वैदिक सभ्यता व संस्कृति
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भारतीय इतिहास में 1500 ई.पू. से 600 ई.पू. तक के कालखण्ड को वैदिक सभ्यता की संज्ञा दी जाती है। इस सभ्यता का विकास ग्रामीण अर्थव्यवस्था के आधार पर हुआ। वैदिक सभ्यता व संस्कृति के प्रणेता आर्य थे। वैदिक सभ्यता को मुख्य रूप से निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया जाता है-
(1) पूर्व वैदिक (ऋग्वैदिक) काल (1500 ई.पू. से 1000 ई.पू. तक)
(2) उत्तर वैदिक काल (1000 ई.पू. से 600 ई.पू. तक)
(1) पूर्व वैदिक (ऋग्वैदिक) काल-
जिस काल में ऋग्वेद की रचना हुई, उसे पूर्व वैदिक (ऋग्वैदिक) काल कहते है। इस सभ्यता का केंद्र स्थल सप्त सैंधव प्रदेश था।
राजनैतिक संगठन –
वैदिक आर्यों की सबसे छोटी राजनैतिक इकाई है- परिवार। जिसका मुखिया परिवार का सबसे वृद्ध पुरुष होता था। राजपद आमतौर पर वंशानुगत, किन्तु कभी-कभी निर्वाचित भी होता था। जन या कबिले का मुखिया राजन होता था। वह सभा, समिति व विदथ जैसी जनप्रतिनिधि संस्थाओं के नियंत्रण में रहता था। किसी भी प्रकार के विस्तृत अधिकारी तंत्र व कर व्यवस्था का विकास नहीं हुआ था। पुरोहित, ग्रामणी मुख्य अधिकारी थे।
धर्म –
प्राचीन आर्यों का धर्म एकदम सादा था। प्राकृतिक शक्तियों से प्रभावित थे। उनके भक्ति के विषय विविध सृष्टि चमत्कारों के व्यक्ति भावापन्न रूप होते थे, जिन्हें वे देवता कहते थे। इनके निम्न वर्ग थे-
पार्थिव देवता – पृथ्वी व अग्नि।
अंतरिक्ष स्थानीय देवता – इंद्र, वायु, अश्विनी।
आकाशीय देवता – वरुण, उषा, सूर्य आदि।
इन देवताओं में वरुण को सर्वाधिक आदरणीय स्थान प्राप्त था। इन देवताओं को प्रसन्न करने के लिए प्रार्थना और यज्ञ किए जाते थे।
सामाजिक जीवन –
ऋग्वैदिक कालीन समाज कबायली समाज था। गण, ब्रात, सार्थ, जन, विश आदि सामाजिक इकाइयों का उल्लेख मिलता है। वह भाईचारा पर आधारित कबायली संगठन की ओर इशारा करती है। समाज में ग्रह की तुलना में विश का काफी महत्त्व था। समाज में दास का भी उल्लेख मिलता है। ऋग्वैदिक कालीन समाज पितृसत्तात्मक समाज था इसमें नारियों का स्थान सम्मान था।
पशुपालन –
आर्यों का प्रमुख निर्वाह साधन पशुपालन था। गायों की विपुल संख्या से उनकी सम्पदा एवं समृद्धि आँकी जाती थी, जिन्हें वे सभी शुभ पदार्थों का योग मानते थे।
कृषि –
कृषि उनका दूसरा व्यवसाय था। ऋग्वेद में मात्र 24 श्लोक में कृषि का उल्लेख मिलता है। एकमात्र उपज – यव है, जिसका उल्लेख मिलता है।
व्यापार –
इस काल में व्यापार वस्तु विनिमय प्रणाली पर आधारित होता था। गाय लेन-देन का मानक मूल्य मानी जाती थी।
भोजन –
इस काल में लोग भोजन शाकाहार तथा माँसाहार दोनों प्रकार के करते थे। भेड़ व बकरे का मांस खुलकर खाया व देवों को चढ़ाया जाता था। वे सूरा जैसे मादक द्रव्यों से भी परिचित थे।
पहनावा –
इस काल के लोग अधोवस्त्र तथा उत्तरीय पहनते थे। बाद में वैदिक संहिता के काल में वे कच्छ और अन्तः वस्त्र पहनने लगे। भेड़ की ऊन से वस्र तैयार किए जाते थे।
(2) उत्तर वैदिक काल –
जिस काल में ऋग्वेद के अलावा अन्य तीन वेद यथा यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण, उपनिषद् एवं अरण्य आदि ग्रंथों की रचना हुई, उसे उत्तर वैदिक काल कहा जाता है।
राजनीतिक स्थिति –
राजा –
उत्तर वैदिक काल में राजा का पद वंशानुगत हो गया तथा वे विभिन्न उपाधियाँ धारण करने लगे। राजसूय, अश्वमेध तथा वाजपेय यज्ञों का आयोजन किया जाता था। इस काल में राजा के अधिकारों में वृद्धि होने के कारण सभा व समिति का महत्व कम हो गया था।
