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हिंदी साहित्य का आदिकाल

हिंदी साहित्य का आदिकाल

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हिंदी साहित्य का आदिकाल की प्रमुख प्रवृतियाँ- किसी काल विशेष के साहित्य में पाई जाने वाली प्रवृत्तियां तत्कालीन परिस्थितियों के सापेक्ष होती हैं। इस काल में प्रमुख रूप से रासो साहित्य की रचना हुई। इसके अलावा जैन साहित्य अपभ्रंश भाषा में लिखा गया है, अतः उसे आधारभूत सामग्री के रूप में स्वीकार नहीं कर सकते। इन ग्रंथों में पाई जाने वाली सामान्य प्रवृतियों का विवेचन निम्न शीर्षकों के अंतर्गत किया जा सकता है-

ऐतिहासिकता का अभाव-

रासो साहित्य के चरित्र- नायक ऐतिहासिक व्यक्ति हैं। किन्तु इन ग्रंथों में तथ्य कम हैं, कल्पना अधिक है, परिणामतः अनेक ऐतिहासिक भ्रांतियां उत्पन्न होती हैं। इन ग्रंथों के रचयिताओं ने जो वर्णन किये हैं, वे तत्कालीन इतिहास से मेल नहीं खाते है। घटनाओं, नामावली, तिथियों का जो विवरण रासो काव्यों में उपलब्ध होता है, वह इतिहास सम्मत नहीं है। चारण कवियों ने अतिशयोक्ति को प्रमुखता देते हुए काल्पनिक वर्णन किए हैं, यही कारण है कि इन ग्रंथों में ऐतिहासिकता का अभाव है।

युद्ध-वर्णन में सजीवता-

रासो ग्रंथों में किये गए युद्ध वर्णन सजीव प्रतीत होते हैं। चारण कवि कलम के साथ ही तलवार के भी धनी थे, अतः अवसर पड़ने पर अपने आश्रयदाता के साथ रणक्षेत्र में जाकर तलवार के हाथ भी दिखाते थे। युद्ध के दृश्यों को उन्होंने अपनी आँखों से देखा था, अतः इन युद्ध-वर्णनों में जो कुछ भी कहा गया है, वह उनकी अपनी वास्तविक अनुभूति है। इनके योगदान की चर्चा करते हुए आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है, “देश पर सब ओर से आक्रमण की संभावना थी। निरंतर युद्ध के लिए प्रोत्साहित करने को भी एक वर्ग आवश्यक हो गया था। चारण इसी श्रेणी के लोग थे।  उनका कार्य ही था हर प्रसंग में आश्रयदाता के युध्दोन्माद को उत्पन्न कर देने वाली घटना-योजना का आविष्कार।“ पृथ्वीराज रासो अपने युद्ध-वर्णन के कारण भी एक सशक्त रचना मानी जाती है।

प्रामाणिकता में संदेह-

आदिकाल के अधिकांश रासो कवियों की प्रामाणिकता संधिग्द है। पृथ्वीराज रासो जो इस काल की प्रमुख रचना मानी गई है, भी अप्रामाणिक बताई गई है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, “इसके अतिरिक्त और कुछ कहने की जगह नहीं कि यह पूरा ग्रन्थ वास्तव में जाली है।“ मूल कवि की रचना में अन्य लोगों ने कब और कितना अंश प्रक्षिप्त रूप में जोड़ दिया है इसका निर्णय कर पाना कठिन है। भाषा-शैली और विषय सामग्री के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ये रासो काव्य समय-समय पर परिवर्तित होते रहे हैं।

वीर एवं श्रृंगार रस की प्रधानता-

रासो ग्रंथों में यद्यपि सभी रसों का समावेश हुआ है, तथापि वीर एवं श्रृंगार रस की प्रधानता इनमें परिलक्षित होती है। वीरों के मनोभाव रवम अदम्य उत्साह का जैसा हृदयग्राही वर्णन रासो काव्यों में हिय गया है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। युद्ध शौर्य-प्रदर्शन के लिए तथा सुन्दर राजकुमारियों से विवाह करने के निमित्त लाडे जाते थे, अतः श्रृंगार रस के भावपूर्ण वर्णनों का समावेश भी इन काव्य ग्रंथों में हो गया है।

