राजस्थान की प्रमुख बोलियाँ
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राजस्थान में बोली जाने वाली राजस्थानी भाषा की प्रमुख बोलियाँ निम्नानुसार हैं –
मारवाड़ी –
इस मारवाड़ी को कुवलयमाला में मरुभाषा कहा गया है। यह पश्चिमी राजस्थान की प्रमुख बोली है। मारवाड़ी का आरंभिक काल 8वीं शताब्दी से माना जाता है। यह बोली जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर, पाली, नागौर, जालौर एवं सिरोही आदि जिलों में बोली जाती है। मारवाड़ी के साहित्यिक रूप डिंगल कहलाता है। इसकी उत्पत्ति शौरसैनी के गुर्जरी अपभ्रंश से हुई मानी जाती है।
मेवाड़ी –
उदयपुर व उसके आसपास का क्षेत्र मेवाड़ कहलाता है और इस क्षेत्र की बोली मेवाड़ी कहलाती है।
मेवाड़ी का शुद्ध रूप मेवाड़ के गाँवों में ही देखने को मिलता है।
मेवाड़ी में लिखे लोक साहित्य के विपुल भण्डार है। यह भीलों में प्रचलित है।
वागड़ी –
डूंगरपुर व बांसवाड़ा के सम्मिलित क्षेत्र का प्राचीन नाम वागड़ था।
इसलिए इस क्षेत्र की बोली वागड़ी कहलायी।
इस बोली पर गुजराती का प्रभाव अधिक है।
यह भाषा मेवाड़ के दक्षिणी भाग, दक्षिणी अरावली प्रदेश तथा मालवा की पहाड़ियों तक के क्षेत्र में बोली जाती है।
ढूँढाड़ी –
यह भाषा उत्तरी जयपुर को छोड़कर शेष जयपुर, किशनगढ़, टोंक, लावा तथा अजमेर-मेरवाड़ा के पूर्वी अंचलों में बोली जाती है। इस भाषा में गद्य व पद्य दोनों में साहित्य की रचना की गई है। इस बोली को जयपुरी या झाड़शाही के नाम से भी जाना जाता है।
ढूँढाड़ी की प्रमुख बोलियाँ- तोरावाटी, राजावाटी, शाहपुरी, नागरचोल, किशनगढ़ी, अजमेरी, काठेड़ी, हाड़ौती।
तोरावाटी –
सीकर जिले का पूर्वी व दक्षिणी-पूर्वी भाग, झुंझुनूं जिले का दक्षिणी भाग व जयपुर जिले के कुछ उत्तरी भाग को तोरावाटी कहा जाता है। अतः इस क्षेत्र की बोली तोरावाटी कहलाई।
हाड़ौती –
कोटा, बूँदी, बारां व झालावाड़ का क्षेत्र हाड़ौती कहलाता है और इस क्षेत्र को बोली हाड़ौती कहलाती है। सूर्यमल्ल मिश्रण की अधिकांश रचनाएँ हाड़ौती भाषा में है। हाड़ौती का भाषा के अर्थ में प्रयोग सबसे पहले केलाग की हिंदी ग्रामर में सन 1875 ई.में किया गया।
मेवाती –
अलवर व भरतपुर जिलों का क्षेत्र मेवात के नाम से जाना जाता है। अतः यहाँ की बोली मेवाती कहलाती है। यह अलवर की किशनगढ़, तिजारा, रामगढ़, गोविंदगढ़, लक्ष्मनगढ़ तहसीलों तथा भरतपुर की कामां, डीग व नगर तहसीलों के पश्चिमोत्तर भाग तक तथा हरियाणा के गुडगाँव जिला व उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले तक विस्तृत है। मेवाती बोली पर ब्रजभाषा का प्रभाव बहुत अधिक दृष्टिगोचर होता है। लालदासी व चरणदासी संत सम्प्रदायों का साहित्य मेवाती भाषा में ही रचा गया है।
अहिरवाटी –
आभीर जाति के क्षेत्र की बोली होने के कारण इसे हीरवाटी या हीरवाल भी कहा जाता है। यह मुख्य रूप से अलवर की बहरोड़ व मुंडावर तहसील, जयपुर की कोटपूतली तहसील के उत्तरी भाग, हरियाणा के गुड़गाँव, महेंद्रगढ़, नारनौल, रोहतक जिलों व दिल्ली के दक्षिणी भाग में बोली जाती है। जोधराज का हम्मीर रासौ महाकाव्य, शंकर राव का भीम विलास काव्य, अलिबख्शी ख्याल लोकनाट्य आदि की रचना इसी बोली में की गई है।
मालवी –
यह मालवा क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा है। मालवी एक कर्णप्रिय एवं कोमल भाषा है।
रांगड़ी –
मालवा के राजपूतों में मालवी व मारवाड़ी के मिश्रण से बनी रांगड़ी बोली भी प्रचलित है।
शेखावाटी –
यह मारवाड़ी की उपबोली है जो राज्य के शेखावाटी क्षेत्र में बोली जाती है।
गौड़वाड़ी –
जालौर जिले की आहोर तहसील के पूर्वी भाग से प्रारम्भ होकर बाली (पाली) में बोली जाने वाली यह मारवाड़ी की उपबोली है।