राज्य के प्रमुख अधिकारी –
इस काल में राज्य की स्थापना के फलस्वरूप अधिकारी यंत्र का विकास हुआ। राज्य के प्रमुख पदाधिकारी को रत्निन कहा जाता था। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार रत्नियों की संख्या 11 थी।
शासन प्रबंध –
रत्निन, शासन में राजा का सहयोग करता था। सेना का प्रबंध सेनानी, गाँव का प्रबंध ग्रामीण द्वारा किया जाता था। न्याय संबंधी प्रबंध अध्यक्ष नामक अधिकारी को सौंपा गया था।
आय के साधन –
उत्तर वैदिक काल में राज्य की प्रमुख आय में भूमि कर तथा व्यापार कर था। प्रजा से वसूल किए जाने वाले को बलि कहते थे।
सामाजिक स्थिति –
परिवार –
उत्तर वैदिक काल में समाज की प्रमुख इकाई परिवार थी। परिवार का सबसे बड़ा पुरुष परिवार का अध्यक्ष अथवा मुखिया होता था।
वर्ण व्यवस्था –
उत्तर वैदिक काल में समाज चार वर्गों में विभाजित था। यथा – (क) ब्राह्मण – यज्ञ, वेदों का अध्ययन, शिक्षा देना, (ख) क्षत्रिय – समाज की बाह्य आक्रमण आदि से रक्षा, (ग) वैश्य – कृषि एवं व्यापार, (घ) शुद्र – ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य की सेवा करना।
वर्ण व्यवस्था का मुख्य आधार जन्म था। इस काल में आश्रम व्यवस्था की भी नींव पड़ गई थी।
विवाह –
इस काल में विवाह को एक पवित्र बंधन माना जाता था। अन्तर्जातीय व विधवा विवाह का प्रचलन था। दहेज प्रथा का प्रचलन था, लेकिन बाल-विवाह, पर्दा प्रथा तथा सती प्रथा का प्रचलन नहीं था।
आभूषण –
इस काल में आभूषण मोती, स्वर्ण व मणि आदि से बनाए जाते थे। निष्क, मणि शंख, ललाटिका, कर्णिका आदि आभूषण व्यक्तियों द्वारा धारण किए जाते थे।
वेशभूषा –
उत्तर वैदिक काल में वास तथा नीवी वस्त्रों के प्रमुख प्रकार थे।
यज्ञ के अवसर पर रेशमी वस्त्र पहना जाता था।
भोजन –
इस काल में लोग माँसाहारी भोजन को बुरा मानते थे।
अधिकांश लोग शाकाहारी भोजन करते थे।
गेहूँ, चना, जौ, घी, दही, शहद आदि का प्रयोग करते थे।
मनोरंजन के साधन –
उत्तर वैदिक कालीन सभ्यता व संस्कृति के मनोरंजन के साधनों में रथ दौड़, घुड़दौड़, आखेट, संगीत, जुआ आदि प्रमुख थे।
स्त्रियों की दशा –
इस काल में स्त्रियों की स्थिति में गिरावट आ गई थी।
उन्हें उपनयन संस्कार से वंचित कर दिया गया था। कन्या के जन्म को अभिशाप माना जाने लगा।
आर्थिक दशा –
कृषि –
इस समय खेतों को जोतने के लिए हल का प्रयोग किया जाता था।
कृषि औजार लकड़ी व लोहे के बने होते थे।
वर्ष में दो फसलें उगाई जाती थी।
सिंचाई हेतु कुएँ, नहरों व वर्षा जल का प्रयोग किया जाता था।
प्रमुख फसलों में गेहूं, जौ,चावल, चना, तिल, फल, सब्जी आदि थे।
पशुपालन –
इस काल में गाय कीको महत्वपूर्ण माना जाता था।
उसे पूज्य माना जाता था। गाय, भैंस, भेड़, बकरी, हाथी, घोड़े आदि मुख्य पालतू पशु थे।
व्यापार –
उत्तरवैदिक काल में व्यापार स्थल व समुद्री दोनों मार्गों द्वारा होता था।
इस समय व्यापार उन्नत था। व्यापारियों के अध्यक्ष को श्रेष्ठी कहा जाता था।
उद्योग धंधे –
इस काल में उद्योग धंधे भी उन्नत थे। मुख्य उद्योग कपड़ा बुनना था। बुनाई का काम केवल स्त्रियाँ करती थी।
धार्मिक जीवन –
उत्तर वैदिक काल में भी धर्मोपासना का भौतिक लक्ष्य ही बना रहा।
मोक्ष आदि की संकल्पना वैदिक काल के अंत में आई।
यज्ञ अत्यधिक खर्चीला हो गया।
यज्ञों में पशु-बलि भी बड़े पैमाने पर होने लगी।
इस काल में सर्वप्रमुख देवता प्रजापति हो गए।
रूद्र की भी महिमा बढ़ी। जादू-टोना तथा भूत-प्रेतों में भी लोगों का विश्वास काफी बढ़ गया।