बौद्ध धर्म (Buddhism)
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भारतीय धर्मों के इतिहास में बौद्ध धर्म (Buddhism) का इतिहास अद्वितीय है। इस धर्म का उदय छठी शताब्दी ई.पू. में महात्मा बुद्ध के द्वारा हुआ था। वैदिक परम्परा का विरोध मुखरित कर बौद्ध धर्म ने एक सामाजिक एवं नैतिक आन्दोलन की शुरुआत की।
बुद्ध का जीवन परिचय –
जन्म एवं बचपन –
बुद्ध का जन्म 563 ई.पू. में शाक्य गणराज्य की राजधानी कपिलवस्तु से 14 मील दूर स्थित लुम्बिनी (रूम्मिनदेई) वन में हुआ था। जो नेपाल की तराई में है। इनका बचपन का नाम सिद्धार्थ था। गौतम गोत्र से संबंधित होने के कारण उन्हें गौतम भी कहा जाता है। इनके पिता का नाम शुद्धोदन व माता का नाम महामाया था। बुद्ध के जन्म के सातवें दिन माता महामाया का निधन हो गया।
महाभिनिष्क्रमण –
बुद्ध का विवाह 16 वर्ष की आयु में कोलिय गणराज्य की रूपलावण्यमयी राजकुमारी यशोधरा के साथ कर दिया गया। इनके पुत्र का नाम राहुल था। लगभग 13 वर्ष तक गृहस्थ जीवन बिताने के बाद भी सिद्धार्थ का मन सांसारिक प्रवृत्तियों में नहीं लगा सका। सिद्धार्थ के मन में वैराग्य भावना बढ़ती जा रही थी।
इसी वैराग्य भावना ने उन्हें तृष्णा की जंजीर को, तोड़ने, अज्ञान का कोहरा दूर भगाने तथा अपनेपन की मिथ्या को मिटाने की प्रेरणा प्रदान की तथा परिवार को व सम्पूर्ण राज्य वैभव को त्यागकर वे ज्ञान की खोज में निकल पड़े। उनके जीवन की इस घटना को बौद्ध धर्म एवं साहित्य में महाभिनिष्क्रमण के नाम से पुकारा जाता है।
सम्बोधि –
सर्वप्रथम वैशाली के समीप आलार कालाम नामक तपस्वी के आश्रम में रहकर गौतम ने साधना कार्य किया लेकिन उन्हें शांति नहीं मिली। बाद में उरुवेला की सुरम्य वनस्थली में आये और तपस्या में लीन हो गए। यहाँ उन्होंने कठोर तपस्या की और आहार का भी त्याग कर दिया, जिससे उनका शरीर निश्चल व शक्तिविहीन-सा हो गया, लेकिन उन्हें ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ।
अंत में एक वटवृक्ष के नीचे बैठकर ध्यानस्थ हो गए। सात दिन अखण्ड समाधि में स्थित रहने के बाद आठवें दिन वैशाली पूर्णिमा की रात को उन्हें सम्बोधित (आन्तरिक ज्ञान) प्राप्त हुई और अब वे बुद्ध के नाम से विख्यात हुए। अब वे तथागत; जिसने सत्य को जान लिया बौद्ध के नाम से भी जाने गए। जिस वृक्ष के नीचे उन्हें बोध प्राप्त हुआ था, उसका नाम बोधिवृक्ष पड़ा।
धर्म चक्र प्रवर्तन –
बुद्ध ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् गया नामक स्थान से सारनाथ पहुँचे और वहाँ उन्होंने सर्वप्रथम धर्म का उपदेश उन ब्राह्मण साथियों को दिया, जो उन्हें गया में छोड़कर चले गए थे। बौद्ध साहित्य में प्रथम धर्म उपदेश की यह घटना ‘धर्म चक्र प्रवर्तन कहलाती है।
महापरिनिर्वाण –
अपने जीवन के अंतिम दिनों में बुद्ध भ्रमण करते हुए मल्ल जनपद की राजधानी पावा पहुँचे। वहाँ उन्होंने चुन्द नामक व्यक्ति के यहाँ भोजन किया, जिसके बाद वे कुशीनारा पहुँचे। यहाँ 483 ई.पू. में अस्सी वर्ष की आयु में, उन्होंने हिरण्यवती नदी के तट पर शरीर त्याग दिया। इस घटना को बौद्ध ग्रन्थों में महापरिनिर्वाण कहा जाता है।
बौद्ध धर्म की शिक्षाएँ –
