जैन धर्म (Jainism)
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जैन धर्म (Jainism) के प्रवर्तक प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव माने जाते हैं। इनके बाद तेईस तीर्थंकर और हुए। लेकिन 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ से पूर्व तक के तीर्थंकरों के बारे में ऐतिहासिक शोध की आवश्यकता है। 24वें तीर्थंकर महावीर ने जैन धर्म को लोकप्रिय बनाया।
महावीर का संक्षिप्त परिचय-
महावीर का जन्म 599 ई.पू. के लगभग वैशाली के निकट कुण्डग्राम (मुजफ्फरपुर जिला, बिहार) में हुआ था। (कुछ विद्वान् महावीर का जन्म 540 ई.पू. भी मानते हैं) उनके पिता सिद्धार्थ ज्ञातृक क्षत्रियों के संघ के प्रधान थे, जो वज्जिसंघ का एक प्रमुख सदस्य था। उनकी माता त्रिशला वैशाली के लिच्छवी कुल के प्रमुख चेटक की बहन थी।
इनका का बचपन का नाम वर्धमान था। इनका विवाह कुण्डिन्य गोत्र की कन्या यशोदा के साथ हुआ। इनकी पुत्री प्रियदर्शना थी। जब वर्धमान 30 वर्ष के हुए गो उनके पिता का देहावसान हो गया। तत्पश्चात वर्द्धमान ने अपने बड़े भाई नन्दिवर्द्धन की आज्ञा लेकर गृह त्याग दिया और सत्य एवं मन की शांति की खोज के लिए निकल पड़े।
जैन धर्म के 24 तीर्थंकर के नाम (तीर्थंकर परम्परा)-
(1) ऋषभदेव या आदिनाथ, (2) अजितनाथ, (3) सम्भवनाथ, (4) अभिनन्दन, (5) सुमतिनाथ, (6) पद्मप्रभु, (7) सुपार्श्वनाथ, (8) चन्द्रप्रभु, (9) पुष्पदंत, (10) शीतलनाथ, (11) श्रेयांसनाथ, 12. वासुपूज्य, (13) विमलनाथ, (14) अनंतनाथ, (15) धर्मनाथ, (16) शान्तिनाथ, (17) कुन्थुनाथ, (18) अरहनाथ, (19) मल्लिनाथ, (20) मुनिसुव्रत, (21) नमिनाथ, (22) नेमिनाथ, (23) पार्श्वनाथ व (24) महावीर स्वामी।
12 वर्ष की कठोर तपस्या के पश्चात् वर्द्धमान को 42 वर्ष की अवस्था में जम्भियग्राम जुपालिका नदी के तट पर कैवल्य (शुद्धज्ञान) प्राप्त हुआ। उनके अनुयायी जैन नाम से जाने गए। वे वर्ष में आठ महीने भ्रमण करते तथा वर्षा काल के चार महीने एक ही स्थान पर रहते। जिन नगरों में उन्होंने अपने उपदेश दिए उनमें चम्पा, वैशाली, मिथिला, राजगृह श्रावस्ती आदि थे।
अंत में 72 वर्ष की आयु में 527 ई.पू. में राजगृह के समीप पावापुरी बिहार शरीफ से 9 मील दूर उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया, जिसे जैन धर्म में निर्वाण कहा जाता है।
महावीर के ग्यारह मुख्य शिष्य या गणधर थे, जिन्होंने संघ को उपयुक्त रूप से अनुशासित रखा था। लगभग 300 ई.पू. में जैन धर्म दिगम्बर-श्वेताम्बर नामक दो पृथक संघों में विभाजित हुआ। जिसने जैन धर्म के विकास-क्रम, प्रसार-क्षेत्र, मुनिश्चर्य और प्रतिमा-विज्ञान को प्रभावित किया।
शिक्षाएँ एवं सिद्धान्त –
24 वें तीर्थंकर महावीर से जैन धर्म एक सशक्त धर्म एवं विचारधारा के रूप में प्रचारित हुआ। जर्मन विद्वान् याकोबी ने जैन शास्त्रीय ग्रंथो का अनुशीलन कर यह बताया कि 23 वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह को अपने सिद्धान्तों का आधार बनाया था किन्तु महावीर ने इसमें अपना ब्रह्मचर्य का पाँचवा सिद्धांत जोड़ा।
महावीर ने सत्य को जानने में वेदों को प्रमाण नहीं माना। जैन मत में सृष्टि करने वाले किसी ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं किया जाता। इस दृष्टि से उसे अनीश्वरवादी कहा गया है। जैन धर्म एक ऐसा धर्म है, जो रूढ़ियों को अस्वीकृत करता है तथा वैज्ञानिक आधार पर सृष्टि जीवन, कर्म, बंधन, मोक्ष आदि की व्याख्या करता है।
जैन धर्म के सात तत्व –
जैन दर्शन सात तत्वों की योजना प्रस्तुत करता है जो निम्नानुसार हैं –
(1) जीव –
जैन दर्शन समस्त जगत को दो नित्य द्रव्यों में विभाजित करता है- जीव और अजीव। चेतन जीव का विशिष्ट लक्षण है। वह चेतन तत्त्व आत्मा है। वह अनन्त, अपार और सर्वव्यापक है। जीव अपने शुद्ध रूप में सर्वज्ञ और स्वयं प्रकाशवान है।
(2) अजीव –
अजीव अचेतन है। अजीव को पुद्गल, आकाश, धर्म, अधर्म तथा काल में विभाजित किया जाता है। ये सब द्रव्य जीवन और चेतना से शून्य होते हैं। पुद्गल वह है, जिसे जोड़ा या तोड़ा जा सके। काल का अर्थ समय है।