आश्रयदाताओं की प्रशंसा-

रासो ग्रंथों के रचयिता चारण कहे जाते थे और अपने आश्रयदाता राजाओं की प्रशंसा में काव्य रचना करना अपना परम कर्तव्य मानते थे। अपने चरित्र नायक की श्रेष्ठता एवं प्रतिपक्षी राजा की हीनता का वर्णन अतिशयोक्ति में करना इन चारणों की प्रमुख विशेषता कही जा सकती है। पृथ्वीराज रासो एवं खुमान रासो इसी कोटि की प्रशंसापरक काव्य रचनाएं हैं, जिनमें कवि ने अपने चरित नायक को राम, युधिष्ठिर, अर्जुन और हरिशचंद्र से भी श्रेष्ठ बताते हुए प्रत्येक दृष्टि से उनकी महत्ता प्रतिपादित की है।

संकुचित राष्ट्रीयता-

इस काल में वीरता का वर्णन तो बहुत हुआ, परन्तु स्वदेशाभिमान एवं राष्ट्रीयता की भावना का अभाव है। उस समय देश खंड-खंड राज्यों में विभक्त था और इन छोटे-छोटे राज्यों के शासक परस्पर कलह और संघर्ष करते रहते थे। वे दस-बीस गांवों के छोटे से राज्य को ही राष्ट्र समझते थे, अतः उनमें सम्पूर्ण भारत को एक राष्ट्र के रूप में देखने की भावना का अभाव था। यदि इन शासकों ने अपने क्षुद्र अहंभाव का परित्याग करके संगठित होकर विदेशियों का सामना किया होता तो देश को दीर्घ अवधि तक विदेशी शासन झेलते हुए परतंत्र न रहना पड़ता।

कल्पना की प्रचुरता-

चारण कवियों की रचनाएँ तथ्य परक न होकर कल्पना प्रधान हैं। कवियों ने कल्पना का सहारा लेते हुए घटनाओं, नामावलियों एवं तिथियों तक की कल्पना कर ली है। अपने आश्रयदाता की वीरता का काल्पनिक वर्णन करने में इन्होंने अतिशयोक्ति का सहारा लिया है।

विविध छंदों का प्रयोग-

रासो ग्रंथों में छंदों की विविधता मिलती है। छंदों की विविधता के कारण ही ही चंदबरदाई को छंदों का ‘सम्राट’ और उनकी रचना पृथ्वीराज रासो की ‘छंदों का अजायबघर’ कहा जाता है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने रासो के छंदों की विशेषता पर प्रकाश डालते हुए लिखा है, “रासो के छंद जब बदलते हैं तो श्रोता के चित्त में प्रसंगानुकूल नवीन कम्पन उत्पन्न करते हैं।“

डिंगल-पिंगल भाषा का प्रयोग-

अपभ्रंश और राजस्थानी भाषा के जिस मिले-जुले रूप का प्रयोग चारण कवियों ने रासो ग्रंथों में किया है, उसे डिंगल नाम दिया गया है। जबकि अपभ्रंश और ब्रजभाषा के मेल से बनी भाषा को पिंगल कहा जाता है, जिसका प्रयोग रासो ग्रंथों में किया गया है। वीर रस के भावों को व्यक्त करने की अद्भुत क्षमता डिंगल-पिंगल भाषा में विद्यमान है।

अलंकारों का स्वाभाविक समावेश-

रासो साहित्य में अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग हुआ है। चारण कवियों ने अपने मनोभावों को व्यक्त करने के लिए अलंकारों का सहारा लिया है, कहीं भी चमत्कार प्रदर्शन के लिए अलंकार योजना नहीं की गई है। यद्यपि रासो के विशाल कलेवर में प्रायः सभी अलंकार मिल जाते हैं तथापि अनुप्रास, वक्रोक्ति, यमक, श्लेष, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा और अतिशयोक्ति जैसे अलंकारों की प्रधानता रही है।

रासो काव्य परम्परा

डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त ने हिंदी रासो काव्य परम्परा को दो वर्गों में विभाजित किया है-

धार्मिक रास काव्य परम्परा-

इसके अंतर्गत उन ग्रंथों को लिया जा सकता है, जो जैन कवियों द्वारा लिखे गए हैं और उनमें जैन धर्म से सम्बंधित व्यक्तियों को चरित-नायक बनाया गया है।

ऐतिहासिक रासो काव्य परम्परा-

इसके अंतर्गत वे ग्रन्थ आते हैं, जिन्हें वास्तविक रूप से आदिकालीन हिंदी रासो काव्य परम्परा में स्थान दिया जा सकता है। चारण कवियों द्वारा रचित वीरगाथा काव्य इसी वर्ग के अंतर्गत आते हैं।

