उच्चतम न्यायालय (Superme Court)
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भारतीय संविधान ने एकीकृत न्याय व्यवस्था की स्थापना की है, जिसमें शीर्ष स्थान पर उच्चतम न्यायालय (Superme Court) व उसके अधीन उच्च न्यायालय हैं।
एक उच्च न्यायालय के अधीन अधीनस्थ न्यायालयों की श्रेणियां हैं, जो हैं – जिला न्यायालय एवं अन्य अधीनस्थ न्यायालय।
भारत के उच्चतम न्यायालय का उद्घाटन 28 जनवरी, 1950 को किया गया।
भारतीय संविधान के भाग V में अनुच्छेद 124 से 147 तक, उच्चतम न्यायालय के गठन, स्वतंत्रता, न्यायक्षेत्र, शक्तियां, प्रक्रिया आदि का उल्लेख है।
उच्चतम न्यायालय की संरचना –
2019 में केन्द्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के कुल न्यायाधीशों की संख्या 31 से बढ़ाकर 34 कर दी है, जिसमें मुख्य न्यायाधीश भी शामिल हैं।
न्यायाधीशों की संख्या यह बढ़ोतरी उच्चतम न्यायालय (न्यायाधीशों की संख्या) संशोधन अधिनियम, 2019 के अंतर्गत की गई है।
मूलतः सर्वोच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश सहित न्यायाधीशों की संख्या 8 निश्चित थी।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति कैसे होती है –
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है।
मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति अन्य न्यायाधीशों एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की सलाह के बाद करता है।
मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में मुख्य न्यायाधीश का परामर्श आवश्यक है।
परामर्श पर विवाद –
‘परामर्श’ शब्द की उच्चतम न्यायालय द्वारा विभिन्न व्याख्याएँ दी गई हैं।
प्रथम न्यायाधीश मामले (1982) में न्यायालय ने कहा कि परामर्श का मतलब सहमति नहीं, वरन विचारों का आदान-प्रदान है।
परन्तु द्वितीय न्यायाधीश मामले (1993) में न्यायालय ने अपने पूर्व के फैसले को परिवर्तित किया और कहा कि परामर्श का मतलब सहमति प्रकट करना है।
तीसरे न्यायाधीश मामले (1998) में न्यायालय ने मत दिया कि परामर्श प्रक्रिया को मुख्य न्यायाधीश द्वारा ‘बहुसंख्यक न्यायाधीशों की विचार प्रक्रिया’ के तहत माना जाएगा।
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति –
1950 से 1973 तक व्यवहार में यह था कि उच्चतम न्यायालय में वरिष्ठतम न्यायाधीश को बतौर मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया जाता था।
इस व्यवस्था का 1973 में हनन हुआ जब ए.एन. राय को तीन वरिष्ठतम न्यायाधीशों से ऊपर भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त कर दिया गया।
इसके बाद 1977 में एम.यु. बेग को वरिष्ठतम व्यक्ति के ऊपर बतौर मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की योग्यताएं –
- उसे भारत का नागरिक होना चाहिए।
- (i) उसे किसी उच्च न्यायालय का कम-से-कम पांच वर्ष के लिए न्यायाधीश होना चाहिए, अथवा (ii) उसे उच्च न्यायालय या विभिन्न न्यायालयों में मिलाकर 10 वर्ष तक वकील होना चाहिए, अथवा (iii) राष्ट्रपति के मत में उसे सम्मानित न्यायवादी होना चाहिए।
संविधान में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति के लिए न्यूनतम आयु का उल्लेख नहीं है।
शपथ या प्रतिज्ञान –
सर्वोच्च न्यायालय के लिए नियुक्त न्यायाधीश को अपना कार्यकाल संभालने से पूर्व राष्ट्रपति या इस कार्य के लिए उसके द्वारा नियुक्त व्यक्ति के सामने निम्नलिखित शपथ लेनी होगी कि मैं –
- भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूँगा।
- भारत की प्रभुता एवं अखंडता को अक्षुण रखूँगा।
- अपनी पूरी योग्यता, ज्ञान और विवेक से अपने पद के कर्तव्यों का भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना पालन करूंगा।