(3) बन्ध –
बन्धन से मुक्ति दिलाना जैन धर्म का मुख्य लक्ष्य है। बन्धन का अर्थ है- जन्म ग्रहण। जीव का अजीव द्वारा आवरण ही बन्धन है। कर्म ही वह कड़ी है, जो जीव को अपने शरीर से जोड़ती है। अतः कर्म ही बन्धन का कारण है।
(4) आस्रव –
कर्म पुद्गल के जीव के ओर प्रवाह ही आस्रव है।
दूषित मनोवेग एवं सत्य के ज्ञान के अभाव में कर्म पुद्गल जीव की और खींचते हैं।
ऐसी अवस्था में जीव अपना मूल स्वरूप खोकर आवागमन के चक्र में फंस जाता है।
(5) संवर –
नए कर्मों के आगमन को रोकने की प्रक्रिया संवर कहलाती हैं।
(6) निर्जरा –
जैन धर्म पूर्व संचित कर्मों से छुटकारा दिलाने के बारे में भी सुझाव प्रस्तुत करता है। क्योंकि संचिता के विनाश के बिना मुक्ति सम्भव नहीं है।
जैन धर्म (Jainism) में इस हेतु कठोर तप का मार्ग दर्शाया गया है। जिसे निर्जरा कहा गया है।
(7) मोक्ष –
साधना का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है, जिसमें जीव और कर्म के सम्बन्ध का पूर्ण विच्छेद हो जाता है।
जीव कर्म बन्धन के कारण ही भौतिक तत्त्व शरीर से बंधा है।
इस भौतिक तत्त्व (कर्म पुद्गल) से आत्मा को मुक्त कर देना ही मोक्ष है।
अनेकान्तवाद और स्यादवाद –
अनेकान्तवाद जैन दर्शन का विशिष्ट सिद्धान्त है। इसका अर्थ यह कि किसी भी वस्तु का एक गुण या धर्म नहीं होता, दूसरे शब्दों में कोई भी वस्तु एकान्तवादी नहीं होती है। जैन धर्म (Jainism) में कहा भी गया है अनन्तधर्मक वस्तु। इस दृष्टि से सत्य अथवा तत्त्व भी अनेकान्तमूलक हैं। इस प्रकार जैन दर्शन के इस तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्त को, जिसके अन्तर्गत प्रत्येक वस्तु अनेक धर्म (गुण) वाली मानी जाती है, अनेकान्तवाद कहा जाता है।
तत्त्व या सत्ता की दृष्टि से जो अनेकान्तवाद है, ज्ञान की दृष्टि से वही स्यादवाद है।
स्यादवाद जिसे सप्तभंगीनय भी कहा जाता है।
जैन सिद्धांत के अनुसार सांसारिक वस्तुओं के विषय में हमारे सभी निर्णय सापेक्ष या सीमित होते हैं।
मोक्ष प्राप्ति के साधन – त्रिरत्न एवं पंच महाव्रत
कर्मबन्धन से मुक्त होने के लिए जैन धर्म त्रिरत्न का अनुशीलन एवं अभ्यास की शिक्षा देता है। ये त्रिरत्न हैं –
(1) सम्यक् दर्शन –
जैन तीर्थंकरों और उनके उपदेशों में दृढ़ विश्वास ही सम्यक दर्शन या श्रद्धा है।
इसके आठ अंग बताए गए हैं।
(2) सम्यक् ज्ञान –
जैन धर्म एवं उसके सिद्धान्तों का ज्ञान ही सम्यक ज्ञान है।
सम्यक ज्ञान पांच प्रकार बताए गए हैं – (1) मति, (2) श्रुति, (3) अवधि, (4) मनःपर्याय व (5) कैवल्य।
(3) सम्यक् चरित्र –
जिसे पूर्णतः जाना जा चुका है और जिसमें पूर्ण श्रद्धा है, उसे जीवन में लागू करने की क्रिया सम्यक चरित्र है। यह जैन साधना का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है क्योंकि सम्यक चरित्र या आचरण द्वारा ही जीव अपने कर्मों से मुक्त हो सकता है।
सम्यक चरित्र के अन्तर्गत साधुओं के लिए पंच महाव्रत और गृहस्थों के लिए पाँच अनुव्रत बताए गए हैं।
जिनमें मूल भेद केवल उनके पालन की कठोरता अथवा लचीलेपन में है – (1) अहिंसा, (2) सत्य, (3) अस्तेय, (4) अपरिग्रह व (5) ब्रह्मचर्य।
जैन संगीतियाँ –
जैन धर्म (Jainism) ग्रंथों को सुव्यवस्थित रूप देने के लिए दो सभाएँ (संगीतियाँ) आयोजित की गई थी –
(1) प्रथम जैन संगीति –
यह चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में (लगभग 300 ई.पू.) पाटलिपुत्र में सम्पन्न हुई थी।
यह संगीति स्थूलभद्र एवं सम्भूति विजय नामक स्थविरों के नेतृत्व में आयोजित की गई थी।
इस संगीति में अंगों का सम्पादन किया गया।
इस सभा के निर्णयों को भद्रबाहु और उनके अनुयायियों ने नहीं माना।
परिणामतः जैन धर्म दो शाखाओं में विभाजित हो गया।
(2) द्वितीय जैन संगीति –
यह संगीति गुजरात के वल्लभी में 513 ई. में आयोजित की गई।
इस संगीति की अध्यक्षता देवख्रधगणी ने की थी।
इसमें धर्मग्रंथों का संकलन कर उन्हें लिपिबद्ध किया गया था।