वैष्णव सम्प्रदाय
वैष्णव सम्प्रदाय में विष्णु पूजा को स्थान किया गया है। इसके अंतर्गत पांचरात्र, नारायणी एवं सात्वत सम्प्रदायों को स्थान दिया गया है। विष्णु और वासुदेव की एकता भागवत धर्म एवं सात्वत धर्म में स्थापित की गई है। वासुदेव ही इसके प्रवर्तक हैं। पांचरात्र में रात्र का अर्थ ज्ञान है। पांचरात्र का अर्थ – पांच प्रकार के ज्ञान का अच्छी तरह बोध होना। ये पांच ज्ञान है- 1. परमतत्व, 2. मुक्ति, 3. भुक्ति, 4. योग तथा 5. विषय (संसार)। शंकराचार्य ने पांचरात्र धर्म की प्रतिष्ठा की। वैष्णव भक्ति के तत्व गीता में भी उपलब्ध होते हैं। इसके अतिरिक्त शांडिल्य भक्ति सूत्र, नारद भक्ति सूत्र में भक्ति का विस्तृत विवेचन किया गया है।
शांडिल्य भक्ति सूत्र में भक्ति के दो भेद परा और अपरा बताए गए हैं।
भागवत पुराण में कृष्णावतार को विस्तृत रूप से चित्रित किया गया।
कृष्णभक्त कविओं ने अपनी आधारभूत सामग्री यहीं से प्राप्त की।
प्रमुख वैष्णव आचार्य
वैष्णव भक्ति (सम्प्रदाय) को स्थापित करने वाले आचार्यों का काल 11वीं शती से 16वीं शती तक है।
इन आचार्यों में प्रमुख हैं-
रामानुजाचार्य-
इनका समय 1017 ई. से 1127 ई. है। इन्होंने राम को विष्णु का अवतार माना है। इनके सिध्दांत को विशिष्टाद्वैतवाद (श्री सम्प्रदाय) कहते है। वे भक्ति को मुक्ति का साधन मानते हैं। इन्होंने तत्वमसि का अर्थ किया है- ‘तू उसका सेवक है।’
भगवान की शरण में दास्यभाव से जाकर ही जीवात्मा का कल्याण होता है।
इनसे सर्वाधिक प्रभावित हिंदी कवि गोस्वामी तुलसीदास है।
मध्वाचार्य-
इनका जन्म 1199 ई.में दक्षिण भारत के बेलिग्राम में हुआ था। दीक्षांत नाम आनंदतीर्थ था। आठ मंदिरों का निर्माण कराने वाले मध्वाचार्य ने वैष्णव भक्ति के प्रचार में विशिष्ट योगदान रहा। इनका मत द्वैतवाद (ब्रह्य सम्प्रदाय) कहलाता है। इन्होंने अद्वैतवाद का विरोध किया। ये जगत को सत्य मानते हैं तथा ईश्वर और जीव में भेद नहीं मानते। वास्तविक सुख की अनुभूति ही मुक्ति है जिसे अमला भक्ति से प्राप्त किया जा सकता है।
विष्णुस्वामी-
डॉ. भंडारकर के अनुसार इनका समय 13वीं शताब्दी है। ये ईश्वर को सच्चिदानंद स्वरूप मानते है। ये नृसिंह को ईश्वर का प्रधान अवतार बताते हैं। इनके प्रमुख शिष्य वल्लभाचार्य थे। दार्शनिक दृष्टि से इनका सिध्दांत शुध्दाद्वैतवाद कहलाया है। इनकी मान्यताओं को ही बल्लभाचार्य जी ने ग्रहण किया जो प्रमुख भक्त एवं आचार्य माने जाते हैं।
निम्बार्काचार्य-
डॉ. भंडारकर ने इनका समय 1162 ई. के आसपास माना है। इनका दार्शनिक मत द्वैताद्वैतवाद (भेदाभेदवाद) कहलाता है।
जीव अंश है तथा ब्रह्म अंशी है। भक्ति ही मुक्ति का साधन है।
कृष्ण विष्णु के अवतार हैं। स्वामी हरिदास का सखी सम्प्रदाय इसकी एक शाखा है।
बल्लभाचार्य-
इनका जन्म सन 1479 ई. में रायपुर जिले के चंपारण गाँव में हुआ। ये तैलंग ब्राह्मण थे।
अकबर भी इनकी विद्वता से प्रभावित था।
जिस प्रकार स्वर्ण अनेक रूपों में परिवर्तित होने पर भी शुध्द स्वर्ण ही रहता है उसी प्रकार ब्रह्म भी शुद्ध है।
ब्रह्म की तीन शक्तियां हैं- संधिनी, संवित और ह्लादिनी शक्ति।
इसी से वह क्रमशः सत, चित और आनंद को प्रकट करता है।
जीव के तीन रूप हैं- शुद्ध जीव, संसारी जीव और मुक्त जीव।
भगवान के पोषण या अनुग्रह से ही भक्ति प्राप्त होती है- ऐसा मानने के कारण इनके मत को पुष्टिमार्ग कहा जाता है। साधन सापेक्ष भक्ति को ये ‘मर्यादा भक्ति’ और साधन-निरपेक्ष भक्ति को ये पुष्टि भक्ति कहते हैं। पुष्टि भक्ति को मर्यादा भक्ति से श्रेष्ठ मानते है। बल्लभाचार्य के पुत्र गोस्वामी विट्ठलनाथ ने भी बल्लभ सम्प्रदाय के प्रचार-प्रसार में योगदान किया।
गोस्वामी विट्ठलनाथ ने पुष्टिमार्गीय भक्ति पध्दति को देशभर में प्रचारित किया और अष्टछाप की स्थापना की। अष्टछाप के आठ कवियों में चार बल्लभाचार्य के शिष्य थे और शेष चार गोस्वामी विट्ठलनाथ के शिष्य थे। बल्लभाचार्य के लिखे प्रमुख ग्रंथों के नाम हैं- अणुभाष्य, सुबोधिनी टीका, तत्वदीप निबंध, श्रृंगाररस मंडन तथा विद्वंमंडन।