- संविधान और विधियों की मर्यादा बनाए रखूँगा।
वेतन एवं भत्ते –
संविधान के अनुच्छेद 125 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को वेतन, भत्ते, विशेषाधिकार, अवकाश एवं पेंशन का निर्धारण समय-समय पर संसद द्वारा किया जाता है।
वित्तीय आपातकाल के दौरान इनको कम किया जा सकता है।
2018 में मुख्य न्यायाधीश का वेतन प्रतिमाह 1 लाख रुपये से बढ़ाकर 2.80 लाख रुपये प्रतिमाह और अन्य न्यायाधीशों का वेतन 90000 प्रतिमाह से बढ़ाकर 2.50 लाख रुपये प्रतिमाह कर दिया गया है।
इसके अलावा उन्हें अन्य भत्ते भी दिए जाते हैं। उन्हें निःशुल्क आवास और अन्य सुविधाएँ, जैसे- चिकित्सा, कार, टेलीफोन आदि भी मिलते हैं।
सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश व अन्य न्यायाधीशों की पेंशन उनके अंतिम माह के वेतन का पचास प्रतिशत निर्धारित है।
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों का कार्यकाल –
- वह 65 वर्ष की आयु तक पद पर बना रह सकता है। उसके मामले में किसी प्रश्न के उठने पर संसद द्वारा स्थापित संस्था इसका निर्धारण करेगी।
- वह राष्ट्रपति को लिखित त्याग-पत्र दे सकता है।
- संसद की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा उसे पद से हटाया जा सकता है।
न्यायाधीशों को पद से हटाना –
न्यायाधीश जांच अधिनियम (1968) उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाने के संबंध में महाभियोग की प्रक्रिया का उपबंध करता है –
- निष्कासन प्रस्ताव 100 सदस्यों (लोकसभा के मामले में) या 50 सदस्यों (राज्यसभा के मामले में) द्वारा हस्ताक्षर करने के बाद अध्यक्ष/सभापति को दिया जाना चाहिए।
- अध्यक्ष/सभापति इस प्रस्ताव को शामिल भी कर सकते हैं या इसे अस्वीकार भी कर सकते हैं।
- यदि इसे स्वीकार कर लिया जाए तो अध्यक्ष/सभापति को इसकी जांच के लिए तीन सदस्यीय समिति गठित करनी होगी।
- समिति में शामिल होना चाहिए – (अ) मुख्य न्यायाधीश या उच्चतम न्यायालय का कोई न्यायाधीश, (ब) किसी उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश, और (स) प्रतिष्ठित न्यायवादी।
- यदि समिति न्यायाधीश को दुर्व्यवहार का दोषी या असक्षम पाती है तो सदन इस प्रस्ताव पर विचार कर सकता है।
- विशेष बहुमत से दोनों सदनों में प्रस्ताव पारित कर इसे राष्ट्रपति को भेजा जाता है।अंत में राष्ट्रपति न्यायाधीश को हटाने का आदेश जारी कर देते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय के किसी भी न्यायाधीश पर अब तक महाभियोग नहीं लगाया गया है।
पहला महाभियोग का मामला उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश वी. रामास्वामी (1991-1993) का है।
जांच समिति ने उन्हें दुव्यर्वहार का दोषी पाया लेकिन उन पर महाभियोग नहीं लगाया जा सका क्योंकि यह लोकसभा में पारित नहीं हो सका।
सर्वोच्च न्यायालय का कार्यकारी, तदर्थ और सेवानिवृत्त न्यायाधीश –
कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश –
राष्ट्रपति किसी न्यायाधीश को भारत के उच्चतम न्यायालय का कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश नियुक्त कर सकता है जब –
- मुख्य न्यायाधीश का पद रिक्त हो,
- अस्थायी रूप से मुख्य न्यायाधीश अनुपस्थित हो,
- मुख्य न्यायाधीश अपने दायित्वों के निर्वहन में असमर्थ हो।
तदर्थ न्यायाधीश –
जब कभी कोरम पूरा करने में स्थायी न्यायाधीशों की संख्या कम हो रही हो तो भारत का मुख्य न्यायाधीश किसी उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश को अस्थायी काल के लिए सर्वोच्च न्यायालय में तदर्थ न्यायाधीश नियुक्त कर सकता है।
ऐसा वह संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श एवं राष्ट्रपति की पूर्ण मंजूरी के बाद ही कर सकता है।