आदिकाल के प्रमुख ग्रन्थ और उनकी प्रामाणिकता

बीसलदेव रासो-

इसकी रचना नरपति नाल्ह द्वारा सं. 1212 विक्रमी में की गई। इस ग्रन्थ के चरितनायक विग्रहराज चतुर्थ एक ऐतिहासिक व्यक्ति हैं, किन्तु अन्य रासो की काव्यों की भांति इसमें भी अनेक ऐतिहासिक भ्रांतियां हैं जो यह प्रमाणित करती हैं कि इस ग्रन्थ में तथ्य कम है और कल्पना अधिक है। बीसलदेव रासो एक विरह काव्य है जिसका मूल रूप वस्तुतः ‘गेय काव्य’ का था। गेय काव्य होने के कारण ही इसका स्वरूप परिवर्तित होता रहा।

बीसलदेव रासो को चार भागों में विभक्त किया गया है- 1. प्रथम खंड में अजमेर राजा विग्रहराज चतुर्थ (बीसलदेव) का परमारवंशी राजा भोज की कन्या राजमती से विवाह, 2. रानी के व्यंग्य से रुष्ट राजा के उड़ीसा चले जाने की कथा, 3. बारह वर्ष तक राजा के उड़ीसा में रहने के कारण उनके विरह में रानी राजमती की स्थिति का वृतांत तृतीय खंड में किया गया है, 4. चतुर्थ खान में इन दोनों के पुनर्मिलन का वर्णन है। बीसलदेव रासो 125 छंदों की एक प्रेम परक रचना है जिसमें संदेश रासक की तरह विरह की प्रधानता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने बीसलदेव रासो की भाषा को राजस्थानी माना है जिसका व्याकरण अपभ्रंश के अनुरूप है।

पृथ्वीराज रासो-

इसकी रचना पृथवीराज चौहान के अभिन्न मित्र एवं दरबारी कवि चंदबरदाई  द्वारा की गई है। इस रासो की प्रामाणिकता के विषय में पर्याप्त विवाद रहा है। विद्वानों का एक वर्ग इसे पूर्णतः अप्रामाणिक रचना स्वीकार करता है। जिसमें आचार्य रामचंद्र शुक्ल, कविराजा श्यामल दस, डॉ. बूलर, मुंशी देवी प्रसाद, गौरी शंकर हीराचंद ओझा प्रमुख है। दुसरे वर्ग के विद्वान डॉ. श्याम सुन्दर दास, मोहनलाल विष्णुलाल पांड्या, मिश्र बन्धु और कर्नल टॉड आदि इस ग्रन्थ को प्रामाणिक रचना मानते है।

तृतीय वर्ग के विद्वान आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी एवं मुनि जिनि विजय इस रासो ग्रन्थ को अर्ध्दप्रामाणिक रचना मानते हुए इसके कुछ अंश को ही प्रामाणिक मानते हैं। पृथवीराज रासो ऐतिहासिक चरित काव्य होने पर भी ऐतिहासिक तथ्यों से रहित है। इसमें कवि ने कल्पना एवं अतिशयोक्ति का प्रयोग अधिक किया है। यह ग्रन्थ अपनी अद्भुत भाव-व्यंजना, प्रकृति निरूपण, अलंकारों के सहज प्रयोगों और छंदों की विविधता के कारण रासो काव्य परम्परा का सर्वोत्तम ग्रन्थ माना जाता है।

परमाल रासो-

इसके रचयिता कवि जगनिक थे। इनको चंदेल वंशी राजा परमर्दिदेव का दरबारी कवि माना जाता है। इस ग्रन्थ में आल्हा और ऊदल नामक दो क्षत्रिय सामंतों की वीरता का वर्णन प्रमुख रूप से किया गया है। उत्तर प्रदेश में इसे ‘आल्हा या ‘आल्हखण्ड’ के नाम से जाना जाता है। यह अपनी गेयता के कारण आज भी लोक-काव्य में सम्मिलित है। आचार्य रामचंद्र का मत है कि “जगनिक के काव्य का आज कहीं पता नहीं है पर, उसके आधार पर प्रचलित गीत, हिंदी भाषा-भाषी प्रान्तों के गाँव-गाँव में सुनाई पड़ते हैं। ….यह गूंज मात्र है मूल शब्द नहीं।

“ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी इस ग्रन्थ को अर्धद्प्रामाणिक ही स्वीकार किया है। इस ग्रन्थ का रचना काल 13वीं शताब्दी के प्रारंभ में माना गया है।‘आल्हखण्ड’ नाम से चार्ल्स ईलिएट ने सर्वप्रथम इसका प्रकाशन कराया था जिसके आधार पर डॉ. श्यामसुंदर दास ने ‘परमाल रासो’ का पाठ निर्धारण कर उसे नागरी प्रचारिणी से प्रकाशित कराया।

खुमान रासो-

इसके रचयिता दलपति विजय नामक कवि थे। इस ग्रन्थ का चरित नायक मेवाड़ का राजा खुमान द्वितीय है। अन्य रासो ग्रंथों की तरह ही इसका रचनाकाल भी संदिग्ध है, क्योंकि आचार्य रामचंद्र शुक्ल इसे 9वीं शताब्दी की रचना मानते हैं तो राजस्थान के वृत्त संग्रहको (डॉ. मोतीलाल मेनारिया) ने इसे 17वीं शती की रचना बताया है। इस ग्रन्थ की प्रामाणिक हस्तलिखित प्रति पूना-संग्रहालय में उपलब्ध हैं। इस ग्रन्थ की रचना लगभग 5,000 छंदों में की गई है। यद्यपि वीर रस ही इस ग्रन्थ का प्रधान रस है तथापि श्रृंगार के मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी चित्र भी इसमें उपलब्ध होते हैं।

आदिकालीन साहित्य के स्मरणीय तथ्य

(अ) रासो काव्य

क्र.स. काव्य ग्रन्थ (रासो ग्रन्थ) रचयिता रचनाकाल
1. पृथ्वीराज रासो चंदबरदाई 1343 ई.
2. बीसलदेव रासो नरपति नाल्ह 1212 ई.
3. परमाल रासो (आल्हाखंड) जगनिक
4. खुमान रासो दलपति विजय 1729 ई.
5. विजयपाल रासो नल्लसिंह 16वीं शती ई.
6. हम्मीर रासो शारंगधर 1357 ई.

(ब) रास काव्य (जैन साहित्य)

क्र.स. रास काव्य रचयिता
1. भरतेश्वर बाहुबलीरस शालिभद्र सूरि
2. बुध्दि रास शालिभद्र सूरि
3. चंदनवाला रास आसगु
4. जीवदया रास आसगु
5. स्थूलिभद्र रास जिनि धर्म सूरि
6. रेवंत गिरि रास विजयसेन सूरि
7. नेमिनाथ रास सुमति गुणी
8. कच्छुली रास प्रज्ञातिलक
9. जिनि पद्म सूरि रास सारमूर्ती
10. गौतम स्वामी रास उदयवंत
11. पंच पांडव चरित रास शालिभद्र सूरि

(स) नाथ साहित्य

    नाथ साहित्य के प्रवर्तक मत्स्येन्द्रनाथ एवं गोरखनाथ माने गए हैं। नाथों का समय 12वीं शती से 14वीं शती तक है। डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल ने गोरखनाथ की रचनाओं का संकलन गोरखबानी नाम से किया है। गोरखनाथ ने षट्चक्रों वाला योग मार्ग हिंदी साहित्य में चलाया। इन्होंने अपने शिष्यों को नारी से दूर रहने का उपदेश दिया। कवीर साहित्य में उपलब्ध नारी विरोध इसी का परिणाम है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार, “इनकी सबसे बड़ी कमजोरी इनका रूखापन एवं गृहस्थ के प्रति अनादर भाव है।“ नाथों की संख्या नौ मानी गई है।

(य) सिध्द साहित्य

        वज्रयानियों को ही सिध्द कहा गया है। राहुल सांकृत्यायन ने सिध्दों की संख्या 84 बताई है। ये अपने नाम के पीछे ‘पा’ जोड़ते थे। 7वीं-8वीं शती में सिध्दों का समय माना जाता है। कुछ प्रमुख सिद्ध और उनकी कृतियाँ इस प्रकार हैं-

  1. सरहपा- दोहाकोश (769 ई.), इन्हें सरहपाद भी कहा जाता है। इनकी 32 रचनाओं का उल्लेख है।
  2. शबरपा- चर्यापद (780 ई.)
  3. लुइपा- शबरपा के शिष्य, रचना का उल्लेख नहीं।
  4. डोम्मिपा- विरुपा के शिष्य, डोम्मिगीतिका इनकी रचना है।
  5. कंहपा- 74 ग्रंथों के रचयिता।
  6. कुक्कुरिपा- 16 ग्रंथों के रचयिता।