महात्मा बुद्ध ने धर्म के दार्शनिक पक्ष के स्थान पर व्यवहार पर अधिक बल दिया है। उनका धर्म मानवता की उच्चतम सीमा तक पहुँच गया था। वे दार्शनिक प्रश्नों में नहीं उलझे।
चार आर्य सत्य –
बौद्ध धर्म (Buddhism) के सिद्धांतो की आधारशिला उसके चार आर्य सत्यों में निहित है। ये चार आर्य सत्य हैं – (1) दुःख, (2) दुःख समुदाय, (3) दुःख निरोध और (4) दुःख निरोध मार्ग।
अष्टांगिक मार्ग –
इसमें आठ चरणों का उल्लेख है, जो इस प्रकार है –
(1) सम्यक् दृष्टि –
सत्य दृष्टि, सत्य-असत्य को पहचानने का ज्ञान। सभी प्रकार के अच्छे-बुरे कर्मों का ज्ञान। बुद्ध के वचनों में विश्वास और आर्य सत्यों का ज्ञान।
(2) सम्यक् संकल्प –
इच्छा एवं हिंसारहित संकल्प। आत्म कल्याण का पक्का निश्चय ही सम्यक संकल्प है।
(3) सम्यक् वाणी –
सत्य एवं मृदु वाणी। झूठ, चुगली, कदुभाषण एवं अनावश्यक वाणी प्रयोग से बचना वाणी पर संयम।
(4) सम्यक् कर्मान्त –
सभी कर्मों में पवित्रता रखना। हिंसा, चोरी, व्यभिचार रहित कर्म। दया, दान, करुणा, मैत्री, अहिंसा का आचरण।
(5) सम्यक् आजीव –
जीवन-यापन का सदाचारपूर्ण एवं उचित मार्ग। जीवन निर्वाह के लिए निषिद्ध मार्गों का त्याग। हथियार व्यापार, मांस व्यापार, मदिरा एवं विष का व्यापार आदि अनुचित। नैतिक नियमों के अनुकूल जीविका के साधन।
(6) सम्यक् व्यायाम –
विवेकपूर्ण प्रयत्न, शुद्ध एवं ज्ञान युक्त प्रयत्न, मानसिक दोषों को हटाकर अपने व्यक्तित्व को शुद्ध बनाने के लिए प्रयत्न। अशुभ कर्मों का त्याग और शुभ कर्मों के लिए प्रयत्नशील।
(7) सम्यक् स्मृति –
शरीर एवं मन की दुर्बलताओं की निरंतर स्मृति एवं मन को ठीक विषय पर लगाना। चित्त को संतापों से बचाना। उत्तम शिक्षाओं का स्मरण। सदा जागरुक बने रहना।
(8) सम्यक् समाधि –
चित्त की एकाग्रता, चित्त के विक्षेप को दूर करना, चार आर्य सत्यों का निरन्तर ध्यान।
इस प्रकार दुःख निरोध मार्ग एक मध्यम मार्ग है। इसे मध्यम प्रतिपदा भी कहा जाता है। वास्तव में उहोंने भोग और त्याग के बीच का मार्ग अपनाया।
प्रतीत्यसमुत्पाद –
प्रतीत्यसमुत्पाद का शाब्दिक अर्थ है – किसी वस्तु के प्राप्त होने पर दूसरे की उत्पत्ति अथवा एक कारण के आधार पर कार्य की उत्पत्ति अथवा ऐसा होने पर वैसा उत्पन्न होता है। इसके प्रमुख तीन सूत्र बताए गए हैं – (1) इसके होने पर यह होता है। (2) इसके न होने पर यह नहीं होता हैं। (3) इसका निरोध होने पर यह निरुद्ध हो जाता है।
निर्वाण –
निर्वाण बौद्ध धर्म (Buddhism) का चरम लक्ष्य है। जिसे हिन्दू धर्म में मोक्ष व जैन धर्म में कैवल्य कहा गया है, उसी स्थिति को बौद्ध धर्म में निर्वाण कहा गया है। निर्वाण का शाब्दिक अर्थ है, दीपक के सामान बुझ जाना या शांत हो जाना। परन्तु बौद्ध दर्शन के अनुसार, निर्वाण परम आनन्द, परम सुख, परम ज्ञान और परम शांति की अवस्था है।
कर्मवाद –
बौद्ध धर्म कर्म प्रधान है। कर्म का बौद्ध धर्म में अर्थ मनुष्य की समस्त शारीरिक, वाचिक और मानसिक चेष्टाओं से है। बौद्ध धर्म (Buddhism) सृष्टि के कर्त्ता या नियन्ता के रूप में किसी ईश्वर या दैवीय शक्ति नहीं मानता है। उसके अनुसार, समस्त जगत के कार्य-व्यापारों का नियन्ता कर्म है।
