पंचायती राज | Panchayati Raj | स्थापना | कार्यकाल
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भारत में ‘पंचायती राज’ शब्द का अभिप्राय ग्रामीण स्थानीय स्वशासन पद्धति से है। पंचायती राज (Panchayati Raj) को ग्रामीण विकास का दायित्व सौंपा गया है।
पंचायती राज का विकास –
बलवंत राय मेहता समिति –
जनवरी, 1957 में भारत सरकार ने सामुदायिक विकास कार्यक्रम (1952) तथा राष्ट्रीय विस्तार सेवा (1953) द्वारा किए कार्यों की जांच और उनके बेहतर ढंग से कार्य करने के लिए उपाय सुझाने के लिए एक समिति का गठन किया।
इस समिति के अध्यक्ष बलवंत राय मेहता थे।
बलवंत राय मेहता समिति ने नवम्बर 1957 को अपनी रिपोर्ट सौंपी।
जिसमें ‘लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण (स्वायत्तता)’ की योजना की सिफारिश की, जो की अंतिम रूप से पंचायती राज (Panchayati Raj) के रूप जाना गया।
समिति द्वारा दी गई सिफारिशे –
- तीन स्तरीय पंचायती राज पद्धति की स्थापना – गाँव स्तर पर ग्राम पंचायत, ब्लॉक स्तर पर पंचायत समिति और जिला स्तर पर जिला परिषद।
- ग्राम पंचायत की स्थापना प्रत्यक्ष रूप से चुने प्रतिनिधियों द्वारा होना चाहिए। जबकि पंचायत समिति और जिला परिषद का गठन अप्रत्यक्ष रूप से चुने सदस्यों द्वारा होनी चाहिए।
- सभी योजना और विकास के कार्य इन निकायों को सौंपे जाने चाहिए।
- पंचायत समिति को कार्यकारी निकाय तथा जिला परिषद् को सलाहकारी, समन्वयकारी और पर्यवेक्षण निकाय होना चाहिए।
- जिला परिषद् का अध्यक्ष, जिलाधिकारी होना चाहिए।
- इन लोकतांत्रिक निकायों में शक्ति तथा उत्तरदायित्व का वास्तविक स्थानांतरण होना चाहिए।
- इन निकायों को पर्याप्त स्रोत मिलने चाहिए जिससे ये अपने कार्यों और जिम्मेदारियों को संपादित करने में समर्थ हो सकें।
- भविष्य में अधिकारों के और अधिक प्रत्यायन के लिए एक पद्धति विकसित की जानी चाहिए।
समिति की इन सिफारिशों को राष्ट्रीय विकास परिषद् द्वारा जनवरी 1958 में स्वीकार किया गया।
पंचायती राज व्यवस्था की स्थापना –
राजस्थान देश का पहला राज्य था, जहाँ पंचायती राज की स्थापना हुई।
इस योजना का उद्घाटन 2 अक्टूबर, 1959 ई. को राजस्थान के नागौर जिले में तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू द्वारा किया गया।
इसके बाद आंध्र प्रदेश ने इस योजना को 1959 में लागू किया।
1960 दशक के मध्य तक बहुत-से राज्यों ने पंचायती राज (Panchayati Raj) संस्थाएं स्थापित की।
अशोक मेहता समिति –
दिसम्बर 1977 में, जनता पार्टी की सरकार ने अशोक मेहता की अध्यक्षता में पंचायती राज संस्थाओं पर एक समिति को गठन किया।
इस समिति ने अगस्त 1978 में अपनी रिपोर्ट सौंपी और पंचायती राज को मजबूत करने हेतु 132 सिफारिशें की।
इसकी प्रमुख सिफारिशें –
- त्रिस्तरीय पंचायती राज पद्धति को द्विस्तरीय पद्धति में बदलना चाहिए।
- राज्य स्तर से नीचे लोक निरिक्षण में विकेंद्रीकरण के लिए जिला ही प्रथम बिंदु होना चाहिए।
- पंचायती चुनावों में सभी स्तर पर राजनीतिक पार्टियों की आधिकारिक भागीदारी हो।
- अपने आर्थिक स्रोतों के लिए पंचायती राज संस्थाओं के पास कराधान की अनिवार्य शक्ति हो।
- पंचायती राज संस्थाओं के मामलों की देखरेख के लिए राज्य मंत्रिपरिषद में एक मंत्री की नियुक्ति होनी चाहिए।
- उनकी जनसंख्या के आधार पर अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए स्थान आरक्षित होना चाहिए।
- पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता दी जानी चाहिए।
केन्द्रीय स्तर पर जनता पार्टी की सरकार भंग होने के कारण इस समिति की सिफारिशों पर कोई कार्यवाही नहीं की जा सकी।
जी.वी.के. राव समिति –
ग्रामीण विकास एवं गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम की समीक्षा करने के लिए मौजूदा प्रशासनिक व्यवस्थाओं के लिए योजना आयोग द्वारा 1985 में जी.वी.के. राव की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया।