इस पद पर नियुक्त व्यक्ति के पास उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की योग्यताएं होनी चाहिए।
सेवानिवृत्त न्यायाधीश –
किसी भी समय भारत का मुख्य न्यायाधीश उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश से अल्पकाल के लिए उच्चतम न्यायालय में कार्य करने का अनुरोध कर सकता है।
ऐसा संबंधित व्यक्ति एवं राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति के ही किया जा सकता है।
ऐसा न्यायाधीश राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित भत्तों का उपभोग करने योग्य होता है।
वह उच्चतम न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की तरह न्याय निर्णयन, शक्तियों और विशेषाधिकारों का अधिकारी होगा, परंतु वह उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश नहीं माना जाएगा।
सर्वोच्च न्यायालय का स्थान –
संविधान ने उच्चतम न्यायालय का स्थान दिल्ली घोषित किया।
लेकिन मुख्य न्यायाधीश को यह अधिकार है कि उच्चतम न्यायालय (Superme Court) का स्थान कहीं और निर्धारित करे लेकिन ऐसा निर्णय वह राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति के बाद ही ले सकता है।
यह व्यवस्था वैकल्पिक है न कि अनिवार्य।
उच्चतम न्यायालय की स्वतंत्रता –
(1) नियुक्ति का तरीका –
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति (अर्थात् कैबिनेट) न्यायिक सदस्यों (यानी सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश) की सलाह से करता है।
यह व्यवस्था कार्यकारिणी के पक्षपात में कटौती करती है व सुनिश्चित करती है कि न्यायिक नियुक्ति राजनीति पर आधारित नहीं हैं।
(2) कार्यकाल की सुरक्षा –
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को कार्यकाल की सुरक्षा प्रदान की जाती है।
उन्हें संविधान में उल्लिखित प्रावधानों के जरिए सिर्फ राष्ट्रपति हटा सकता है।
इसका अभिप्राय यह है कि उनकी नियुक्ति तो राष्ट्रपति द्वारा होती है, लेकिन उनका कार्यकाल राष्ट्रपति की दया पर निर्भर नहीं है।
(3) निश्चित सेवा शर्तें –
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन, भत्ते, अवकाश, विशेषाधिकार, पेंशन का निर्धारण समय-समय पर संसद द्वारा किया जाता है।
(4) संचित निधि से व्यय –
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों का वेतन एवं कार्यालयीन व्यय, भत्ते एवं पेंशन व अन्य प्रशासनिक खर्च संचित निधि पर भारित होते हैं।
अतः संसद द्वारा इन पर मतदान नहीं किया जा सकता (यद्यपि चर्चा की जा सकती है) ।
(5) न्यायाधीशों के आचरण पर बहस नहीं हो सकती –
महाभियोग के अतिरिक्त संविधान में न्यायाधीशों के आचरण पर संसद में या राज्य विधानमंडल में बहस पर प्रतिबन्ध लगाया गया है।
(6) सेवानिवृत्ति के बाद वकालत पर रोक –
सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को भारत में कहीं भी किसी न्यायालय या प्राधिकरण में कार्य करने की स्वतंत्रता नहीं है।
ऐसा यह सुनिश्चित करने के लिए किया गया है कि वह निर्णय देते समय भविष्य का ध्यान न रखें।
(7) अपनी अवमानना पर दण्ड देने की शक्ति –
उच्चतम न्यायालय उस व्यक्ति को दंडित कर सकता है जो उसकी अवमानना करे। इसका अभिप्राय यह है कि इसके कार्यों व फैसलों की किसी इकाई द्वारा आलोचना नहीं की जा सकती।
यह शक्ति सर्वोच्च न्यायालय को प्राप्त है कि वह अपने प्राधिकार मर्यादा और प्रतिष्ठा को बनाए रखे।
(8) अपना स्टाफ नियुक्त करने की स्वतंत्रता –
भारत के मुख्य न्यायाधीश को बिना कार्यकारी के हस्तक्षेप के अधिकारी एवं कर्मचारियों को नियुक्त करने का अधिकार है।
वह उनकी सेवा शर्तों को भी तय कर सकता है।