(य) खुसरो की पहेलियां

        अमीर खुसरो का जन्म एटा जिले के पटियाली गाँव में 1255 ई. में हुआ था। उन्होंने जनता के मनोरंजन के लिए पहेलियां लिखीं। आदिकाल में खुसरो ने खड़ी बोली का प्रयोग काव्य भाषा के रूप में किया। इसलिए अमीर खुसरो को खड़ी बोली हिंदी का पहला कवि माना जाता है। खुसरो के ग्रंथों की संख्या 100 बताई जाती है। जिनमें खालिकबारी, खुसरो की पहेलियां, मुकरिया, दो सखुने एवं गजल प्रसिद्ध हैं। इनकी कृति खालिकबारी एक शब्दकोश है। तुर्की, अरबी-फारसी, हिंदी भाषाओं का पर्यायवाची कोश। खुसरो प्रसिद्ध संगीतज्ञ भी थे और हजरत निजामुद्दीन औलिया के शिष्य थे। उन्होंने ही सितार और तबला का आविष्कार किया था।

(र) आदिकालीन अपभ्रंश साहित्य

क्र. सं. रचना का नाम रचयिता का नाम काल एवं वर्ण्य विषय
1. सन्देश रासक अब्दुर्रहमान 12वीं शती का उत्तरार्द्ध, विरह काव्य
2. पउमचरिउ स्वयंभू 8वीं शती, राम कथा
3. रिट्ठनेमी चरिउ स्वयंभू 8वीं शती, कृष्ण काव्य
4. नागकुमार चरिउ स्वयंभू 8वीं
5. महापुराण पुष्पदंत 10वीं शती, तीर्थकरों एवं राम-कृष्ण का चरित
6. भविसयत्तकहा धनपाल 10वीं शती, वणिक पुत्र भविष्यदत्त की कथा
7. उपदेश रसायन रास जिनिदत्त सूरि 12वीं शती, नृत्य गीत रास काव्य
8. परमात्म प्रकाश, योगसार जोइंदु 6वीं शती, धर्म-दर्शन
9. पाहुड दोहा रामसिंह 11वीं शती, दार्शनिकता
10. ढोला-मारू रा दूहा कुशललाभ विरह काव्य, 11वीं शती में रचित

(ल) विद्यापति पदावली

          आदिकाल के श्रृंगारी कवि विद्यापति ने मैथिलि भाषा में ‘पदावली’ रचना की है। कीर्तिलता, कीर्तिपताका उन्होंने अपभ्रंश भाषा में लिखी हैं। वे मैथिल के राजा शिवसिंह के दरबारी कवि थे। विद्यापति को मैथिल कोकिल, कविशेखर, अभिनव जयदेव भी कहा जाता है। विद्यापति शैव थे तथा उनकी पदावली में भक्ति एवं श्रृंगार का समन्वय दिखाई पड़ता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, “विद्यापति के पद अधिकतर श्रृंगार के ही हैं जिनमें नायिका और नायक राधा-कृष्ण हैं। आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने गीत गोविन्द के पदों को आध्यात्मिक संकेत बताया है, वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी।“

(व) आदिकाल का गद्य

 मैथिलि हिंदी में रचित गद्य की एक अन्य पुस्तक वर्ण रत्नाकर (लेखक- ज्योतिरीश्वर ठाकुर) भी उपलब्ध होती है। हिंदी गद्य के विकास में इस पुस्तक का भी विशेष महत्व है। ‘राउलवेल’ नामक गद्य रचना के लेखक रोडा हैं। यह एक शिलांकित कृति है और इसका रचना काल 10वीं शती है।

हिंदी साहित्य का आदिकाल FAQ’s

प्रश्न : हिंदी साहित्य का आदिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ है –

उत्तर : हिंदी साहित्य का आदिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ निम्न है- ऐतिहासिकता का अभाव, संकुचित राष्ट्रीयता, युद्ध का सजीव वर्णन आदि.

इस प्रकार इस लेख में हमने हिंदी साहित्य का आदिकाल का विस्तार से अध्ययन किया है. उम्मीद करते है कि यह आपके लिए उपयोगी साबित होगा.

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