चंद्रवंशी कहना गलत होगा।
(3) विदेशी वंश से उत्पत्ति –
राजपूतों की उत्पत्ति का संबंध अनेक विद्वान् विदेशी जाति से बताते है। इन विद्वानों में कर्नल टॉड, विलियम क्रुक, विन्सेंट स्मिथ और डॉ. डी. आर. भण्डारकर प्रमुख है।
(4) ब्राह्मण उत्पत्ति का सिद्धान्त –
भण्डारकर महोदय जहाँ कुछ राजपूत वंशों की उत्पत्ति विदेशी गुर्जरों से मानते हैं वहाँ वे यह भी स्वीकार करते थे कि कुछ राजपूत वंश धार्मिक वर्ग से भी संबंधित थे। इस मत की पुष्टि के लिए वे बिजोलिया शिलालेख का सहारा लेते हैं जिसमें वासुदेव चहमान के उत्तराधिकारी सामन्त को वत्स गोत्रीय ब्राह्मण कहा गया है।
डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा और सी.वी. वैद्य इस ब्राह्मणवंशी मत को नहीं मानते हैं।
(5) वैदिक आर्यन उत्पत्ति –
सी.वी. वैद्य और गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने राजपूतों को भारतीय आर्यों की सन्तान माना है।
राजपूतों के प्रमुख राजवंश –
राजपूत युग (Rajaput Era) के प्रमुख राजवंश निम्नानुसार हैं-
गुर्जर प्रतिहार वंश –
इस वंश के संस्थापक नागभट्ट प्रथम था। यह मालवा का शासक था। नागभट्ट द्वितीय राष्ट्रकूट सम्राट गोविन्द तृतीय से हारा था। प्रतिहार वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली एवं प्रतापी राजा मिहिरभोज था।
मिहिरभोज ने अपनी राजधानी कन्नौज को बनाई थी। वह विष्णु भक्त था, उसने विष्णु के सम्मान में आदि वराह की उपाधि धारण की। इस वंश का अंतिम शासक राजा यशपाल (1036 ई.) था।
गहड़वाल (राठौड़) राजवंश –
इस वंश का संस्थापक चंद्रदेव था। इसकी राजधानी वाराणसी थी। गहड़वाल वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली राजा गोविन्द चन्द्र था। इस वंश का अंतिम शासक जयचन्द था, जिसे गोरी ने 1194 ई. के चंदावर युद्ध में मार डाला।
चाहमान या चौहान वंश –
चौहान वंश का संस्थापक वासुदेव था। इस वंश की प्रारंभिक राजधानी अहिच्छत्र थी बाद में अजयराज द्वितीय ने अजमेर नगर की स्थापना की और उसे राजधानी बनाया। चौहान वंश का सबसे शक्तिशाली शासक अर्णोराज के पुत्र विग्रहराज चतुर्थ (1153-1163 ई.) हुआ।
हरिकेलि नामक संस्कृत नाटक के रचयिता विग्रहराज चतुर्थ थे।
अढ़ाई दिन का झोपड़ा नामक मस्जिद शुरू में विग्रहराज चतुर्थ द्वारा निर्मित एक विद्यालय था।
पृथ्वीराज तृतीय इस वंश का अंतिम शासक था।
चंदबरदाई पृथ्वीराज तृतीय का राजकवि था, जिसकी रचना पृथ्वीराज रासो है।
तराईन का प्रथम युद्ध 1191 ई. में हुआ, जिसमें मुहम्मद गौरी को पृथ्वीराज तृतीय ने हराया।
जबकि तराईन के द्वितीय युद्ध 1192 ई. में हुआ, जिसमें गौरी ने पृथ्वीराज तृतीय को हराया।
परमार वंश –
परमार वंश का संस्थापक उपेन्द्रराज था।
इसकी राजधानी धारा नगरी थी।
इस वंस का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक राजा भोज था।
राजा भोज ने भोपाल के दक्षिण में भोजपुर नामक झील का निर्माण करवाया।
राजा भोज ने चिकित्सा, गणित एवं व्याकरण पर अनेक ग्रन्थ लिखे।
भोज ने चित्तौड़ में त्रिभुवन नारायण मंदिर का निर्माण करवाया।
भोजपुर नगर की स्थापना राजा भोज ने की थी।
सोलंकी वंश –
सोलंकी वंश का संस्थापक मूलराज प्रथम था।
इसकी राजधानी अन्हिलवाड़ थी।
सोलंकी वंश का प्रथम शक्तिशाली शासक जयसिंह सिद्धराज था।
इस वंश का शासक कुमारपाल जैन-मतानुयायी था।
वह जैन धर्म के अंतिम राजकीय प्रवर्तक के रूप में प्रसिद्ध है।
सिसोदिया वंश –
इस वंश के शासक अपने को सूर्यवंशी कहते थे।
सिसोदिया वंश के शासक मेवाड़ पर शासन करते थे।
इसकी राजधानी चित्तौड़ थी।
अपनी विजयों के उपलक्ष्य में विजयस्तम्भ का निर्माण राणा कुम्भा ने चित्तौड़ में करवाया।