समिति ने पंचायती राज पद्धति को मजबूत और पुनर्जीवित करने हेतु विभिन्न सिफारिशें की, जिनमें से कुछ इस प्रकार थी –
- जिला परिषद को लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण में सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया जाना चाहिए।
- जिला एवं स्थानीय स्तर पर पंचायती राज संस्थाओं को विकास कार्यों के नियोजन, क्रियान्वयन एवं निगरानी में महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान की जानी चाहिए।
- एक जिला विकास आयुक्त के पद का सृजन किया जाना चाहिए।
- पंचायती राज संस्थाओं में नियमित निर्वाचन होने चाहिए।
एल.एम. सिंघवी समिति –
राजीव गाँधी सरकार ने 1986 में लोकतंत्र व विकास के लिए पंचायती राज संस्थाओं का पुनरुद्धार पर एक अवधारणा पत्र तैयार करने के लिए एक समिति का गठन एल.एम. सिंघवी की अध्यक्षता में किया।
इस समिति द्वारा दी गई प्रमुख सिफारिशें –
- पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक रूप से मान्यता देने और उनके संरक्षण की आवश्यकता है।
- गाँवों के समूह के लिए न्याय पंचायतों की स्थापना की जाए।
- ग्राम पंचायतों को ज्यादा व्यवहारिक बनाने कल इए गाँवों का पुनर्गठन किया जाना।
- गाँव की पंचायतों को ज्यादा आर्थिक संसाधन उपलब्ध कराए जाने चाहिए।
73वां संविधान संशोधन अधिनियम 1992 –
इस अधिनियम ने भारत के संविधान में एक नया भाग-IX जोड़ा गया।
इसे पंचायतें नाम से इस भाग में उल्लिखित किया गया और अनुच्छेद-243 से 243 ण के प्रावधान सम्मिलित किए गए।
73वें संशोधन अधिनियम ने संविधान में एक नई 11वीं अनुसूची भी जोड़ी गई।
इस अधिनियम ने पंचायती राज संस्थाओं को एक संवैधानिक दर्जा दिया और इसे संविधान के अंतर्गत वाद योग्य हिस्से के अधीन लाया।
इस अधिनियम के उपबंधों को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है – अनिवार्य और स्वैच्छिक।
अनिवार्य प्रावधान –
- एक गांव या गांवों के समूह में ग्राम सभा का गठन।
- गांव स्तर पर पंचायतों, माध्यमिक स्तर एवं जिला स्तर पर पंचायतों की स्थापना।
- तीनों स्तरों पर सभी सीटों के लिए प्रत्यक्ष चुनाव।
- माध्यमिक और जिला स्तर के प्रमुखों के लिए अप्रत्यक्ष चुनाव।
- पंचायत के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित अध्यक्ष तथा अन्य सदस्यों का मताधिकार।
- पंचायतों में चुनाव लड़ने के लिए कम-से-कम आयु 21 वर्ष होनी चाहिए।
- सभी स्तरों पर अनुसूचित जाति एवं जनजातियों (सदस्य एवं प्रमुख दोनों के लिए) के लिए आरक्षण।
- सभी स्तरों पर एक-तिहाई पद महिलाओं के लिए आरक्षित।
- पंचायतों के साथ ही मध्यवर्ती एवं जिला निकायों का कार्यकाल पांच वर्ष होना चाहिए तथा किसी पंचायत का कार्यकाल समाप्त होने के छह महीने की अवधि के भीतर नए चुनाव हो जाने चाहिए।
- चुनाव के लिए राज्य निर्वाचन आयोग की स्थापना।
- पंचायतों की वित्तीय स्थिति का समीक्षा करने के लिए प्रत्येक पांच वर्ष बाद एक राज्य वित्त आयोग की स्थापना की जानी चाहिए।
स्वैच्छिक प्रावधान –
- ग्राम सभा को ग्राम स्तर पर शक्ति एवं प्रकार्यों से युक्त करना।
- ग्राम पंचायत के अध्यक्ष के निर्वाचन के तरीके को निर्धारित करना।
- ग्राम पंचायतों के अध्यक्षों को मध्यवर्ती पंचायतों में प्रतिनिधित्व देना, और जहाँ मध्यवर्ती पंचायतें नहीं हैं, वहाँ जिला पंचायतों में प्रतिनिधित्व देना।
- राज्य की निधि से पंचायतों को अनुदान सहायता प्रदान करना।
- राज्य सरकार द्वारा संगृहीत कर, शुल्क, पथकर, फीस आदि के लिए पंचायत को अधिकृत करना।
पंचायतों का कार्यकाल –
यह अधिनियम सभी स्तरों पर पंचायतों का कार्यकाल पांच वर्ष के लिए निश्चित करता है।
समय पूरा होने से पूर्व भी उसे विघटित किया जा सकता है।
एक भंग पंचायत के स्थान पर गठित पंचायत जो भंग पंचायत की शेष अवधि के लिए गठित की गई है।
वह भंग पंचायत जो समय-पूर्व भंग होने पर पुनर्गठित हुई है, वह पुरे पांच वर्ष की निर्धारित अवधि तक कार्यरत नहीं होती, बल्कि केवल बचे हुए समय के लिए ही कार्यरत होती है।