बौद्ध धर्म का विभाजन व महायान सम्प्रदाय का उदय –
सामान्यतः यह माना जाता है कि महायान सम्प्रदाय का उदय बौद्धों की चतुर्थ संगीति के परिणामस्वरूप हुआ था। यह विचार भी है की महायान पंथ का उदय कुछ तो अश्वघोष जैसे विद्वान् ब्राह्मणों के प्रयत्नों का प्रतिफल था, जिन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था और जो इसे हिन्दू धर्म के निकट लाना चाहते थे।
हीनयान धर्म सिद्धान्तमूलक था। इसकी दृढ़ आचारवादिता साधारण जनता की मनोवृत्ति के अनुकूल नहीं थी। परन्तु महायान सम्प्रदाय में उन तत्त्वों का समावेश किया गया, जो जनसाधारण की भावनाओं को प्रतिबिम्बित करता था। महायान ने विदेशों में धर्म प्रचार को सुगम कर दिया। भारत में भी बौद्ध धर्म को लोकप्रिय बनाने में महायान सम्प्रदाय का प्रमुख हाथ है।
हीनयान और महायान में अंतर
क्र.सं. | हीनयान | महायान |
1. | बुद्ध महापुरुष | ईश्वर का अवतार |
2. | मुख्यतया दर्शन | मुख्यतया धर्म |
3. | शील को प्रमुख स्थान | करुणा पर अधिक बल |
4. | व्यक्ति को निर्वाण के लिए स्वयं को प्रयास करने की आवश्यकता | व्यक्ति को निर्वाण के लिए बुद्ध की करुणा की आवश्यकता |
5. | व्यक्तिवादी, लक्ष्य स्वयं की मुक्ति | समष्टिवादी लक्ष्य सम्पूर्ण विश्व की मुक्ति |
6. | कठोर नियम एवं अपरिवर्तनशील | लचीले नियम एवं परिवर्तनशील |
7. | केवल बुद्ध की शिक्षाओं में विश्वास | बुद्ध के साथ अनेक बोधिसत्वों, अवलोकितेश्वरों की पूजा अर्चना में विश्वास |
8. | ग्रन्थ पाली भाषा में | ग्रन्थ संस्कृत भाषा में |
9. | प्राचीन एवं मौलिक स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं | परिवर्तन का आग्रही, अवतारवाद, भक्तिवाद, मूर्तिपूजा आदि तत्वों का समावेश |
10. | निर्वाण के लिए भिक्षु जीवन आवश्यक | निर्वाण गृहस्थ को भी सम्भव |
बौद्ध संगीतियाँ –
(1) प्रथम बौद्ध संगीति –
483 ई.पू. राजगृह में शासक अजातशत्रु, महाकस्यप अध्यक्ष, बुद्ध की शिक्षाओं के संकलन हेतु सत व विनय पिटक तैयार।
आनन्द एवं उपालि क्रमशः धर्म एवं विनय के प्रमाण।
(2) द्वितीय बौद्ध संगीति –
383 ई.पू. वैशाली में, शासक कालाशोक, साबकमीर अध्यक्ष, बौद्ध भिक्षु के आचरण सम्बन्धी विवादपूर्ण विषयों के मतभेदों को दूर करने हेतु, वैशाली के भिक्षु नियमों में ढिलाई के इच्छुक, बौद्ध संघ में मतभेद के कारण दो शाखाएँ बन गई।
(3) तृतीय बौद्ध संगीति –
250 ई.पू. पाटलिपुत्र में, शासक सम्राट अशोक, अध्यक्ष- मोग्गलिपुत्त तिस्स, अभिधम्मपिटक का संकलन, थेरवादियों की प्रधानता रही, भारत के बाहर बौद्ध धर्म के प्रचार की प्रक्रिया का शुभारम्भ।
(4) चतुर्थ बौद्ध संगीति –
प्रथम शताब्दी ई.में, कश्मीर (कुण्डलवन) में, शासक- कनिष्क।
अध्यक्ष- वसुमित्र, उपाध्यक्ष – अश्वघोष।
महायान का जन्म व मान्यता, परम्परागत सम्प्रदाय हीनयान कहलाया, महासंघिकों का बोलबाला, बौद्ध ग्रंथों के ऊपर टीकाएँ बिभाषा में लिपिबद्ध हुई, पाली के स्थान पर संस्कृत को अपनाया।
बौद्ध धर्म के ग्रन्थ-
बौद्ध धर्म ग्रंथों में पाली भाषा में लिपिबद्ध पिटक सबसे प्रमुख है जो संख्या में तीन हैं –
(1) विनय पिटक –
(2) सुत्त पिटक –
(3) अभिधम्म पिटक –