(9) इसके न्यायक्षेत्र में कटौती नहीं की जा सकती –
संसद को उच्चतम न्यायालय के न्याय क्षेत्र एवं शक्तियों में कटौती का अधिकार नहीं है।
संविधान में इसके न्यायक्षेत्र एवं विभिन्न कार्यों का उल्लेख है हालांकि संसद इसमें वृद्धि कर सकती है।
(10) कार्यपालिका से पृथक् –
संविधान निर्देश देता है कि राज्य लोक-सेवाओं के क्रियान्वयन के मसले पर कार्यपालिका को न्यायपालिका से अलग करे।
इसका मतलब कार्यकारिणी को न्यायिक शक्तियों को रखने का अधिकार नहीं है।
उच्चतम न्यायालय (Superme Court) की शक्तियां एवं क्षेत्राधिकार –
- मूल क्षेत्राधिकार
- न्यायादेश क्षेत्राधिकार
- अपीलीय क्षेत्राधिकार
- सलाहकार क्षेत्राधिकार
- अभिलेखों का न्यायालय
- न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति
- अन्य शक्तियां
(1) मूल क्षेत्राधिकार –
सर्वोच्च न्यायालय भारत के संघीय ढांचे की विभिन्न इकाइयों के बीच किसी विवाद पर संघीय न्यायालय की तरह निर्णय देता है।
किसी भी विवाद को जो –
- केन्द्र व एक या अधिक राज्यों के मध्य हो, या
- केन्द्र और कोई राज्य या राज्यों का एक तरफ होना एवं एक या अधिक राज्यों का दूसरी तरफ होना, या
- दो या अधिक राज्यों के मध्य।
उपर्युक्त संघीय विवाद पर उच्चतम न्यायालय (Superme Court) में ‘विशेष मूल’ न्यायक्षेत्र निहित है।
विशेष का तात्पर्य है किसी अन्य न्यायालय को विवादों के निपटाने में इस तरह की शक्तियां प्राप्त नहीं हैं।
(2) न्यायादेश क्षेत्राधिकार –
भारतीय संविधान ने उच्चतम न्यायालयों को नागरिकों के मूल अधिकारों के रक्षक व के रूप स्थापित किया है।
सर्वोच्च न्यायालय को अधिकार प्राप्त है कि वह बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, उत्प्रेषण, प्रतिषेध एवं अधिकार पृच्छा आदि पर न्यायादेश जारी कर विक्षिप्त नागरिक के मूल अधिकारों की रक्षा करे।
इस संबंध में उच्चतम न्यायालय को मूल न्यायाधिकार प्राप्त हैं और नागरिक को अधिकार है कि वह बिना अपील याचिका के सीधे उच्चतम न्यायालय में जा सकता है।
जब किसी नागरिक के मूल अधिकारों का हनन हो रहा हो तो वह सीधे उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय में जा सकता है।
(3) अपीलीय क्षेत्राधिकार –
उच्चतम न्यायालय निचली अदालतों के फैसलों के खिलाफ सुनवाई करता है।
इसके अपीलीय न्यायक्षेत्र निम्न प्रकार से हैं –
- संवैधानिक मामलों में अपील,
- दीवानी मामलों में अपील,
- आपराधिक मामलों में अपील,
- विशेष अनुमति द्वारा अपील।
संवैधानिक मामलों में अपील –
संवैधानिक मामलों में उच्चतम न्यायालय (Superme Court) में उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील की जा सकती है।
यदि उच्च न्यायालय इसे प्रभावित करे कि मामले में विधि का पूरक प्रश्न निहित है जिसमें संविधान की व्याख्या निहित है।
अनुचित फैसले के आधार पर उच्चतम न्यायालय में अपील की जा सकती है।
दीवानी मामलों –
दीवानी मामलों के तहत उच्चतम न्यायालय में किसी भी मामले को लाया जा सकता है यदि उच्च न्यायालय प्रमाणित कर दे –
- मामला सामान्य महत्त्व के पूरक प्रश्न पर आधारित है।
- ऐसा प्रश्न है जिसका निर्णय उच्चतम न्यायालय द्वारा किया जाना आवश्यक है।
आपराधिक मामले –
उच्चतम न्यायालय उच्च न्यायालय के आपराधिक मामलों के फैसलों के खिलाफ सुनवाई करता है।
यदि उच्च न्यायालय ने –
- आरोपी व्यक्ति के दोषमोचन के आदेश को पलट दिया हो और उसे सजा-ए-मौत दी हो।
- किसी अधीनस्थ न्यायालय से मामला लेकर आरोपी व्यक्ति को दोषसिद्ध किया हो, उसे सजा-ए-मौत दी हो।
- यह प्रमाणित करे कि संबंधित मामला उच्चतम न्यायालय में ले जाने योग्य है।
पहले दोनों मामलों में उच्चतम न्यायालय (Superme Court) में अपील अधिकार स्वरूप आती है (यानी उच्च न्यायालय के किसी प्रमाण-पत्र के बिना) परन्तु यदि उच्च न्यायालय ने बंदीकरण के आदेश को पलट कर आरोपी को दोषमुक्त करने का आदेश दिया हो तो उच्चतम न्यायालय में अपील का कोई अधिकार नहीं होगा।
विशेष अनुमति द्वारा अपील –
- यह एक विवेकानुसार शक्ति है और इसलिए इसका अधिकार के रूप में दावा नहीं किया जा सकता।
- किसी भी फैसले में इसका मत या तो अंतिम होता है या अंतरिम ।
- यह किसी भी मामले से संबंधित हो सकता है – संवैधानिक, दीवानी, आपराधिक, आयकर, श्रम, राजस्व, वकील आदि।
- इसे किसी भी न्यायालय या पंचाट के खिलाफ ही जरूरी नहीं है (सैन्य न्यायालय को छोड़कर) ।
(4) सलाहकार क्षेत्राधिकार –
भारतीय संविधान अनुच्छेद 143 तहत राष्ट्रपति को दो श्रेणियों के मामलों में उच्चतम न्यायालय से राय लेने का अधिकार देता है –
- सार्वजनिक महत्व के किसी मामले पर विधिक प्रश्न उठने पर।
- किसी पूर्व संवैधानिक संधि, समझौते, प्रसंविदा आदि सनद मामलों पर किसी विवाद के उत्पन्न होने पर।
पहले मामले में सर्वोच्च न्यायालय (Superme Court)अपना मत दे भी सकता है और देने से इनकार भी कर सकता है।
दूसरे मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा राष्ट्रपति को अपना मत देना अनिवार्य है।
दोनों ही मामलों में उच्चतम न्यायालय का मत सिर्फ सलाह होती है।
इस तरह, राष्ट्रपति इसके लिए बाध्य नहीं है कि वह सलाह को माने।
(5) अभिलेख का न्यायालय –
अभिलेखों के न्यायालय के रूप में उच्चतम न्यायालय के पास दो शक्तियां हैं –
- उच्चतम न्यायालय की कार्यवाही एवं उसके फैसले सार्वकालिक अभिलेख व साक्ष्य के रूप में रखे जाएंगे। इन अभिलेखों पर किसी अन्य अदालत में चल रहे मामले के दौरान प्रश्न नहीं उठाया जा सकता। उन्हें विधिक सन्दर्भों की तरह स्वीकार किया जाएगा।
- इसके पास न्यायालय की अवमानना पर दंडित करने का अधिकर है। इसमें 6 साल के लिए सामान्य जेल या 2000 रुपये तक अर्थदंड या दोनों शामिल हैं।
(6) न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति –
उच्चतम न्यायालय में न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति निहित है।
इसके तहत वह केन्द्र व राज्य दोनों पर विधायी व कार्यकारी आदेशों की सांविधानिकता की जांच करता है।
इन्हें अधिकारातीत पाए जाने पर इन्हें गैर-विधिक, गैर-संवैधानिक और अवैध (बालित और शून्य घोषित किया जा सकता है) तदुपरान्त इन्हें सरकार द्वारा लागू नहीं किया जा सकता।
(7) संवैधानिक व्याख्या (अर्थविवेचन) –
उच्चतम न्यायालय (Superme Court) संविधान का अंतिम व्याख्याकर्ता और अर्थ विवेचनकर्ता है।
यह संविधान में निहित प्रावधानों तथा उसमें उपयोग की गई शब्दावली की भावना एवं निहितार्थ के विषय में अंतिम पाठ कथन प्रस्तुत कर सकता है।
(8) अन्य शक्तियां –
- यह राष्ट्रपति एवं उप-राष्ट्रपति के निर्वाचन के संबंध में किसी प्रकार के विवाद का निपटारा करता है। इस संबंध में यह मूल, विशेष एवं अंतिम व्यवस्थापक है।
- यह संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्यों के व्यवहार एवं आचरण की जांच करता है, उस संदर्भ में जिसे राष्ट्रपति द्वारा निर्मित किया गया है। यदि यह उन्हें दुर्व्यवहार का दोषी पाता है तो राष्ट्रपति से उसको हटाने की सिफारिश कर सकता है। उच्चतम न्यायालय द्वारा दी गई इस सलाह को मानने के लिए राष्ट्रपति बाध्य है।
- उच्च न्यायालयों में लंबित पड़े मामलों को यह मंगवा सकता है और उनका निपटारा कर सकता है। यह किसी लंबित मामले या अपील को एक उच्च न्यायालय से दूसरे में स्थानांतरित भी कर सकता है।
- इसकी विधियां भारत के सभी न्यायालयों के लिए बाध्य होगी। सभी प्राधिकारी (सिविल और न्यायिक) उच्चतम न्यायालय की सहायता में कार्य करते हैं।